अमृत वचन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’ | Amrut/Amrit Vachan

  1. सर्वत्र समचित्तता ही श्रामण्य है ।

  2. जैसे समुद्रादि में तरंगें निरन्तर उठती रहती हैं । वैसे ही क्रम से आयु का उदय प्रति समय आता रहता है उसके उदय को ही अवीचि कहा है । आयु के अनुभवन को जीवन कहते हैं । उसका भंग ही मरण है । अतः जीवन की तरह मरण भी अवीचि है ।

  3. प्रत्यक्ष और प्रमाण से अविरुद्ध और वस्तु के यथार्थ स्वरूप का अनुसारी होना वचन की प्रकृष्टता है ।

  4. जिनसूत्र का जिसे एक भी अक्षर नहीं रुचता । शेष में रुचि होने पर भी वह मिथ्यादृष्टि है ।

  5. क्षयोपशम की न्यूनता से गुरु द्वारा बताये जाने पर कुछ विपरीत श्रद्धान करने पर भी जीव सम्यग्दृष्टि ही रहता है परन्तु किसी ज्ञानी द्वारा सम्यक् बताये जाने पर भी वह हठात् विपरीत ही मानता है तो उसी क्षण मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।

  6. मिथ्याज्ञान की सेवा का एक अर्थ है निरपेक्ष नयों का उपदेश देना ।

  7. रत्नत्रय अथवा रत्नत्रय धारकों का माहात्म्य प्रगट करना प्रभावना है ।

  8. प्रवचन का अर्थ रत्नत्रय भी है ।

  9. मन से श्रद्धान करने वाले, ‘यही उत्तम है’ ऐसा वचन से कहने वाले, संकेतादि से दर्शाने वाले और समस्त प्रवचन का अनुष्ठान करने वाले सभी सम्यक्त्व के आराधक हैं ।

  10. अज्ञान, अभिमान, विषयासक्ति आलस्यादि को छोड़ कर गुरु को जो हितकर एवं प्रिय हो उसी में परिणाम लगाना मानसिक विनय है ।