अमृत वचन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’ | Amrut/Amrit Vachan

  1. ज्ञान सर्वोत्कृष्ट मंगल है । ज्ञानमयी आत्मा ही ध्रुव मंगल स्वरूप है । ज्ञानाभूति से समस्त पापों और पापों के फलस्वरूप होने वाले दुःखों का अभाव होता है और अक्षय निराकुल सुख की सिद्धि होती है ।

  2. प्रमुख कर्तव्य ज्ञानाभ्यास ही है ।

  3. मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान है । अतः मिथ्यादृष्टि ज्ञान का आराधक नहीं होता ।

  4. असंयमी का तप गजस्नान अथवा मन्थनचर्म पालिका (मथनी की रस्सी एक ओर से खुलती जाती है दूसरी ओर बंधती जाती है) के समान निष्फल है ।

  5. कर्तव्य का स्वीकार और अकर्तव्य का परिहार चारित्र है ।

  6. चारित्र में उद्योग (पुरुषार्थ) और उपयोग ही तप है । बाह्य तप से सुखशीलता (शरीर का सुखिया स्वभाव) छूटती है जिससे प्रतिकूलता में भी समता बनी रहती है ।

  7. सम्यक अर्थात श्रुतज्ञान के अनुसार चलने आदि में प्रवृत्ति करना समिति है ।

  8. सावद्य योगों (सदोष मन-वचन-काय की प्रवृत्ति) से आत्मा को गोपन अर्थात रक्षण करना गुप्ति है ।

  9. स्नेह असंयम का मूल और सन्मार्ग में बाधक है । अतः साधु लौकिक बन्धुजनों को महाशत्रु समान समझ कर उससे विरक्त होते हैं ।

  10. पाप के उदय बिना कोई किंचित भी अनिष्ट नहीं कर सकता ।