Alleged violence in vedas याज्ञिक_हिंसा

वैदिकी हिंसा हिंसा भवति…

    - ( संयम_शास्त्री " दिल्ली " )

न धर्महेतुविहितापि हिंसा
नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च ।
स्वपुत्रघाताद् नृपतित्वलिप्सा
सब्रह्मचारी स्फुरितं परेषाम्
।। 11 ।।
( स्याद्वादमंजरी , श्लो - 11 )

अर्थ -
वेद विहित होने पर भी हिंसा धर्म का कारण नही है । " अन्य कार्य के लिए प्रयुक्त उत्सर्ग वाक्य उस कार्य से भिन्न कार्य के लिए प्रयुक्त वाक्य के द्वारा अपवाद का विषय नही बनाया जा सकता । दूसरों ( अन्य मतानुयायी ) का यह प्रयत्न अपने पुत्र को मार कर राजा बनने की इच्छा के समान है।
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यज्ञ में होने वाली हिंसा को ठीक बताते हुए पूर्व मीमांसक कहते हैं । -

  1. सिँह आदि के समान लोभ तथा व्यसन वश होने वाली हिंसा पाप का कारण है , क्योकि वह हिंसा प्रमाद से उत्पन्न होती है । वेदों में प्रतिपादित हिंसा धर्म ही का कारण है ( क्योंकि वेद में कथित पूजा - उपचार की तरह वेदोक्त हिंसा भी देव , अतिथि और पितरों को आनन्द देने वाली है ) ।
    आनन्ददायकपना असिद्ध भी नही है , क्योकि कारीरी ( जिस यज्ञ के करने से वर्षा होती है ) आदि यज्ञों को करने से वर्षा का होने देखा जाता
    है । वर्षा होना यज्ञों से प्रसन्न देवता लोगो के अनुग्रह का ही फल है । अतः जिस प्रकार कारीरी यज्ञ से देवता प्रसन्न हो , वर्षा करते है , उसीप्रकार वेदोक्त हिंसा भी देवताओं को आनंद देने वाली है ।

त्रिपुरार्णव नामक मंत्रशास्त्र में कहा है

  1. देवता - बकरे और हरिण का मांस होम ( यज्ञ में डालने से )
    देवताओं को प्रसन्न कर दूसरे देश को वश में किया जा सकता
    है ।
  2. अतिथि - मधुपर्क ( दही , घी , जल , मधु और चीनी से बना
    हुआ पदार्थ ) से अतिथि लोग प्रसन्न होते हैं ।
  3. पितर - श्राद्ध से प्रसन्न होकर अपनी संतान की वृद्धि करते
    हुए देखे जाते हैं ।
  4. देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अश्वमेध , गोमेध , नरमेध
    आदि यज्ञ करना चाहिए ।
  5. अतिथि को प्रसन्न करने के लिए श्रोत्रिय ( वेद पाठी ) को बड़ा
    बैल अथवा घोड़ा मारकर देना चाहिए ।

आगम में भी कहा है । -

द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन् मासान् हारिणेनतु
औरभ्रेणाथ चतुरः शाकुनेन पञ्च तु
।।”

अर्थात् - मछली के मांस से 2 , हरिण के मांस से 3 , मेढ़े के मांस से 4 और पक्षी के मांस से 5 मास तक पितरों की तृप्ति होती है ।

करुणा से द्रवीभूत हो , जैन विद्वान कहते हैं ।-

वेदोक्त हिंसा धर्म का कारण नही हो सकती , क्योकि हिंसा को धर्म बताने से आप अपने ही वचनों का विरोध कर रहे हैं । क्योकि । -
" हिंसा चेद् धर्महेतुः कथम् **
** धर्महेतुश्च हिंसा कथम् । "

संदेश - धर्म का सार सुनकर उसे ग्रहण करना चाहिए , अपने प्रतिकूल बातों को कभी दुसरो के लिए नही करना चाहिए ।

जिस प्रकार कोई स्त्री एक ही समय माता और वन्ध्या दोनो नही हो सकती , उसी तरह हिंसा का हिंसारूप और धर्म रूप होना परस्पर विरुद्ध है ।इसलिए यह मत समीचीन नही है
Logic - जो जिसके अन्वय और व्यतिरेक से सम्बद्ध होता है , वह उसका कार्य होता है , जैसे मिट्टी का पिंड और घड़ा दोनो में अन्वय-व्यतिरेक संबंध है , इसलिए घड़ा मिट्टी के पिंड का कार्य है। परन्तु जिस प्रकार मिट्टी के पिंड होने पर ही घट होता है , वैसे ही हिंसा के होने पर धर्म होता है , ऐसा अनुभव में नही आता । क्योंकि केवल हिंसा को धर्म मानने पर अहिंसा रूप तप , ध्यान , दान आदि धर्म के कारण नही कहे जा सकते ।

मीमांसक अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं कि " हम लोग सामान्य हिंसा को धर्म नही मानते , किन्तु विशिष्ट हिंसा को ही धर्म कहते हैं । वेद में प्रतिपादित हिंसा विशिष्ट है ।
( विशिष्ट हिंसा से तात्पर्य - 1. यज्ञ में प्राणी का होम करने से उनका मरण नही होता तथा आर्तध्यान के परिणाम न होने से स्वर्ग की भी प्राप्ति होती है अतः हिंसा में धर्म समाहित है । )

जैनों का उत्तर -

1.आप कहते हो कि प्राणी का मरण नही होता परन्तु उसका मरण होता है यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध है।
2. तथा यदि कहते हो कि आर्तध्यान नही होता तो यह भी सही नही है , क्योंकि " कोई भी करुणाशील व्यक्ति हमारा रक्षक नही है " इस हृदयद्रावक भाषा से रोते हुए उन प्राणियों के मुख की दीनता , नेत्रो की चंचलता आदि से उनके दुर्ध्यान का ज्ञान स्पष्ट होता है ।

यह सुनकर वे कुतीर्थी मीमांसक पुनः कुतर्क करते हुए कहते हैं कि ।-
’ जिस प्रकार भारी लोहे का गोला पानी मे डूबने वाला होने पर भी हल्के - हल्के पत्तरों के रूप में बदलकर जहाज के रूप में पानी के ऊपर तैरता है ; अथवा जिस तरह मन्त्र के प्रभाव से , मारक विष भी शरीर को आरोग्य प्रदान करता है ; अथवा जिस तरह दहनशील अग्नि भी सत्यादिक के प्रभाव से अपने दहनस्वभाव को छोड़ देती है , उसी तरह मंत्रादि विधि से वेदोक्त हिंसा भी पापबन्ध का कारण नही होती ।
साथ ही साथ-----

वेदोक्त हिंसा निंदनीय भी नही कही जा सकती है , क्योंकि इस हिंसा के कर्ता , यज्ञ करने वाले , संसार में पूज्य दृष्टि से देखे जाते हैं

समाधान —:
आपकी बात परीक्षा की कसौटी पर नही उतरती , क्योंकि आपके द्वारा दिये गए “दृष्टान्त , वैधर्म्य के कारण साधकतम नियम से साध्य की सिद्धि करने वाले नही” होते ।

  1. जिसप्रकार लोहे का गोला तो पत्र आदि रूप में परिणत हो तैर लेता है , उसीप्रकार वैदिक - विधिमंत्रो के संस्कार से मारे जाते हुए पशुओं की वेदना का अनुत्पत्ति रूप कार्य नही देखा जाता ।
    यदि आप कहें कि वे स्वर्गप्रप्ति रूप परिणति को प्राप्त करते देखे जाते हैं , तो इसका कोई प्रमाण नही !! ( ना तो प्रत्यक्ष से ही , अपितु अनुमान से भी यह बात सिद्ध होती है , क्योंकि ’ वध के अनन्तर देवत्व की प्राप्ति ’ , साध्य के साथ अविनाभावी हेतु उपलब्ध नही होता । आगम में भी इसकी सिद्धि नही तथा अर्थापत्ति और उपमान से भी इसकी सिद्धि नही की जा सकती ) ।

पुनः वे आक्षेपात्मक प्रश्न करते हुए कहते हैं ।

–जिसप्रकार जैनमत में पृथ्वी आदि जीवों का घात होने पर भी परिणाम विशेष के कारण जैनमत में मंदिरों का निर्माण पुण्यरूप ही माना जाता है , उसी तरह वेद-विहित हिंसा में वेदों का विधि-विधानरूप विशिष्ट परिणामों का सद्भाव होने से वह पुण्य का ही कारण होती है ।

जैनों का उत्तर । -

  1. आपकी बात ठीक नही है , ’ क्योंकि मंदिरों के निर्माण करने में उपायांतर का अभाव होने से ( अर्थात मंदिर बनाने के अलावा अन्य उपाय का अभाव होने से ) , सावधानीपूर्वक प्रवृत्त होते हुए भी अत्यंत अल्प ज्ञान के धारक पृथ्वी आदि जीवों का वध अनिवार्य है , तथा पृथ्वी आदि के वध करने पर अल्प पुण्य के नाश होने से अपरिमित पुण्य की प्राप्ति होती है । ’

परन्तु आप लोगों के मत में
श्रुति , स्मृति , पुराण , इतिहास में यम , नियमादि से स्वर्ग की प्राप्ति का प्रतिपादन किया है , तथा उन उन देवी-देवताओं के उद्देश्य से प्रत्येक मूर्ति के समक्ष अपने शरीर के काटे जाने के भय से विह्वल , निस्सहाय पंचेन्द्रिय जीवों को कसाई से भी अधिक क्रूरता से मारने वाले पुरुषों के समस्त पुण्य के नष्ट हो जाने के कारण दुर्गति को ले जाने वाले परिणामों को शुभ परिणाम कहना दुर्लभ है । अतएव थोड़ा-बहुत सादृश्य देखकर दृष्टान्त बनाने से आपके मत में अतिप्रसंग उपस्थित होता है ।

" जीवों का वध होने पर भी जिनमंदिर के निर्माण में पुण्य होने का कारण " -
१. क्योंकि मंदिर में जिनप्रतिमा के दर्शन से गुणानुराग होने के कारण भव्य पुरुषों को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है ।
२. भगवान के पूजातिशय के विलोकन से मन प्रफुल्लित होता है , जिससे समता भाव जागृत होता है , और समता भाव से क्रमशः मोक्ष की प्राप्ति होती है । कहा भी है । -

परन्तु वेदोक्त हिंसा में हमें कोई पुण्य-उपार्जन के कारण नही दिखते । -
यदि कहो कि -
‌ वेदोक्त वध के अवसर पर ब्राह्मणों का पुरोडाश ( होम के बाद बचा हुआ द्रव्य ) आदि देने से पुण्य होता है , तो यह ठीक नही । क्योंकि पवित्र स्वर्ण आदि के देने से ही पुण्य हो सकता है, मूक पशुओं के मांस का दान करना केवल निर्दयता का ही द्योतक है
‌● वेदोक्त रीति से पशुवध करने का फल केवल ब्राह्मणों को मांस का दान करना नहीं , किन्तु उससे विभूति की प्राप्ति होती है , क्योंकि श्रुति में भी कहा है, " ऐश्वर्य प्राप्त करने की इच्छा करने वाले पुरुष को वायु देवता के लिए श्वेत बकरे का यज्ञ करना चाहिए । " , यह बात भी व्यभिचार पिशाच से ग्रस्त है । क्योंकि ऐश्वर्य की प्राप्ति अन्य उपायों से भी हो सकती है ।
‌● यज्ञ में मारे जाने वाले बकरे आदि परलोक में स्वर्ग प्राप्त करते हैं , इसलिए प्राणियों का उपकार होता है , यह भी ठीक नही । क्योंकि बकरे आदि यज्ञ में वध किये जाने के बाद स्वर्ग को प्राप्त करते हैं , इसमें कोई प्रमाण नही है । क्योंकि मरने के बाद स्वर्ग में गए हुए पशु स्वर्ग से आकर प्रसन्न मन से वहाँ के समाचारों को नही सुनाते । तथापि यदि आप कहें कि आगम में कहा है ।-
" औषधि, पशु, वृक्ष, तिर्यंच और पक्षी यज्ञ में निधन को प्राप्त होकर उच्च गति को प्राप्त करते हैं " इत्यादि , तब भी आगम से भी इसकी प्रमाणता सिद्ध नही होती , क्योंकि आपके आगम के स्वरूप में भी व्यभिचार है ।
‌● वेदोक्त विधि से पशुओं को मारने से स्वर्ग की प्राप्ति रूप उपकार होता है , तो यह भी सत्य नही है , क्योंकि यदि हिंसा से स्वर्ग की प्राप्ति होने लगे तो नरक के मुख्य मार्ग को बंद ही कर देना होगा , और संसार क सभी कसाई स्वर्ग में पहुँच जायेंगे
सांख्यों ने भी कहा है ।-
" यूपं छित्त्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् ।
** यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते " ।**
अर्थात - " यदि यूप ( यज्ञ में पशुओं को बांधने की लकड़ी ) को काट करके, पशुओं का वध करके, और रक्त से पृथ्वी का सिंचन करके स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है, तो नरक जाने के लिये कौनसा मार्ग बचेगा ? "
‌◆ तथा यदि अपरिचित और अस्पष्ट चेतनायुक्त तथा किसी प्रकार का उपकार न करनेवाले मूक प्राणियों के वध से भी स्वर्ग की प्राप्ति संभव है ! ,तो परिचित और स्पष्ट चेतनायुक्त तथा महान उपकार करनेवाले अपने माता-पिता के वध करने से याज्ञिक लोगों को स्वर्ग से भी अधिक फल मिलना चाहिए
‌◆ यदि आप कहेंगे कि " मणि , मन्त्र और औषध का प्रभाव अचिन्त्य होता है ," इसलिए वैदिक मंत्रों का भी अचिन्त्य प्रभाव है, अतएव मन्त्रों से संस्कृत ( परिष्कृत ) पशुओं का वध करने से पशुओं को स्वर्ग मिलता है , तो यह भी ठीक नही है।
कारण…। ( क्यों ठीक नही है ? )

  1. क्योंकि इस लोक में विवाह, गर्भाधान और जातकर्म आदि में उन
    मन्त्रों का व्यभिचार पाया जाता है ।
  2. तथा अदृष्ट स्वर्ग आदि में उस व्यभिचार का अनुमान किया
    जाता है ।

कैसे…?

  1. देखा जाता है कि , वैदिक विधि के अनुसार विवाह आदि किये जाने पर भी स्त्रियाँ विधवा हो जाती हैं ।
  2. तथा सैकडों मनुष्य अल्पायु , दरिद्रता आदि उपद्रवों से पीड़ित रहतें हैं ।
  3. तथा, विवाह आदि के वैदिक मन्त्र-विधि से संपादित न होने पर भी अनेक स्त्री-पुरुष आनंद से जीवन-यापन करतें हैं , इसलिए वैदिक मंत्रों से संस्कृत वध किये जानेवाले पशुओं को स्वर्ग की प्राप्ति स्वीकार करना ठीक नही है ।
    ‌★ यदि आप कहें कि मन्त्र अपना पूरा असर दिखातें हैं, लेकिन यदि मन्त्रों की ठीक-ठीक विधि नही की जाय , तो मन्त्रों का असर नही रहता , यह बात भी ठीक नही । इससे संशय की निवृत्ति नही होती । क्योंकि मन्त्रों की विधि में वैगुण्य होने से मन्त्रों का प्रभाव नष्ट हो जाता है, अथवा स्वयं मन्त्रों में ही प्रभाव दिखाने की असमर्थता है, यह कैसे निश्चय हो ? , मन्त्रों के फल से अविनाभाव की सिद्धि नही होती ।

पुनः वे जैनमत के विचारों का हवाला देते हुए कहते हैं , कि -
■ जिस प्रकार जैन मत में स्तुति आदि से दूसरे लोक में फलप्राप्ति कही जाती है , उसी तरह हमारे माने हुए वेद-वाक्यों का और विवाह आदि मन्त्रों का फल भी परलोक में ही मिलता है ।

समाधान - यदि आप लोग इस जन्म में विवाह आदि में प्रयुक्त मन्त्रों का फल आगामी भाव मे स्वीकार करते हैं , तो यह आपके वचनों की विचित्रता है , और इस तरह तो दूसरे , तीसरे आदि अनेक भावों में मन्त्र के संस्कारों का फल मान लेने से अनंत भवों की उत्पत्ति माननी पड़ेगी , ओर इस तरह कभी संसार का अंत न होने से किसी को भी मोक्ष न मिलेगा । इस प्रकार आपके द्वारा मान्य वेद को अनंत संसारवल्लरी का मूल मानना होगा ।
तथा हम लोग जो स्तुति आदि करतें हैं , वह व्यवहार भाषा द्वारा परिणामों की विशुद्धि के लोए है , दोष के लिए नही । इससे हमारा अभिप्राय केवल चतुर्गति रूप संसार के भाव-रोगों को दूर करने का है ; वही उत्तम फल है ।

तथा ऐसा नही है कि वेदोक्त हिंसा निंदनीय नही है। “सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न मार्ग के अनुयायी वेदान्तियों ने भी हिंसा की निंदा की है ।
तत्त्वदर्शियों ने भी कहा है ।-
" देवोपहारव्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथबा ।
घ्नान्ति जन्तून् गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम् ।”
अर्थ - जो निर्दय पुरीष देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अथवा यज्ञ के बहाने पशुओं का वफद करतें हैं , वे लोग दुर्गति में पड़तें हैं ।

वेदान्तियों ने भी कहा है ।-
" अन्धे तमसि मज्जाम: पशुभिर्ये यजामहे **
** हिंसा नाम भवेद्धर्मों न भूतो न भविष्यति ।
"
अर्थ - यदि हम पशुओं से यज्ञ करें तो घोर अंधकार में पडे । अतएव हिंसा न कभी धर्म हुआ , न है और न होगा । अतः अग्नि-देवता इस हिंसाजन्य पाप से मुझे मुक्त करो ।

तथा व्यास ने भी यज्ञ का आध्यात्मिक अर्थ किया है ।


इत्यादि…।

■ तथा आपने जो याज्ञिक पुरुषों को लोक में पूज्य बताया, वह भी ठीक नही है । क्योंकि मूर्ख ही याज्ञिकों की पूजा करतें हैं , पंडित नही है । तथा , मूर्खों के द्वारा याज्ञिकों का पूजा जाना प्रमाण नही कहा जा सकता , क्योंकि कुत्ते आदि भी लोक मे पूजे जाते हैं । तथा आपने जो कहा कि वेदोक्त हिंसा , देवता , अतिथि और पितरों को प्रसन्न करती है, अतएव वह निर्दोष है , यह कथन भी निःसार है । क्योंकि देव वैक्रियक शरीर के धारक होते हैं , अतएव वे अपने संकल्प मात्र से किसी भी इष्ट पदार्थ को उत्पन्न कर उसके पुद्गलों का रसास्वादन कर सकते हैं । इसलिए ग्लानि युक्त आप लोगों की दी हुई पशु के मांस आदि की आहुति ग्रहण करने की इच्छा भी वे नही करते । औदारिक ( स्थूल ) शरीरवाले प्राणी ही इस आहुति को ग्रहण कर सकते हैं । "यदि आप लोग देवों को यज्ञ की अग्नि में आहुति में प्रक्षिप्त आहार का भक्षक स्वीकार करेंगे , तो देवों को मंत्रमय शरीर के धारक नही कह सकते । परन्तु आपने देवों को मंत्रमय शरीर के धारक स्वीकार किया है ।
(जैमिनी , पूर्व मीमांसक , मृगेंद्र….)

होम किये हुए पदार्थ भस्म हो जाते हैं , और उन पदार्थों के उपभोग से देव प्रसन्न होतें है , यह कथन प्रलापमात्र है ।

आपत्तियाँ…।
तथा आपने त्रेता अग्नि ( दक्षिण-आह्वानीय-गार्हपत्य अग्नि ) को तैंतीस करोड़ देवताओं का मुख स्वीकार किया है । श्रुति में भी कहा है - " अग्निमुखा वै देवाः " । परन्तु इस तरह उत्तम , मध्यम और जघन्य श्रेणी के अनेक देवता एक ही मुख से होम किये हुए पदार्थों का भक्षण करेंगे , अतएव उच्छिष्ट ( झूठें ) पदार्थों के भक्षण करने में वे तुरुषकों ( मुसलमानो ) से भी बढ़ जाएंगे । और तुरुष्क तो एक ही साथ एक पात्र में भोजन करतें हैं , जबकि देवता लोग एक ही मुख से भोजन किया करेंगे ।
‌● तथा एक शरीर मे अनेक मुख तो सुनने में नही आते हैं , परन्तु अनेक शरीरों में एक मुख का होना अत्यंत आश्चर्य की बात है ।
‌● तथा , सब देवताओं के एक मुख मानने पर यदि कोई एक देव की स्तुति और दूसरे देव की निंदा करें , तो एक ही मुख से देवता लोगों को एक साथ अनुग्रह और निग्रह रूप वाक्यो को बोलना होगा ।
●‌ तथा देह के नौवें हिस्से को मुख कहा गया है, यदि यह नौवां हिस्सा भी अग्नि रूप हो , तैतीस करोड़ देवता संसार को भस्म कर डालेंगे ।
■ आप जो कहते है कि कारीरी यज्ञ करने से देवतागण प्रसन्न होकर वृष्टि आदि फल प्रदान कर अनुग्रह करते हैं , यह भी अनैकान्तिक है ।

  • क्योंकि बहुतसी जगहों पर यज्ञ करने पर भी वृष्टि नहीं होती ।
    ● तथा जहाँ यज्ञ के करने और वृष्टि होती है , वहाँ उस वृष्टि में देवताओं को दी हुई आहुति से उत्पन्न अनुग्रह को कारण नही मान सकते ।
  • क्योंकि अतिशय ज्ञानी देवतागण अपने स्थान में बैठें रह कर ही अपने पूजा सत्कार आदि को अवधिज्ञान से जान , पूजा-सत्कार करनेवाले पुरुष से प्रसन्न हो , उसकी इच्छानुसार फल देतें हैं ।
  • यदि देवता का पूजा आदज की ओर उपयोग न हो , अथवा उपयोग होने और भी पूजकों का भाग्य प्रबल न हो , तो पूजा करने वाले पुरुष की अभीष्ट सिद्धि नही होती । कारण की द्रव्य , क्षेत्र , काल , भाव आदि सहकारी कारणों से कार्य की उत्पत्ति होती है । तथा पशुओं का वध करने की अपेक्षा देवताओं को प्रसन्न करने के अन्य बहुत से उपाय हैं , फिर आप लोग हिंसक और निंद्य वृत्ति का ही क्यों प्रयोग करतें हैं ?
    ● देवी के परितोष के लिए बकरे और हरिण के होम करने से दूसरे राष्ट्र वश में हो जातें हैं , यह कथन भी असत्य है ।
  • क्योंकि पहले तो उत्तम देवी-देवता इस घृणित और हिंसात्मक कार्य से प्रसन्न नही हो सकते ।
  • यदि कोई क्षुद्र देवता प्रसन्न भी हो , तो वह माँसादिक के दर्शन अथवा ज्ञान मात्र से ही संतुष्ट हो जाता है , उसे माँसादिक के उपभोग करने की आवश्यकता ही नही रहती ।
  • तथा यदि अग्नि में आहूत मांसादि देवताओं के मुख में पहुच सकते हैं, तो होम किये हुए नीम के पत्ते , कड़वा तेल , मांड , धूमान्श आदि क्यों नही पहुच सकते ? वास्तव में सहकारी कारणों से युक्त आराधक की भक्ति ही वृष्टि , विजय आदि फल प्रदान करने में कारण होती है । जैसे चिंतामणि रत्न के अचेतन होने पर भी वह मनुष्य के पुण्योदय के कारण ही फलदायक होता है ।
  • तथा हम संस्कारित और पके हुए अन्न आदि से अतिथियों का सत्कार कर उन्हें प्रसन्न कर सकते हैं , तो फिर बैल , बकरे आदि का मांस भक्षण कराना अविवेकता को ही द्योतित करता है ।

श्राद्ध -
श्राद्ध करने से पितर लोग प्रसन्न होते हैं , यह कथन भी दोषपूर्ण है । क्योंकि श्राद्ध आदि के करने पर भी कितने ही लोगों को सन्तानवृद्धि नही होती , और श्राद्ध न करने पर भी गधे , सुअर , बकरे आदि के अपने आप ही बहुत सन्तान हो जाती है । अतएव श्राद्ध आदि का विधान केवल मूर्ख लोगों को ठगने के लिए ही किया गया है ।

  • जो पितृजन परलोक चले जातें हैं, वे इस भाव मे किये हुए अपने शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार देव , नरक आदि गतियों में सुख , दुख का उपभोग करते बैठते हैं , इसलिए वे अपने पुत्र आदि द्वारा दिये हुए पिंड का उपभोग करने की इच्छा भी कैसे कर सकते हैं ?
    आपके ही मतानुयायियों ने कहा है ।-
    **" मृतानामपि जंतूनां श्राद्धं चेत तृप्तिकारणं **
    तन्निर्वाणप्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम "
    अर्थ- यदि श्राद्ध मरे हुए प्राणियों को तृप्ति का कारण हो सकता है , तो दीपक का निर्वाण होने पर भी तेल को दीपक की ज्योति के संवर्धन में कारण मानना चाहिए।
  • तथा , इस लोक में श्राद्ध आदि से उत्पन्न पुण्य, परलोक सिधारे हुए पितरों के पास कैसे पहुँच सकता है ? क्योंकि यह पुण्य पितरों से भिन्न पुत्र आदि से किया गया रहता है , तथा यह पुण्य जड़ तथा गतिहीन है ।
  • यदि कहो कि पितरों के उद्देश्य से श्राद्ध करने पर दान देने वाले पुत्र आदि को ही पुण्य होता है , यह भी ठीक नही । क्योंकि श्राद्धादि से उत्पन्न होने वाले पुण्य से पुत्र का कोई भी संबंध नही , वह तो निज अध्यवसायजन्य है ।
    अतएव श्राद्धजन्य पुण्य न तो पितरों का पुण्य कहा जाता है , और न ही पुत्रों का , इस तरह यह पुण्य त्रिशंकु की भांति बीच मे ही लटका रहता है ।
  • यदि कहें कि ब्राह्मणों को खिलाया भोजन पितरों के पास पहुंच जाता है , तो इसका कौन विश्वास करेगा ? क्योंकि जो भोजन ब्राह्मणों को खिलाया जाता है , उससे ब्राह्मणों का ही पेट बड़ा होता देख जाता है ।
  • पितरों का ब्राह्मणों के शरीर मे प्रविष्ट होना भी विश्वास के योग्य नही ; क्योंकि ब्राह्मणों को भोजन कराते समय उनके शरीर मे पितरों के प्रवेश होने का भी कोई चिन्ह दिखाई नही पड़ता , और भोजन पाकर ब्राह्मणों की ही तृप्ति देखी जाती है ।
    ब्राह्मण बड़े-बड़े ग्रासों द्वारा अत्यंत लोलुपता पूर्वक भोजन करते हुए साक्षात प्रेतों के समान मालूम होते हैं । अतःएव श्राद्धों में विश्वास करना बिल्कुल व्यर्थ है ।
    ■ तथा आप ( यज्ञ प्रेमी )लोगों के वक्तव्य में उत्सर्ग विधि और अपवाद विधि दोनों भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के साधक हैं । जैसे , " किसी भी प्राणी की हिंसा नही करनी चाहिए," यह उत्सर्ग विधि नरक आदि कुगतियों का निषेध करने के लिए बताई गई है । तथा , " वेदोक्त हिंसा हिंसा नही है ," यह अपवाद विधि देवता, अतिथि और पितरों को प्रसन्न करने के लिए कही गयी है । इस प्रकार उत्सर्ग और अपवाद दोनो एक दूसरे से निरपेक्ष हैं, अतएव उत्सर्ग विधि अपवाद विधि से बाधित नही हो सकती ।
  • " तुल्य बल होने पर ही विरोध होता है ", इस न्याय से उत्सर्ग और अपवाद के भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के सिद्ध करने पर भी उत्सर्ग और अपवाद में विरोध नही हो सकता ।
  • यदि आप लोग कहें कि वैदिक हिंसा भी स्वर्ग का कारण है, उससे भी दुर्गति का निषेध होता है , अतएव उत्सर्ग और अपवाद एक ही प्रयोजन के साधक हैं , तो यह भी ठीक नही । क्योंकि वैदिक हिंसा स्वर्ग का कारण नही हो सकती , इसका हमने खण्डन कर ही दिया है ।
    ● वैदिक हिंसा के बिना अन्य साधनों से भी स्वर्ग की प्राप्ति होती है । यदि स्वर्ग प्राप्ति के लिए अन्य साधन न होते, तो आप वैदिक हिंसा से स्वर्ग पाने के लिए अपवाद विधि स्वीकार कर सकते थे । परंतु आपने स्वयं यम , नियम आदि को स्वर्ग का कारण माना है ( Ref. - गौतमधर्मसूत्र , पातंजलयोगसूत्र , मनुस्मृति आदि ) । तथा केवल हम जैन लोग ही वेदोक्त यज्ञ विधान का निषेध नही करते , आप लोगों के पूज्य व्यास जैसे ऋषियों ने भी कहा है ।-
    " पूजया विपुलं राज्यमग्निकार्येण सम्पदः ।
    तपः पपविशुध्दयर्थम् ज्ञानम् ध्यानम् च मुक्तिदम् ।"
    अर्थात - पूजा से विपुल राज्य, अग्निकार्य ( यज्ञ ) आदि से सम्पदा , तप से पापों की शुद्धि और ज्ञान-ध्यान से मोक्ष मिलता है ।"

निष्कर्ष - अतएव जैसे कोई मूर्ख पुरुष कठोर स्वभाव के कारण अपने पुत्र का वध करके राज्य को प्राप्त करना चाहता है, और राज्य पाने पर वह पुत्रवध के पाप से मुक्त नही होता , इसी प्रकार याज्ञिक लोग वेदोक्त हिंसा के द्वारा देवता आदि को प्रसन्न करके स्वर्ग को प्राप्त करना चाहते हैं, परन्तु यदि हिंसा के द्वारा देवता आदि ओरसन्न होते भी हों, तो भी याज्ञिक लोग हिंसाजन्य पाप से मुक्त नही हो सकते ।

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