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वीतरागता के लक्ष्यपूर्वक भगवान की भक्ति

चेतन, जड़ नहीं होता और जड़, चेतन नहीं होता। जड़ के स्वभाव में चेतनपना नहीं होता और चेतन के स्वभाव में जड़पना नहीं होता। जड़ के संयोग से होनेवाला विकार भी वस्तुतः चेतन का स्वभाव नहीं है। जैसे, सर्वज्ञदेव वीतराग बिम्ब है, वैसा ही आत्मा का स्वभाव है - ऐसे लक्ष्यसहित वीतराग भगवान की भक्ति इत्यादि का राग आवे, वह प्रात:काल की सन्ध्या / लालिमा जैसा है। जिस प्रकार प्रात:काल की सन्ध्या / लालिमा के पश्चात् सूर्योदय होता है और सायंकाल की सन्ध्या / लालिमा के पश्चात् सूर्यास्त हो जाता है; उसी प्रकार वीतरागता के लक्ष्यपूर्वक भगवान की भक्ति इत्यादि का जो शुभराग है, वह प्रात:कालीन लालिमा के समान है; तत्पश्चात् जगमगाता चैतन्य सूर्य उदय होनेवाला है।

जिसे वीतरागता का लक्ष्य नहीं है, वीतरागदेव की भक्ति नहीं है और मात्र शरीरादि जड़ के राग का ही पोषण करता है, उसे तो उस लालिमा के पश्चात् अन्धकार आयेगा, उससे चैतन्यसूर्य ढंक जायेगा।

जहाँ स्वभाव का लक्ष्य है, वहाँ वर्तमान राग की लालिमा की मुख्यता नहीं है, अपितु यह राग मेरा स्वरूप नहीं है। इस प्रकार वीतराग स्वरूप के लक्ष्य से वह राग मिटकर चैतन्य प्रकाश प्रगट होगा और पूर्ण केवलज्ञान होगा।

(- पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी, सोनगढ़ प्रतिष्ठा महोत्सव के प्रवचनों से)

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