अभिशापों में वरदानों के स्वर्णिम | Abhishapo me vardano ke swanim

अभिशापों में वरदानों के स्वर्णिम फूल खिला करते हैं।
पद की ठोकर खाता पत्थर पड़ा धूल में सिसकी भरता,
पल भर भी जो पा न सका है, निष्ठुर जग की महंगी ममता,
अरे! श्रमिक की उस टाँकी से उसका हृदय निकल पड़ता है,
रल-मुकुट भी जिसे देखकर सविनय नीचे झुक पड़ता है,
लक्ष-लक्ष की पावन पूजा पत्थर भी यों पा जाते हैं,
अभिशापों में वरदानों के स्वर्णिम फूल खिला करते हैं।।1।।

अमर साधना में रत योगी तन काँटे-सा सूख गया है,
वैभव की उन्माद भरी न रातों को अब भूल गया है,
इधर वासना थकती जाती उधर तप रही कंचन काया,
मचल पड़ी है उसे रिझाने आज विश्व की मोहक माया,
तपो-वह्नि में जल-जल योगी कंचन हो निकला करते हैं,
अभिशापों में वरदानों के स्वर्णिम फूल खिला करते हैं।।2।।

इसे भूलना मत रे! जीवन, संघर्षों की एक कहानी,
जीवन में संघर्ष न हो तो, यही मृत्यु की एक निशानी,
सुख की चाह न करना मानव वह विनाश की धमिल रेखा,
दुःख से बिछुड़-बिछुड़ क्या जग में, सुख को जीवित रहते देखा?
विहँस गरल को पी-पी मानव यों शिव-शंकर बन जाते हैं,
अभिशापों में वरदानों के स्वर्णिम फूल खिला करते हैं।।3।।

जग जिसको अभिशाप समझता, मैं वरदान उसे कहता हूँ,
अतः दुःख के झंझावातों को हँस-हँस कर सह लेता हूँ,
सदियों से जो अरे! विश्व की क्रूर ठोकरें सहते आये,
हें मिला वरदान, विश्व ने श्री चरणों में शीश झुकाये,
पुण्य-पूत ठोकर से पत्थर अरे! अहिल्या बन जाते है,
अभिशापों में वरदानों के स्वर्णिम फूल खिला करते हैं।।4।।

जीवन की काली रातें हों, आशा सरिता सूख चली हो,
सरस सरोवर मानस का जब मृगतृष्णा की मरूस्थली हो,
अन्तिम श्वासें लेती हो जब यह मेरी मिट्टी की काया,
पर क्या मेरे ज्ञान दीप को कोई कभी बुझाने पाया?
जग के प्रलय-तिमिर में मेरे अन्तर्दीप जला करते हैं
अभिशापों में बरदानों के स्वर्णिम फूल खिला करते हैं।।5।।

Artist: श्री बाबू जुगलकिशोर जैन ‘युगल’ जी
Source: Chaitanya Vatika

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बहुत ही सारगर्भित मार्मिक रचना है।।