अब निहारो अहो! अपनी ज्ञायक छवि | Ab niharo Aho! Apni gyayak chhavi | br. Ravindraji

अब निहारो अहो! अपनी ज्ञायक छवि,
तोष अनुपम सहज ही प्रगट होयगा ।
लेश भी न रहे रोग दुःख शोकभय,
सिद्ध जैसा ही सुख अनुभवन होयगा ॥ 1 ॥

सेठ ज्यों रोवता लूट को देखकर,
हाय मैं लुट गया पास कुछ भी न रहा।
ज्यों ही अन्दर गया निधि सुरक्षित लखी,
फिर तो आनंदमय वह स्वयं हो गया ॥ 2 ॥

देखता मात्र पर्याय को मूढ़ त्यों,
मैं दुःखी दीन पामर बिलखता फिरे।
सीख गुरु की सुनो, द्रव्य दृष्टि करो,
मैं तो शाश्वत प्रभो हर्ष यों होयगा ॥ 3 ॥

व्यर्थ ही तू भटकता अरे ! बाह्य में,
अन्य से लाभ की झूठी आशा लिए।
कुछ कमी ही नहीं लख स्वयं पूर्ण हूँ,
मिथ्या संक्लेश फिर तो नहीं होयगा ॥ 4 ॥

मूढ़ अत्यन्ताभाव को क्यों भूलता,
देगा पर कैसे ? तू कैसे लेगा कहाँ ?
व्यर्थ ही हो विमोहित बने आकुलित,
लेना देना नहीं कुछ कभी होयगा ॥ 5 ॥

जिसकी चिन्ता में व्याकुल रहे रात-दिन,
देह अत्यन्त न्यारी सदा ही रहे।
परिणमन देह का ही बने रोग भय,
हो जा निश्चिन्त तुझमें नहीं होयगा ॥6॥

लोक की रीति रोगी से दूरहि रहे,
और तू मूढ़ एकत्व करता फिरे ।
मानो काया नहीं रोगी तू ही हुआ,
ऐसे एकत्व से भिन्न ही होयगा ॥ 7 ॥

‘आत्मन्’ एक ही मार्ग है शान्ति का,
आँख मींचो जगत से लखो आपको।
अप्रभावी जगत से स्वयं में मग्न,
आत्मवैभव सहज सुख प्रगट होयगा ॥ 8 ॥

जिनमें तू मानता इष्ट- अनष्टिता,
ज्ञान में प्रभु के भी वे सभी आ रहे।
वे निराकुल रहे आकुलित तू बने,
सोच फिर कैसे तुझे शिवपद होयगा ॥ 9 ॥

अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है आत्मन्,
मात्र दृष्टि पलटने की बात है।
दूर हों राग-द्वेषादि, प्रभु तू बने,
चार गति में भ्रमण फिर नहीं होयगा ॥ 10 ॥

Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप स्मरण - पेज नंबर 60