अब मोहि तारि लै नेमिकुमार ॥ टेक ॥
चहुँगत चौरासी लख जौंनी, दुखको वार न पार ॥ अब. ॥ १ ॥
करम रोग तुम वैद अकारन, औषध वैन उचार ॥। अब ।। २ ।।
‘द्यानत’ तुम पद-यंत्र धारधर, भव- ग्रीषम-तप-हार ॥ अब. ॥ ३ ॥
अर्थ
हे नेमिनाथ मुझको अब तार लो मुझको पार लगा दो। - चारों गति की चौरासी लाख योनियों के दुःखों का कोई पार नहीं है।
कर्मरोग के निवारण के लिए आप सहजरूप से, बिना कारण के कुशल वैद्य हैं। आपके वैन (वचन), वाणी, दिव्यध्वनि ही, उसका उपचार है। द्यानतराय जी कहते हैं कि मैं आपके चरण कमलरूपी मंत्र को धारण करूँ जो भव भव के ताप को दूर करनेवाले हैं।
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी