इन्द्रियों की तृप्ति के लिए तू पापों के घरस्वरूप पंचेंद्रियों के विषयों को भोगना चाहता है लेकिन यह तो अग्नि बुझाने के लिए घी डालने जैसा हुआ |
तू जिसे सुख मान रहा है वह तो शहद लपेटी हुई तलवार को चखने के समान है, अति तीक्ष्ण है और दुखदाई है इसलिए कवि भागचन्द जी कहते हैं कि इन भोगों को तजकर आत्म स्वरूप पहिचानो अथवा वह भाग्यशाली है जो इन भोगों को तजकर आत्मस्वरूप को पहिचान लेता है |