आत्मा में लीन रहूँ सदा
आत्मा ही मेरा वास है ।
पर पुद्गलों से भिन्न हूँ
निज चेतना आवास है ।
श्रद्धान दृढ़ मेरा यही
निज पर ही सुख निर्भर मेरा
सुख - दु:ख का कारण पर नहीं
निज परिणति ओ! लख ज़रा ।
है तुल्य हर एक आत्मा
नहीं हीन नहीं अतिरिक्त है ।
पर से न तुलना कर कभी
मैं सिद्ध बुद्ध स्वरूप हूँ ।
प्रिय शब्द अप्रिय शब्द को
मन में न फिर-फिर याद कर ।
शब्दों से सुख-दु:ख नहीं मिले
निज लक्ष्य में पुरुषार्थ कर ।
नयनों को नहीं चंचल बना
जड़ में है सुंदरता कहाँ।
सौंदर्य आत्म स्वभाव में
वैराग्य लहराये जहाँ ।
हो सुगंध या दुर्गंध चेहरे
पर न कोई फर्क हो ।
मन भावना एक सी रहे
निर्लिप्तता अवितर्क हो ।
कैसा भी रस हो वस्तु में
समरस रहे मन एक-सा ।
हो समरुचि रसना जयी
तन भिन्न चेतन की दशा ।
हो शीत या गर्मी मगर
मन स्वस्थ होवे सर्वदा ।
कर्कश सड़क और मच्छरों का
डंक भी सहना मुदा ।
नहीं प्रेम पाने की तड़प
नहीं यश की कोई लालसा ।
मैं अरति आनंद से विरत
खुद ही स्वयं का मित्र हूँ ।
सेवा विनय ऋजुता गुणी
आलीन गुप्त पवित्र हूँ ।
निष्काम रह सबका सुहित
करना मेरा संकल्प है
संवेग रस भरपूर है
निर्वेद भाव अनल्प है ।
मैं सिद्ध होऊँ सिद्ध होऊँ
भवदशा निर्मुक्त हो ।
सिद्धत्व भाव में लीन हो
अंतर्दशा अनुभूत हो ।
ज्योति स्वरूप अखंड में
सुख का परम रस धाम हूँ ।
ज्यों पंक में पंकज त्यों ही
जग में विमल अभिराम हूँ ।
आत्मा में लीन रहूँ सद…