आत्म-ज्ञान की गाथा | Aatma gyan ki gatha

आओ भाई तुम्हें सुनाएं गाथा आतम-ज्ञान की,
जिससे तड़क-तड़क गिर पड़ती कर्मों की संतान भी
वंदे जिन-वरम् वंदे जिन-वरम्

(1)
लगा गधों के साथ अरे ज्यों सिंह कोई लासानी हो ।
या निज को अंग्रेज समझता कोई हिन्दुस्तानी हो
रे अनंत वैभव का स्वामी निपट भिखारी बन फिरता
खाक छानता चौरासी की फिर भी पेट नहीं भरता
हुई अरे नादानी में यह दीन दशा भगवान की
जिससे तड़क…
(2)
षट द्रव्यों का चक्र सुदर्शन जग में चलता रहता है
वह बेरोक निरंतर अपने सुन्दर पथ पर बढ़ता है
किसकी हस्ती उसकी गति को रोक सके जो निज बलसे
कौन अभागा सिंह बदन में बढ़कर अपनी अंगुलि दे
यह अखंड सिद्धान्त बात यह सहज प्रकति विज्ञान की
जिससे तड़क…
(3)
अणु-अणु की सत्ता स्वतंत्र है द्रव्य मात्र स्वाधीन सभी
सब की सीमा न्यारी नहिं आदान-प्रदान विधान कभी
सवको अपनी सीमा प्यारी अपना घर ही प्यारा है
अरे विश्व का शांति विधायक यह सिद्धान्त निराला है
यही वस्तु की मर्यादा है यही वस्तु की शान भी
जिससे तड़क…
(4)
जड़ चेतन छह द्रव्य विश्व में न्यारे-न्यारे रहते हैं
पुदगल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश इन्हें जड़ कहते हैं
चेतन ज्ञान विशिष्ट वस्तु है जड़ में ज्ञान नहीं रहता
आदि रहित है अंत रहित है जड़ चेतन की यह सत्ता
यहीं विश्व में रहे रहेंगे रहना इनका काम भी
जिससे तड़क…
(5)
जो है उसको कौन मिटावे और नहीं को लावे कौन
भिन्न-भिन्न हो जिसकी सत्ता उसको कहो मिलावे कौन
प्रति-पल का निश्चित परिवर्तन कौन करे आगे पीछे
सत् का अरे विनाश असत का उत्पादन हो तो कैसे
स्वयं सिद्ध जो उसको क्या आवश्यकता भगवान की
जिससे तड़क…
(6)
होता नहीं विनाश कभी पर्याय बदलती रहती है
अरे! तरंगित सरिता जैसे अविकल बहती रहती है
उठती है कल्लोल उसी में विलय उसी में हो जाती
पर सरिता तो अपने पथ पर शाश्वत ही बहती जाती
पल-पल अलट-पलट करता अणु-अणु सत्ता का त्राण भी
जिससे तड़क…
(7)
यह पर्याय स्वभाव कि वह तो सदा पलटती रहती है
आता नव उत्पाद पुरानी व्यय को पाती रहती है
द्रव्य सदा ध्रुव होकर रहता उसकी अक्षय सत्ता है
ब्रह्मा विष्णु महेश यही उत्पाद-धौव्य-व्यय मत्ता है
यही वस्तु का अक्षय जीवन यही सहज वरदान भी
जिससे तड़क…
(8)
है स्वभाव यह सहज वस्तु का सदा अकेला एक है
यह ही उसकी सुन्दरता है वह पर से निरपेक्ष है
सदा अरे अपने गुण पर्यायों में खुल कर खेलता
किन्तु एक की कृतियों का फल नहीं दूसरा झेलता
झूठ कहानी अरे परस्पर सुख-दुख-बाधा दान की
जिससे तड़क… .
(9)
अणु को भी अवकाश नहीं है अपने-अपने काम से
सभी सदा सम्राट अकेले अपने-अपने धाम के
अपना काम सदा करने की अणु में भी बल शक्ति है
नहीं प्रतीक्षा पर की करता उसके कुल की रीति है
स्वयं शक्तिमय को न अपेक्षा पर से बल आदान की
जिससे तड़क…
(10)
एक सहायक होता पर का यह लौकिक व्यवहार है
बाधा देता एक दूसरे को यह लोकाचार है
बचता जीवन तो पर पर होता रक्षा आरोप है
मरता स्वयं लोक करता पर पर हत्या का थोप है
है स्वतंत्र जीवन, मिथ्या है गाथा बाधा त्राण की
जिससे तड़क…
(11)
पूर्ण शक्तिमय अणु-अणु बोलो कोई किससे काम ले
पूर्ण कुंभ को कौन बुद्धिमन् बरबस ही जलदान दे
सलिल भरे घट को जल देना श्रम का ही अपमान है
सदा पूर्ण जो उसको रीता कहना घोर अज्ञान है
यही मान्यता मूल रही है संसृति-चक्र-विधान की
जिससे तड़क…
(12)
जड़ का कार्य सदा जड़ता में जड़ता उसका धर्म है
जड़ता ही उसका स्वभाव और जड़ता उसका कर्म है
जड़ता द्रव्य शक्ति भी जड़ता जड़ता ही पर्याय है
द्रव्य-क्षेत्र और काल भाव सब जड़ता ही व्यवसाय है
अतः न जड़ में पर्यायें होती हैं श्रद्धा ज्ञान की
जिससे तड़क…
(13)
ज्ञान शून्य जड़ नहीं कभी भी निज-पर को पहिचानता
जग में चेतन तत्व एक बस पर को अपना मानता
चेतन का श्रद्धा विकार बस यह भवत का प्राण है
सुख सागर की घोर कष्टमयता का यही निदान है
नहीं पराया दुख का कारण नहीं सुख व्यवधान भी
जिससे तड़क…
(14)
अपने सुख के हेतु चेतना पर के मुंह को ताकती
अपने दुख के कारण को वह पर में सदा तपासती
अरे अज्ञ शुक निज को नलिनी-स्नेह-पाश में बांधता
और अकारण नलिनी को बंधन का कारण मानता
नहीं छोड़ता, हुआ न तब तक स्वर्णिम-मुक्ति-विहान भी
जिससे तड़क…
(15)
अरे धनादि संयोग पुन्य के उदय जन्य सामान है
उनके सम्पादन में चेतन का न तनिक अहसान है
एक अथक श्रम करता लेकिन भूखा सोता रात है
और मोतियों के करण्ड में होता कहीं प्रभात है
विधि का यही विधान न इसमें श्रम का नाम निशान भी
जिससे तड़क…
(16)
यही दृष्टि का विपर्यास है यह ही पहली भूल है
भवतरु की संभूति वृद्धि फलमयता का यह मूल है
जब तक पौरुष सोता रहता तब तक यह नादान है
अरे! तभी तक ही तो कहते कर्म महा बलवान है
ज्ञान और चारित्र सभी इसके अभाव में दीन हैं
विधवा के श्रृंगार तुल्य वे सुन्दरता श्री हीन हैं
अरे! अगोचर महिम मुक्ति के मंगलमय सोपान की
जिससे तड़क…

आओ भाई तुम्हें सुनाएं गाथा आतम-ज्ञान की
जिससे तड़क-तड़क गिर पड़ती कर्मों की संतान भी
वंदे जिन-वरम् वंदे जिन-वरम्।

Artist: श्री बाबू जुगलकिशोर जैन ‘युगल’ जी
Source: Chaitanya Vatika