आत्म संबोधन | Aatm sambodhan

सहजानंद सत्संग सत्प्रकाशन

आत्म-सम्बोधन

**लेखक:-**शान्तमूर्ति न्यायतीर्थ पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक वर्णी मनोहर जी “सहजानंद” महाराज

**प्रकाशक:-**अध्यक्ष-सहजानंद सत्संग सेवा समिति

वि० स० २००८ वीरनिर्वाण सम्वत् २४७८ [ ई० १९५१]

[ (आत्म-सम्बोधन) ]

इस ग्रन्थ के उद्घाटन कर्ता के कुछ शब्द

इसमें हमारे “प्रातः स्मरणीय श्री मद्गणेशशिष्य” अध्यात्मयोगी शान्तमूर्ति न्यायतीर्थ पूज्य श्री मनोहर जी वणी “सहजानन्द” महाराज ने समय समय पर उठे हुए अपने हृदय के उद्गार निबद्ध करके हम लोगों का महान उपकार किया है ।

यद्यपि इन मनोरथों के लिखने का प्रमुख उद्देश्य निज के सम्बोधन का रहा किन्तु उनसे जो हम लोगों के मिथ्यात्व अन्धकार नष्ट होने व वीतराग परिणति के मार्ग में लगने का जो महान् उपकार है वह चिरस्मरणीय हैं ।

मुझे इस बात का भी महान् हर्ष है कि मैं माह में एक दिन आपके दर्शनार्थ आपके सत्संग कुञ्ज. में गया वहां आप कुछ लिख रहे थे मैंने कुछ उपदेश की प्रार्थना की तब आप जो लिख रहे थे उसे समझाया के लिखे हुए जीवस्थानचर्चा, अध्यात्मप्रश्नोत्तरी, उच्चरहस्य, दृष्टि, धर्मबोध, पद्यावलि, आत्मसम्बोधन,

[मनोहर वाणी (आत्मसम्बोधन)]

१. लेखनोद्देश्य

विषयानुक्रम - कल्पना क्रम
कल्पना - मनोरथ

१-१. मनोहर! तुम उत्कृष्ट तत्त्व को विचार करके भी कभी अतत्त्व में मुग्ध होते हो और कभी तत्त्व की ओर जाते हो, इस लिये जब तुम्हारे मनोरथ उठें उन्हें निज के बोध के अर्थ पढ़ने के लिये लिखते जाना चाहिये।

२-२६५. मनोहर! जो तुम लिखते हो उसका ध्येय अपने में जागृति करे रहना रखो, केवल प्रकट करना प्रतिष्ठा के लोभ का साधन बन सकता है, अतः वास्तविक ध्येय से च्युत कभी मत होओ।

३-७६८. लिखने के उद्देश्य कितने ही हो जाया करते हैं उन्हें संक्षेप में कहा जाय तो उद्देश्यों के दो विभाग हो जाते हैं - १ - सत् उद्देश्य २- असत् उद्देश्य। जो आत्म हित पर पहुंचा देवें वे सत् उद्देश्य हैं, और जो अहित में भ्रमावें वे असत् उद्देश्य हैं।

४-७६९. मेरे लेखन के उपयोग से मेरी परिणति अशुभोपयोग से पृथक् रहे अथवा इसके वाचने के निमित्त से कोई अन्य अपने उपादान से अपने को अवलोकित करके शान्ति प्राप्त करें ये सत्, उद्देश्य हैं।

५-७७०. बहुत से लेखक अपनी कृति लिख गये हैं मेरी भी कृति रहे अथवा यश का प्रसारक चिन्ह रहे अथवा लोक समझें कि ऐसा इनका ज्ञान है अथवा लोक मुझे मानते हैं तो कुछ भी तो उनके लिये होना चाहिये ये सब असत् उद्देश्य हैं।

६-७७१. लेख का सत् उद्देश्य ही रखो, मायामय जगत से सुलझे हुए रहो।