हे चेतन ! तुम शान्तचित्त हो, क्यों न करो कुछ आत्मविचार।
पुनः पुनः मिलना दुर्लभ है, मोक्ष योग्य मानव अवतार।।
भव विकराल भ्रमण में तुझको, हुई नहीं निजतत्त्व प्रतीति ।
छूटी नहीं अन्य द्रव्यों से, इस कारण से मिथ्या प्रीति ।।1।।
संयोगों में दत्त चित्त हो, भूला तू अपने को आप।
होने को ही सुखी निरन्तर, करता रहता अगणित पाप ।।
सहने को तैयार नहीं जब, अपने पापों का परिणाम।।
त्याग उन्हें दृढ़ होकर मन में, कर स्वधर्म में ही विश्राम ।।2।।
सत्य सौख्य का तुझे कभी भी, आता है क्या कुछ भी ध्यान ।
विषयजन्य उस सुखाभास को, मान रहा है सौख्य महान ।।
भवसुख के ही लिए सर्वथा, करता रहता यत्न अनेक।
जान-बूझकर फंसता दुःख में, भुला विमल चैतन्य विवेक।।3।।
मान कभी धन को सुख साधन, उसे जुटाता कर श्रम घोर।
मलता रह जाता हाथों को, उसे चुरा लेते जब चोर।।
आत्मशान्ति मिलती कब धन से, चिन्ताओं का है वह गेह।
होने देता नहीं तनिक भी, मोक्ष साधनों से शुभ नेह।।4।।
दुग्धपान से ज्यों सर्पों में, होता अधिक गरल विस्तार।
धन संचय से त्यों बढ़ते हैं, कभी-कभी मन में कुविचार ।।
इसकी वृद्धि कभी मानव को, अहो बना देती है अन्ध।
दुखिया से मिलने में इसको, आती हाय ! महा दुर्गन्ध ।।5।।
हे चेतन धन की ममता वश, भोगे तुमने कष्ट अपार।
देखो अपने अमर द्रव्य को, जहाँ सौख्य का पारावार।।
देवों का वैभव भी तुमको, करना पड़ा अन्त में त्याग।
तो अब प्रभु के पद पंकज में, बनकर भ्रमर करो शुभ राग ।।6।।
इन्द्र-भवन से बनवाता है, सुख के लिए बड़े प्रासाद।
क्या तेरे यह संग चलेंगे, इसको भी तू करना याद ।।
इस तन में से जिस दिन चेतन, कर जायेगा आप प्रयाण।
जाना होगा उस घर से ही, तन को बिना रोक शमशान ।।7।।
अपना-अपना मान जिन्हें तू, खिला-पिलाकर करता पुष्ट ।
अवसर मिलने पर वे ही जन, करते तेरा महा-अनिष्ट ।।
ऐसी-ऐसी घटनाओं से, भरे हुए इतिहास पुराण।
पढ़कर सुनकर नहीं समझता, यही एक आश्चर्य महान।।8।।
क्षण-क्षण करके नित्य निरन्तर, जाता है जीवन का काल।
करता नहीं किन्तु यह चेतन, क्षण भर भी अपनी सम्भाल।।
दुःख इसे देता रहता है, इसका ही भीषण अज्ञान ।
सत् पुरुषों से रहे विमुख नित, प्रगटे लेश न सम्यगज्ञान ।।9।।
मिला तुझे है मानव का भव, कर सत्वर ऐसा सदुपाय ।
मिले सौख्यनिधि अपनी उत्तम, जनम-मरण का दुख टल जाय।।
सुखप्रद वही एक है जीवन, जहाँ स्वच्छ है तत्व प्रधान।
बाकी तो मनुजों का जीवन, सचमुच तो हैं मृतक समान।।10।।
सुखदायक क्या हुए किसी को, जगती में ये भीषण भोग।
अहि समान विकराल सर्वथा, जीवों को उनके संयोग।।
छली मित्र सम ऊपर से ये, दिखते हैं सुन्दर अत्यन्त।
पर इनकी रुचि मात्र विश्व में, कर देती जीवन का अन्त ।।11।।
स्पर्शन इन्द्रिय के वश ही, देखो वनगज भी बलवान।
पड़कर के बंधन में सहसा, सहता अविरल कष्ट महान।।
मरती स्वयं पाश में फंसकर, रसनासक्त चपल जलमीन।
सुध-बुध खो देता है अपनी, भ्रमर कमल में होकर लीन।।12।।
दीपक पर पड़कर पतंग भी, देता चक्षु विवश निज प्राण।
सुनकर हिंसक-शब्द मनोहर, रहता नहीं हिरन को ध्यान ।।
एक विषय में लीन जीव जब, पाता इतने कष्ट अपार ।
पाँच इन्द्रियों के विषयों में, लीन सहेगा कितनी मार।।13।।
जनम-जनम में की है चेतन, तूने सुख की ही अभिलाष।
हुआ नहीं फिर भी किंचित् कम, अबतक भी तेरा भववास।
त्रिविध ताप से जलता रहता, अन्तरात्मा है दिन-रात ।
कर सत्वर पुरुषार्थ सत्य तू , जग प्रपंच में देकर लात।।14।।
रोगों का जिसमें निवास है, अशुचि पिंड ही है यह देह।
देख कौन सी इसमें सुषमा, करता है तू इस पर नेह।।
तेरे पीछे लगा हुआ है, हा! अनादि का मोह पिशाच ।
छुड़ा स्वच्छ रत्नों को प्रतिपल, ग्रहण कराता रहता काँच।।15।।
भूल आप को क्षणिक देह में, तुझे हुआ जो राग अपार ।
बढ़ता रहता राग-द्वेष से, महादु:खद तेरा संसार ।।
त्याग देह की ममता सारी, सद्गुरुओं के चरण उपास ।
तो छूटेगा यहाँ सहज में, तेरा दु:खदायी भवपाश ।।16।।
जड़ तन में आत्मत्वबुद्धि ही, सकल दुखों का है दृढ़मूल ।
देहाश्रित भावों को अपना, मान भयंकर करता भूल।
जो जो तन मिलता है तुझको, उसी रूप बन जाता आप ।
फिर उसके परिवर्तन को लख, होता है तुझको संताप ।।17।।
हो विरक्त तू भव भोगों से, ले श्री जिनवर का आधार ।
रहकर सत्सङ्गति में निशदिन, कर उत्तम निजतत्व विचार ।।
निज विचार बिन इन कष्टों का, होगा नहीं कभी भी अन्त।
दुःख का हो जब नाश सर्वथा, विकसित हो तब सौख्य बसंत।।18।।
बिन कारण ही अन्य प्राणियों पर, करता रहता है रोष।
‘मैं महान’ कर गर्व निरन्तर, मन में धरता है सन्तोष ।।
बना रहा जीवन जगती में, यह मानव बन कपट प्रधान ।
निज का वैभव तनिक न देखा, पर का कीना लोभ निदान।।19।।
कर्म बंध होता कषाय से, करो प्रथम इनका संहार।
राग-द्वेष की ही परिणति से, होता है विस्तृत संसार ।।
दुःख की छाया में बैठे हैं, मिलकर भू पर रंक नरेश।
प्रगट किसी का दुःख दिखता है, और किसी के मन में क्लेश।।20।।
जिन्हें समझता सुख निधान तू, पूछ उन्हीं से मन की बात ।
कर निर्धार सौख्य का सत्वर, करो मोह राजा का घात ।।
जिन्हें मानता तू सुखदायक, मिली कौन-सी उनसे शान्ति।
दुख में होती रही सहायक, दिन दूनी तेरी ही भ्रान्ति ।।21।।
कर केवल अब आत्मभावना, पर-विषयों से मुख को मोड़।
मोक्ष साधना में निजमन को, तज विकल्प पर निशिदिन जोड़।।
कर्म और उसके फल से भी, भिन्न एक अपने को जान।
सिद्ध सदृश अपने स्वरूप का, कर चेतन दृढ़तम श्रद्धान।।22 ।।
तूने अपने ही हाथों से, बिछा लिया है भीषण जाल।
नहीं छूटता है अब इससे, ममता वश सारा जंजाल ।
छोडे बिना नहीं पावेगा, कभी शान्ति का नाम निशान।
परमशान्ति के लिए अलौकिक, कर अब तू बोधामृत पान।।23।।
शत्रु मित्र की छोड़ कल्पना, सुख-दुख में रख समता भाव।
रत्न और तृण में रख समता, जान वस्तु का अचल स्वभाव।।
निन्दा सुनकर दुखित न हो तू, यशोगान सुन हो न प्रसन्न।
मरण और जीवन में सम हो, जगत इन्द्र सब ही हैं भिन्न।।24।।
इस संसार भ्रमण में चेतन, हुआ भूप कितनी ही बार।
क्षीण पुण्य होते ही तू तो, हुआ कीट भी अगणित बार।।
प्राप्त दिव्य मानव जीवन में, कर न कभी तो लेश ममत्व।
करके दूर चित्त अस्थिरता, समझ सदा अपना अपनत्व ।।25।।
पर गुण-पर्यायों में चेतन, त्यागो तुम अब अपनी दौड़।
कर विचार शुचि आत्म द्रव्य का, परपरिणति से मुख को मोड़।।
एक शुद्ध चेतन अपना ही, ग्रहण योग्य है जग में सार।
शान्तचित्त हो पर-पुद्गल से, हटा शीघ्र अपना अधिकार ।।26।।
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Singer: At. @Deshna