हे मित्र! यह आत्मा ही प्रियतम है। हमने इसको देखा तो पाया कि इससे अधिक उत्तम कुछ भी नहीं है।
यह पाँचों इन्द्रियों के बीच में रहते हुए भी उनसे भिन्न है ,जैसे बादलों के बीच में आने पर भी सूर्य का तेज यथावत रहता है, उसमें कोई कमी नहीं आती।
जैसे रत्न कीचड़ के बीच में पड़ा होने पर भी वह कीचड़ नहीं हो जाता, उसी प्रकार देह में स्थित चैतन्य अपना चैतन्य गुण/चेतना नहीं खोता।
आत्मा में अनंत गुण हैं, वह स्वयं गुणमय है, जैसे दिए में ज्योति है और ज्योति में दिया समाहित है, समाया हुआ है।
कमल का फूल जल में रहकर भी जल से भित्र रहता है (सूखा ही रहता है) उसी भाँति यह आत्मा कर्मों के पास रहकर भी कर्म से सर्वथा भिन्न है ।
जिस प्रकार दर्पण में देखने वाली धूप-छाँह में तपन या ठंडक नहीं होती, उसी प्रकार सुख-दुख में रहकर भी आत्मा स्वयं सुख-दु:खरूप नहीं होती।
आत्मा जगत के सब व्यवहार करते हुए भी जगत से निर्लिप्त है। यह आकाश में ठहरा हुआ भी आकाश से चिपका हुआ नहीं है।
जैसे बरतन में भरे जल के स्थिर होने पर उसमें अपना चेहरा दिखाई पड़ता है, द्यानतराय कहते हैं कि वैसे ही मन के विकारों को, चंचलता को हटाकर अपने शुद्ध स्वरूप को देख।