हे मनुष्य ! तू अपने आपको नहीं जान सका, अपना स्वरूप नहीं पहचान सका तो तू कैसा ज्ञानी है ?
देह से सम्बन्धित क्रिया करके तू अपने आपको मोक्ष मार्ग का राही - उस पर चलने वाला सुनता रहा अर्थात् देह के विषयों में रत रहकर भी तू अपने को साधु-वैरागी मानता रहा है !
अपने स्वरूप की पहचान, आराधना, भक्ति, बहुमान के बिना घोर दुःख सहन करना, परीषह सहना, जिनेन्द्र देव कहते हैं कि ये तेरे किसी अर्थ के नहीं, सब विफल, फलरहित या उल्टा फल देनेवाले हैं।
हे मनुष्य ! यदि तुझे मोक्ष की चाह है तो निश्चय और व्यवहार से भेद-ज्ञान को समझ अर्थात् अपने व पर के क्रिया-कलापों को भिन्न-भिन्न, न्यारा-न्यारा, अलग-अलग जान व समझ।
दौलतराम कहते हैं कि उन्होंने अपने स्वभाव को पहचान लिया है उन्होंने ही संसारभ्रमण की विपत्ति को दूर किया है, उससे छूट गये हैं।
निज निवेद - अपनी आराधना करना; द्विविध धर्म - निश्चय और व्यवहार धर्म।
Hey man If you could not know yourself, could not recognize your form, then how knowledgeable are you?
By doing the activity related to the body, you kept listening to yourself on the path of salvation - that is, you kept listening to it, even while staying in the subjects of the body, you have considered yourself a saint-recluse!
Recognizing its nature, worship, devotion, enduring grief without exceeding, enduring suffering, Jinendra Dev says that these are fruitless, fruitless or counterproductive, without any meaning to you.
Hey man If you want moksha, then understand difference with nishchaya and vyavhaar, that is, your and others activities are different. Learn and understand this difference.
Daulatram says that he who has recognized his own nature, he has overcome the misfortune of worldly illusions, he has been left out of it.