प्रथम नमौं अरहंतानं, दुतिय नमौं सिद्धानं जी ।
त्रितिय नमौं आइरियानं, नमौं उवज्झायानं जी ॥
पंच नमौं लोए सव्व, साहूनं गुन गाऊं जी ।
चारौं मंगल अरहंत, सिद्ध साधु धर्म ध्याऊं जी ॥ १ ॥
चारौं उत्तम लोकमैं, जिन सिद्ध साधु सुधर्म जी ।
चारौं सरन गहौ जिनवर, सिद्ध साध धर्म पर्म जी ॥
वृषभ चंदप्रभ सांतजिनं, वर्धमान मन वंदौं जी ।
हुई होहिंगी चौवीसी, सव नमि पाप निकंदौं जी ॥ २ ॥
श्रीजिनवचन सुहावने, स्याद्वाद अविरुद्धं जी ।
तीन भवनमैं दीपक वंदौं, त्रिकरण सुद्धं जी ॥
प्रतिमा श्रीभगवंतकी, स्वर्ग मर्त्य पातालं जी |
कृत्य अकृत्य दुभेदसौं, वंदन करौं त्रिकालं जी ॥ ३ ॥
पूरव पाप जु मैं कियो, कृत कारन अनुमोदं जी ।
मन वच काय त्रिभेदसौं, सब मिथ्या होदं (१) जी ॥
आगैं पाप जु होयगौ, उनंचास विध नासौं जी ।
वर्तमान अघ छै करौ, तुम आगैं परकासौ जी ॥ ४ ॥
सर्व जीवसौं मित्रता, गुनी देखि हरखाऊं जी ।
दीन दया सठसौं समता, चारों भावन भाऊं जी ।
प्रभु पूजूं जुग भेदसौं, गुरुपदपंकज सेऊं जी ।
आगम अभ्यासौं सदा, रतनत्रै नित वेऊं जी ॥ ५ ॥
अच्छर मात्र अरथ अनमिल, भूलि कह्यौ सु खिमाऊं जी ।
प्रात दोपहर सांझकौ, अर्ध रात्रमैं भाऊं जी ॥
द्यानत दीनदयालनौ, भौ भौ भगति सु दीजै जी ।
अंत समाधिमरन करौं, राग विरोध हरीजै जी ॥ ६ ॥
इति आलोचनापाठ ।
रचयिता: पंडित श्री द्यानतरायजी
सोर्स: धर्मविलास