पर्यायाणां विशेषेण नत्वा वीरं जिनेश्वरम् ॥1॥
अन्वयार्थ- [वीरं जिनेश्वरम्] विशेष रूप से मोक्ष लक्ष्मी को देने वाले वीर जिनेश्वर को अर्थात् श्री महावीर भगवान को [नत्वा] नमस्कार करके [अहं] मैं देवसेनाचार्य [गुणानां] द्रव्यगुणों के [तथैव च] और उसी प्रकार से [स्वभावानां] स्वभावों के तथा [पर्यायाणां] पर्यायों के भी [विस्तरं] विस्तार को [विशेषेण] विशेष रूप से [वक्ष्ये] कहता हूँ। अर्थात् गुण, स्वभाव और पर्यायों के स्वरूप विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ।
अन्वयार्थ- वचनों की रचना के क्रम के अनुसार प्राकृतमय नयचक्र नामक शास्त्र के आधार पर से आलापपद्धति को (मैं देवसेनाचार्य) कहता हूँ।
अन्वयार्थ- इस आलापपद्धति ग्रंथ की रचना किसलिये की गई है?
अन्वयार्थ- द्रव्य के लक्षण की सिद्धि के लिए और पदार्थों के स्वभाव की सिद्धि के लिये इस ग्रंथ की रचना हुई है।
अन्वयार्थ- द्रव्य कौन हैं?
अन्वयार्थ- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं।
अन्वयार्थ- सत् द्रव्य का लक्षण है।
अन्वयार्थ- जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है वह सत् है।
अन्वयार्थ- द्रव्यों के लक्षण (गुण) कौन-कौन से हैं?
अन्वयार्थ- अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, और अमूर्तत्व ये द्रव्यों के दस सामान्य गुण हैं।
प्रत्येकमष्टौ सर्वेषाम् ॥10॥
अन्वयार्थ- इन दस सामान्य गुणों में से प्रत्येक द्रव्य में आठ आठ गुण हैं और दो दो गुण नहीं हैं।
अन्वयार्थ- ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श रस, गन्ध, वर्ण, गति- हेतुत्व, स्थिति-हेतुत्व, अवगाहन-हेतुत्व, वर्तना-हेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व ये द्रव्यों के सोलह विशेष गुण हैं।
अन्वयार्थ- सोलह प्रकार के विशेष गुणों में से जीव और पुद्गल में छः-छः विशेष गुण पाये जाते हैं।
अन्वयार्थ- धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य और काल-द्रव्य इन चारों द्रव्यों में तीन-तीन विशेष गुण पाये जाते हैं।
अन्वयार्थ- अन्त के चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व ये चार गुण स्वजाति की अपेक्षा से सामान्य-गुण तथा विजाति की अपेक्षा से विशेष-गुण कहे जाते हैं।
अन्वयार्थ- गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं। वे पर्यायें दो प्रकार की हैं- १) अर्थ-पर्याय, २) व्यंजन-पर्याय।
अन्वयार्थ- अर्थपर्याय दो प्रकार की है- १) स्वभावार्थपर्याय और २) विभावार्थपर्याय ।
अन्वयार्थ- अगुरूलघुगुण का परिणमन स्वाभाविक अर्थ-पर्यायें है। वे पर्यायें बारह प्रकार की हैं, छः वृद्धिरूप और छः हानिरूप। अनन्त-भाग वृद्धि, असंख्यात-भाग वृद्धि, संख्यात-भाग वृद्धि, संख्यात-गुण वृद्धि, असंख्यात-गुण वृद्धि, अनन्तगुण वृद्धि, ये छः वृद्धि-रूप पर्यायें है। अनन्त-भाग हानि, असंख्यात-भाग हानि, संख्यात-भाग हानि, संख्यात-गुण हानि, असंख्यात-गुण हानि, अनन्त-गुण हानि, ये छः हानि-रूप पर्यायें हैं। इस प्रकार छः वृद्धि-रूप और छः हानि-रूप पर्यायें जाननी चाहिये।
अन्वयार्थ- विभावअर्थपर्याय छः प्रकार की हैं (१) मिथ्यात्व (२) कषाय (३) राग (४) द्वेष (५) पुण्य और (६) पाप। ये छः अध्यवसाय विभाव अर्थ-पर्यायें हैं।
अन्वयार्थ- नर-नारक आदि रूप चार-प्रकार की अथवा चौरासी लाख योनि रूप जीव की विभाव द्रव्य-व्यंजन-पर्यायें हैं।
अन्वयार्थ- मतिज्ञान आदिक जीव की विभाव-गुण-व्यंजन-पर्यायें हैं।
अन्वयार्थ- अन्तिम शरीर से कुछ कम जो सिद्ध पर्याय है, वह जीव की स्वभाव-द्रव्य-व्यंजनपर्याय है।
अन्वयार्थ- अनन्त-ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख और अनन्त-वीर्य इन अनन्त-चतुष्टयरूप जीव की स्वभाव-गुण-व्यंजन-पर्याय है।
अन्वयार्थ- द्वि-अणुक आदि स्कंध पुद्गल की विभाव-द्रव्य-व्यंजन- पर्याय है।
अन्वयार्थ- द्वि-अणुक आदि स्कन्धों में एक वर्ण से दूसरे वर्णरूप, एक रस से दूसरे रसरूप, एक गंध से दूसरे गंधरूप, एक स्पर्श से दूसरे स्पर्श रूप होने वाला चिरकाल-स्थायी-परिणमन पुद्गल की विभाव-गुण-व्यंजन-पर्याय है।
अन्वयार्थ- अविभागी पुद्गल परमाणु पुद्गल की स्वभाव-द्रव्य- व्यंजन-पर्याय है।
अन्वयार्थ- पुद्गल-परमाणु में एक वर्ण, एक गंध, एक रस और परस्पर अविरूद्ध दो स्पर्श होते हैं। इन गुणों की जो चिरकाल स्थायी पर्यायें हैं वे स्वभाव-गुण-व्यंजन पर्यायें हैं।
अन्वयार्थ- गुण-पर्याय वाला द्रव्य है।
अन्वयार्थ- स्वभावों का कथन किया जाता है- १) अस्ति-स्वभाव, २) नास्ति-स्वभाव, ३) नित्य-स्वभाव, ४) अनित्य-स्वभाव, ५) एक- स्वभाव,६) अनेक-स्वभाव, ७) भेद-स्वभाव, ८) अभेद-स्वभाव, ९) भव्य-स्वभाव, १०) अभव्य-स्वभाव, ११) परम-स्वभाव ये ग्यारह, द्रव्यों के सामान्य स्वभाव हैं; १) चेतन-स्वभाव, २) अचेतन- स्वभाव, ३) मूर्त-स्वभाव, ४) अमूर्त-स्वभाव, ५) एकप्रदेश-स्वभाव, ६) अनेकप्रदेश-स्वभाव, ७) विभाव-स्वभाव, ८) शुद्ध-स्वभाव, ९) अशुद्ध-स्वभाव, १०) उपचरित-स्वभाव- ये दस, द्रव्यों के विशेष स्वभाव हैं।
अन्वयार्थ- जीव में और पुद्गल में उपर्युक्त इक्कीस (११ सामान्य और १० विशेष) स्वभाव पाये जाते हैं ॥३५॥
अन्वयार्थ- धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य तथा आकाश-द्रव्य इन तीन द्रव्यों में उपर्युक्त २१ स्वभावों में से चेतन-स्वभाव, मूर्त-स्वभाव, विभाव-स्वभाव, उपचरित-स्वभाव और अशुद्ध-स्वभाव ये पाँच स्वभाव नहीं होते, शेष सोलह स्वभाव होते हैं। अर्थात् १) अस्ति- स्वभाव, २) नास्ति-स्वभाव, ३) नित्य-स्वभाव, ४) अनित्य-स्वभाव, ५) एक-स्वभाव, ६) अनेक-स्वभाव, ७) भेद-स्वभाव, ८) अभेद- स्वभाव, ९) परम-स्वभाव, १०) एकप्रदेश-स्वभाव, ११) अनेकप्रदेश- स्वभाव, १२) अमूर्त-स्वभाव, १३) अचेतन-स्वभाव, १४) शुद्ध- स्वभाव, १५) भव्य-स्वभाव, १६) अभव्य-स्वभाव- ये १६ स्वभाव होते हैं।
अन्वयार्थ- उन सोलह स्वभावों में से बहुप्रदेश-स्वभाव के बिना शेष पन्द्रह स्वभाव काल-द्रव्य में पाये जाते हैं।
अन्वयार्थ- वे इक्कीस प्रकार के स्वभाव कैसे जाने जाते हैं, अर्थात् किसके द्वारा जाने जाते हैं?
अन्वयार्थ- प्रमाण और नय की विवक्षा के द्वारा उन इक्कीस स्वभावों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है।
अन्वयार्थ- सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।
अन्वयार्थ- प्रत्यक्ष-प्रमाण और इतर अर्थात् परोक्ष-प्रमाण के भेद से वह प्रमाण दो प्रकार का है।
अन्वयार्थ- अवधि-ज्ञान और मनःपर्यय-ज्ञान ये दोनों एकदेश प्रत्यक्ष हैं।
अन्वयार्थ- केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।
अन्वयार्थ- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो परोक्ष-ज्ञान हैं।
अन्वयार्थ- प्रमाण के अवयव नय हैं।
अन्वयार्थ- नय के भेदों को कहते हैं।
अन्वयार्थ- द्रव्यार्थिक नय, पर्यायार्थिक नय, नैगम नय, संग्रह नय, व्यवहार नय, ऋजुसूत्र नय, शब्द नय, समभिरूढ नय, एवंभूत नय ये नव नय माने गये हैं ॥४१॥
अन्वयार्थ- अब उपनयों का कथन करते हैं।
अन्वयार्थ- जो नयों के समीप में रहें वे उपनय हैं।
अन्वयार्थ- सद्भूत-व्यवहार, असद्भूतव्यवहार और उपचरित-असद्भूत-व्यवहार ऐसे उपनय के तीन भेद होते हैं।
अन्वयार्थ- अब उनके (नयों और उपनयों के) भेदों को कहते हैं।
अन्वयार्थ- द्रव्यार्थिक नय के दश भेद हैं।
अन्वयार्थ- शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय कर्मोपाधि की अपेक्षा रहित जीव-द्रव्य है, जैसे- संसारी जीव सिद्ध समान शुद्धात्मा है।
अन्वयार्थ- उत्पाद-व्यय को गौण करके (अप्रधान करके) सत्ता (ध्रौव्य) को ग्रहण करने वाला शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है, जैसे- द्रव्य नित्य है।
अन्वयार्थ- शुद्ध द्रव्यार्थिकनय भेद-कल्पना की अपेक्षा से रहित है, जैसे- निज गुण से, निज पर्याय से और निज स्वभाव से द्रव्य अभिन्न है।
अन्वयार्थ- कर्मोपाधि की अपेक्षा सहित अशुद्ध जीव-द्रव्य अशुद्ध-द्रव्यार्थिक नय का विषय है, जैसे- कर्मजनित क्रोधादिभावरूप आत्मा है।
अन्वयार्थ- उत्पाद-व्यय की अपेक्षा सहित द्रव्य अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय है, जैसे- एक ही समय में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक द्रव्य है।
अन्वयार्थ- भेदकल्पना-सापेक्ष द्रव्य अशुद्ध-द्रव्यार्थिक नय का विषय है, जैसे- आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि गुण हैं।
अन्वयार्थ- सम्पूर्ण गुण पर्याय और स्वभावों में द्रव्य को अन्वयरूप से ग्रहण करने वाला नय अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल, स्व-भाव की अपेक्षा द्रव्य को अस्ति रूप से ग्रहण करने वाला नय स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल, पर-स्वभाव की अपेक्षा द्रव्य नास्ति रूप है ऐसा परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- ज्ञान-स्वरूप आत्मा ऐसा कहना परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय का विषय है, क्योंकि इसमें जीव के अनेक स्वभावों में से ज्ञान नामक परमभाव का ही ग्रहण किया गया है।
अन्वयार्थ- अब पर्यायार्थिक नय के छः भेदों का कथन करते हैं-
अन्वयार्थ- अनादि-नित्य पर्यायार्थिक नय जैसे मेरू आदि पुद्गल की पर्याय नित्य है।
अन्वयार्थ- सादि नित्यपर्यायार्थिक नय, जैसे- सिद्धपर्याय नित्य है।
अन्वयार्थ- ध्रौव्य को गौण करके उत्पाद-व्यय को ग्रहण करने वाला नय अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक नय है, जैसे- प्रति समय पर्याय विनाश होती है।
अन्वयार्थ- ध्रौव्य की अपेक्षा सहित ग्रहण करने वाला नय नित्य-अशुद्ध-पर्यायार्थिक नय है। जैसे- एक समय में पर्याय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है।
अन्वयार्थ- कर्मोपाधि (कर्मबंधन) से निरपेक्ष ग्रहण करने वाला नय नित्य-शुद्ध-पर्यायार्थिक नय है। जैसे- संसारी जीवों की पर्याय (अरहंत पर्याय) सिद्ध समान शुद्ध है।
अन्वयार्थ- अनित्य-अशुद्ध-पर्यायार्थिक नय का विषय कर्मोपाधि सापेक्ष स्वभाव है, जैसे- संसारी जीवों का जन्म तथा मरण होता है।
अन्वयार्थ- भूत, भावि, वर्तमानकाल के भेद से नैगमनय तीन प्रकार का है।
अन्वयार्थ- जहाँ पर अतीतकाल में वर्तमान को संस्थापन किया जाता है, वह भूत नैगम नय है। जैसे- आज दीपावली के दिन श्री महावीर स्वामी मोक्ष गये हैं।
अन्वयार्थ- जहाँ भविष्यत् पर्याय में भूतकाल के समान कथन किया जाता है वह भाविनैगम नय है। जैसे- अरहन्त सिद्ध ही हैं।
अन्वयार्थ- करने के लिए प्रारम्भ की गई ऐसी ईषत्-निष्पन्न (थोड़ी बनी हुई) अथवा अनिष्पन्न (बिल्कुल नहीं बनी हुई) वस्तु को निष्पन्नवत् कहना वह वर्तमान नैगम नय है। जैसे- भात पकाया जाता है।
अन्वयार्थ- संग्रह नय दो प्रकार का है। (१) सामान्य संग्रह (२) विशेष संग्रह। अथवा, शुद्ध संग्रह, अशुद्ध संग्रह के भेद से दो प्रकार का है। समान्य संग्रह को शुद्ध संग्रह और विशेष संग्रह को अशुद्ध संग्रह समझना चाहिए।
अन्वयार्थ- सामान्य संग्रह नय, जैसे- सर्व द्रव्य परस्पर अविरोधी हैं।
अन्वयार्थ- विशेष-संग्रहनय, जैसे- सर्व जीव परस्पर में अविरोधी हैं, एक हैं।
अन्वयार्थ- व्यवहारनय भी दो प्रकार का है।
अन्वयार्थ- समान्य संग्रह-नय के विषयभूत पदार्थ में भेद करने वाला सामान्य संग्रहभेदक व्यवहारनय है। जैसे- द्रव्य के दो भेद हैं, जीव और अजीव।
अन्वयार्थ- विशेष संग्रह-नय के विषयभूत पदार्थ को भेदरूप से ग्रहण करने वाला विशेष-संग्रहभेदक व्यवहार नय है, जैसे- जीव के संसारी और मुक्त ऐसे दो भेद करना।
अन्वयार्थ- ऋजुसूत्रनय भी दो प्रकार का है। अर्थात् १) सूक्ष्मऋजुसूत्र नय २) स्थूलऋजुसूत्र नय ।
अन्वयार्थ- जो नय एक समयवर्ती पर्याय को विषय करता है वह सूक्ष्म-ऋजुसूत्र नय है।
अन्वयार्थ- जो नय अनेक समयवर्ती स्थूल-पर्याय को विषय करता है, वह स्थूल-ऋजुसूत्र नय है। जैसे- मनुष्यादि पर्यायें अपनी-अपनी आयु प्रमाण काल तक रहती हैं।
अन्वयार्थ- शब्द-नय, समभिरूढ-नय और एवंभूत-नय इन तीनों नयों में से प्रत्येक नय एक एक प्रकार का है। शब्द-नय एक प्रकार का है, समभिरूढ-नय एक प्रकार का है तथा एवंभूत-नय एक प्रकार का है।
अन्वयार्थ- शब्द नय जैसे- दारा, भार्या, कलत्र अथवा जल व आप एकार्थवाची हैं।
अन्वयार्थ- नाना अर्थों को ‘सम’ अर्थात् छोड़़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ होता है वह समभिरूढ है। जैसे- ‘गौ’ शब्द के वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं तथापि वह ‘पशु’ अर्थ में रूढ है।
अन्वयार्थ- जिस नय में वर्तमान क्रिया ही प्रधान होती है वह एवंभूतनय है। जैसे- जिस समय देवराज इन्दन क्रिया को करता है उस समय ही इस नय की दृष्टि में वह इन्द्र है।
अन्वयार्थ- उपनय के भेदों को कहते हैं।
अन्वयार्थ- सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है।
अन्वयार्थ- शुद्धगुण और शुद्धगुणी में तथा शुद्धपर्याय और शुद्धपर्यायी में जो नय भेद का कथन करता है, वह शुद्धसद्भूत व्यवहारनय है।
अन्वयार्थ- अशुद्ध-गुण और अशुद्ध-गुणी में तथा अशुद्ध-पर्याय और अशुद्ध-पर्यायी में जो नयभेद का कथन करता है वह अशुद्ध-सद्भूत-व्यवहारनय है।
अन्वयार्थ- असद्भूत-व्यवहारनय तीन प्रकार का है।
अन्वयार्थ- स्वजाति-असद्भूत-व्यवहारनय, जैसे- परमाणु को बहुप्रदेशी कहना, इत्यादि।
अन्वयार्थ- विजात्य-सद्भूत-व्यवहार उपनय, जैसे- मतिज्ञान मूर्त है क्योंकि मूर्त-द्रव्य से उत्पन्न हुआ है।
अन्वयार्थ- ज्ञान का विषय होने के कारण जीव अजीव ज्ञेयों में ज्ञान का कथन करना स्वजाति-विजात्य-सद्भूत-व्यवहारोपनय है।
अन्वयार्थ- उपचरित असद्भूत व्यवहारनय तीन प्रकार का है।
अन्वयार्थ- पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं ऐसा कहना स्वजात्युपचरितासद्भूत-व्यहारनय का विषय है।
अन्वयार्थ- वस्त्र, आभूषण, स्वर्ण, रत्नादि मेरे हैं ऐसा कहना विजात्युपचरित-असद्भूत-व्यवहार उपनय है।
अन्वयार्थ- ‘देश, राज्य, दुर्ग, आदि मेरे हैं’ यह स्वजातिविजात्युपचरित-असद्भूतव्यवहार उपनय का विषय है।
अन्वयार्थ- साथ में होने वाले गुण हैं और क्रम-क्रम से होने वाली पर्यायें हैं। अर्थात् अन्वयी गुण हैं और व्यतिरेक परिणाम पर्यायें हैं।
अन्वयार्थ- जिनके द्वारा एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से पृथक् किया जाता है, वे (विशेष) गुण कहलाते हैं।
अन्वयार्थ- ‘अस्ति’ इसके भाव को अर्थात् सत्-रूपपने को अस्तित्व कहते हैं।
अन्वयार्थ- सामान्य-विशेषात्मक वस्तु होती है। उस वस्तु का जो भाव वह वस्तुत्व है।
अन्वयार्थ- जो अपने-अपने प्रदेश समूह के द्वारा अखण्डपने से अपने स्वभाव-विभाव पर्यायों को प्राप्त होता है, होवेगा, हो चुका है, वह द्रव्य है। उस द्रव्य को जो भाव है, वह द्रव्यत्व है।
अन्वयार्थ- द्रव्य का लक्षण सत् है। अपने गुण और पर्यायों को व्याप्त होने वाला सत् है। अथवा जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है, वह सत् है।
अन्वयार्थ- प्रमाण के द्वारा जानने के योग्य जो स्व और पर-स्वरूप है, वह प्रमेय है। उस प्रमेय के भाव को प्रमेयत्व कहते हैं।
अन्वयार्थ- जो सूक्ष्म है, वचन के अगोचर है, प्रतिसमय में परिणमनशील है तथा आगम प्रमाण से जाना जाता है, वह अगुरुलघुगुण है।
अन्वयार्थ- प्रदेश का भाव प्रदेशत्व है अथवा क्षेत्रत्व है। एक अविभागी पुद्गल परमाणु के द्वारा व्याप्त क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं।
अन्वयार्थ- चेतन के भाव को अर्थात् पदार्थों के अनुभव को चेतनत्व कहते हैं।
अन्वयार्थ- अचेतन के भाव को अर्थात् पदार्थों के अननुभवन को अचेतनत्व कहते हैं।
अन्वयार्थ- मूर्त के भाव को अर्थात् रूप, रस, गंध, स्पर्शयुक्तता को मूर्त कहते हैं।
अन्वयार्थ- अमूर्त के भाव को अर्थात् स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण से रहितपने को अमूर्तत्व कहते हैं।
अन्वयार्थ- जो स्वभाव विभावरूप से सदैव परिणमन करती रहती है, वह पर्याय है।
अन्वयार्थ- जिस द्रव्य को जो स्वभाव प्राप्त है उससे कभी भी च्युत नहीं होना अस्ति-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- पर-स्वरूप नहीं होना नास्ति स्वभाव है।
अन्वयार्थ- अपनी अपनी नाना पर्यायों में ‘यह वही है’ इस प्रकार द्रव्य की प्राप्ति ‘नित्य-स्वभाव’ है।
अन्वयार्थ- उस द्रव्य का अनेक पर्यायरूप परिणत होने से अनित्य स्वभाव है।
अन्वयार्थ- सम्पूर्ण स्वभावों का एक आधार होने से एक स्वभाव है।
अन्वयार्थ- एक ही द्रव्य के अनेक स्वभावों की उपलब्धि होने से ‘अनेक-स्वभाव’ है।
अन्वयार्थ- गुण, गुणी आदि में संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा भेद होने से ‘भेद-स्वभाव’ है।
अन्वयार्थ- गुण और गुणी का एक स्वभाव होने से अभेद स्वभाव है।
अन्वयार्थ- भाविकाल में पर (आगामी पर्याय) स्वरूप होने से भव्य स्वभाव है।
अन्वयार्थ- क्योंकि त्रिकाल में भी परस्वरूपाकार (दूसरे द्रव्य रूप) नहीं होगा अतः अभव्य-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- पारिणामिक भाव की प्रधानता से परमस्वभाव है।
प्रदेशादिगुणानां व्युत्पत्तिश्चेतनादि विशेषस्वभावानां च व्युत्पत्तिर्निगदिता ॥117॥
अन्वयार्थ- प्रदेश आदि गुणों की व्युत्पत्ति तथा चेतनादि विशेष स्वभावों की व्युत्पत्ति कही गई।
अन्वयार्थ- धर्मों की अपेक्षा स्वभाव गुण नहीं होते।
अन्वयार्थ- स्वद्रव्य चतुष्टय अर्थात् स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा परस्पर में गुण स्वभाव हो जाते हैं।
अन्वयार्थ- स्वद्रव्य चतुष्टय की अपेक्षा गुण द्रव्य भी हो जाते हैं।
अन्वयार्थ- स्वभाव से अन्यथा होने को, विपरीत होने को विभाव कहते हैं।
अन्वयार्थ- केवलभाव (खालिस, अमिश्रित भाव) शुद्ध-स्वभाव है। इस शुद्ध के विपरीत भाव अर्थात् मिश्रित-भाव अशुद्ध-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- स्वभाव का भी अन्यत्र उपचार करना उपचरित-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- वह उपचरितस्वभाव कर्मज और स्वाभाविक के भेद से दो प्रकार का है। जैसे- जीव के मूर्तत्व और अचेतनत्व कर्मज-उपचरितस्वभाव हैं तथा जैसे- सिद्ध आत्माओं के पर का जाननपना तथा पर का दर्शकत्व स्वाभाविक-उपचरित-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- इसी प्रकार अन्य द्रव्यों में भी यथासम्भव उपचरित-स्वभाव जानना चाहिए।
अन्वयार्थ- वह किस प्रकार?
अन्वयार्थ- संकरादि दोषों से दूषित होने के कारण सर्वथा एकान्त के मानने पर सद्रूप पदार्थ की नियत अर्थव्यवस्था नहीं हो सकती है।
अन्वयार्थ- यदि सर्वथा एकान्त से असद्रूप माना जाय तो सकल-शून्यता का प्रसंग आ जायेगा।
अन्वयार्थ- सर्वथा नित्यरूप मानने पर पदार्थ एकरूप हो जायगा, एकरूप होने पर अर्थक्रियाकारित्व का अभाव हो जायेगा और अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में पदार्थ का ही अभाव हो जायेगा।
अन्वयार्थ- सर्वथा अनित्य पक्ष में भी निरन्वय अर्थात् निर्द्रव्यत्व होने से अर्थक्रियाकारित्व का अभाव हो जायेगा और अर्थक्रियाकारित्व का अभाव होने से द्रव्य का भी अभाव हो जायगा।
अन्वयार्थ- एकान्त से एक-स्वरूप मानने पर सर्वथा एकरूपता होने से विशेष का अभाव हो जायेगा और विशेष का अभाव होने पर सामान्य का भी अभाव हो जायेगा।
अन्वयार्थ- सर्वथा अनेक पक्ष में भी पदार्थों (पर्यायों) का निराधार होने से तथा आधार-आधेय का अभाव होने से द्रव्य का अभाव हो जायेगा।
अन्वयार्थ- गुण-गुणी और पर्याय-पर्यायी के सर्वथा भेद पक्ष में विशेष स्वभाव अर्थात् गुण और पर्यायों के निराधार हो जाने से अर्थक्रियाकारित्व का अभाव हो जायेगा और अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में द्रव्य का भी अभाव हो जायेगा।
अन्वयार्थ- सर्वथा अभेद पक्ष में गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी सम्पूर्ण पदार्थ एकरूप हो जायेंगे। सम्पूर्ण पदार्थों के एकरूप हो जाने पर अर्थक्रियाकारित्व का अभाव हो जायगा और अर्थक्रियाकारित्व के अभाव में द्रव्य का भी अभाव हो जायेगा।
अन्वयार्थ- एकान्त से सर्वथा भव्य स्वभाव के मानने पर द्रव्य के द्रव्यान्तर का प्रसंग आ जायेगा, क्योंकि द्रव्य परिणामी होने के कारण पर-द्रव्यरूप भी परिणाम जायेगा। इस प्रकार संकर आदि दोष सम्भव हैं।
अन्वयार्थ- एकांत से सर्वथा अभव्यस्वभाव के मानने पर शून्यता का प्रसंग आ जायेगा, क्योंकि स्वस्वरूप से भी वह नहीं हो सकेगा।
अन्वयार्थ- एकान्त से सर्वथा स्वभावस्वरूप माना जाय तो संसार का ही अभाव हो जायेगा।
अन्वयार्थ- स्वभाव निरपेक्ष विभाव के मानने पर मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा।
अन्वयार्थ- सर्वथा चैतन्य पक्ष के मानने से सब जीवों के शुद्ध-ज्ञानरूप चैतन्य की प्राप्ति हो जायेगी। शुद्धज्ञानरूप चैतन्य की प्राप्ति हो जाने पर ध्यान, ध्येय, ज्ञान, ज्ञेय, गुरू, शिष्य आदि का अभाव हो जायगा।
अन्वयार्थ- सर्वथा शब्द सर्वप्रकारवाची है, अथवा सर्वकालवाची है, अथवा नियमवाची है, अथवा अनेकान्तवाची है? यदि सर्व-आदि गण में पाठ होने से सर्वथा शब्द सर्वप्रकार, सर्वकालवाची अथवा अनेकान्तवाची है तो हमारा समीहित अर्थात् इष्टसिद्धान्त सिद्ध हो गया। यदि सर्वथा शब्द नियमवाची है तो फिर नियमित पक्ष होने के कारण सम्पूर्ण अर्थों की अर्थात् नित्य-अनित्य, एक-अनेक, भेद-अभेद आदि रूप सम्पूर्ण पदार्थों की प्रतीति कैसे होगी? अर्थात् नहीं हो सकेगी।
अन्वयार्थ- वैसे ही सर्वथा अचेतन पक्ष के मानने पर सम्पूर्ण चेतन का उच्छेद हो जायेगा, क्योंकि केवल अचेतन ही माना गया है।
अन्वयार्थ- सर्वथा एकान्त से आत्मा को मूर्त स्वभाव के मानने पर आत्मा को कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी, क्योंकि अष्ट कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाने पर सिद्धात्मा अमूर्तिक हैं।
अन्वयार्थ- आत्मा को सर्वथा अमूर्तिक मानने पर संसार का लोप हो जायेगा।
अन्वयार्थ- सर्वथा एकप्रदेशस्वभाव के मानने पर अखण्डता से परिपूर्ण आत्मा के अनेक कार्यकारित्व का अभाव हो जायेगा।
अन्वयार्थ- आत्मा के अनेक प्रदेशत्व मानने पर भी अखण्ड एकप्रदेशस्वरूप-आत्म-स्वभाव के अभाव हो जाने से अर्थक्रियाकारित्व का अभाव हो जायेगा।
अन्वयार्थ- सर्वथा एकान्त से शुद्धस्वभाव के मानने पर आत्मा सर्वथा निरंजन हो जायेगी। निरंजन हो जाने से कर्ममलरूपी कलंक का अवलेप अर्थात् कर्मबंध सम्भव नहीं होगा।
अन्वयार्थ- एकान्त से सर्वथा अशुद्ध स्वभाव के मानने पर अशुद्धमयी हो जाने से आत्मा को कभी भी शुद्धस्वभाव की प्राप्ति नहीं होगी अर्थात् मोक्ष नहीं होगा।
अन्वयार्थ- उपचरित-स्वभाव के एकान्त पक्ष में भी आत्मज्ञता सम्भव नहीं है, क्योंकि नियत पक्ष है।
अन्वयार्थ- उसी प्रकार अनुपचरित एकान्त पक्ष में भी आत्मा के परज्ञतादि का विरोध आ जायेगा।
अन्वयार्थ- स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव अर्थात् स्वचतुष्टय को ग्रहण करने वाले द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अस्तिस्वभाव है। क्योंकि स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तिस्वभाव है।
अन्वयार्थ- परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभाव अर्थात् परचतुष्टय को ग्रहण करने वाले द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नास्तिस्वभाव है, क्योंकि परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तिस्वभाव है।
अन्वयार्थ- उत्पाद, व्यय को गौण करके ध्रौव्य को ग्रहण करने वाले शुद्ध-द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्यस्वभाव है।
अन्वयार्थ- किसी पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्यस्वभाव है।
अन्वयार्थ- भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा एकस्वभाव है।
अन्वयार्थ- अन्वयद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से एक द्रव्य के भी अनेक स्वभाव पाये जाते हैं।
अन्वयार्थ- सद्भूतव्यवहार उपनय की अपेक्षा गुण-गुणी आदि में भेद-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- भेदकल्पना-निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुण-गुणी आदि में अभेद-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा भव्य और अभव्य पारिणामिक स्वभाव है।
अन्वयार्थ- शुद्धाशुद्ध-परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव के चेतन-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- असद्भूत-व्यवहार उपनय की अपेक्षा कर्म, नोकर्म के भी चेतन-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा कर्म, नोकर्म के अचेतन स्वभाव है।
अन्वयार्थ- विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय की अपेक्षा जीव के भी अचेतन-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा कर्म, नोकर्म के मूर्त-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- असद्भूतव्यवहार-उपनय की अपेक्षा जीव के भी मूर्तस्वभाव है।
परमभावग्राहकेण पुद्गलं विहाय इतरेषाममूर्तस्वभावः ॥165॥
अन्वयार्थ- परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा पुद्गल के अतिरिक्त जीवद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य के अमूर्त-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- पुद्गल के भी उपचार से अमूर्त-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा कालाणुद्रव्य और पुद्गल-परमाणु के एकप्रदेश स्वभाव है।
अन्वयार्थ- भेदकल्पनानिरपेक्ष द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और जीवद्रव्य के भी एकप्रदेश-स्वभाव है क्योंकि वे अखण्ड हैं।
अन्वयार्थ- भेदकल्पना-सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य और जीव-द्रव्य के नानाप्रदेश-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- उपचार से पुद्गल-परमाणु के नानाप्रदेश-स्वभाव है किन्तु कालाणु के उपचार से भी नानाप्रदेश-स्वभाव नहीं है क्योंकि कालाणु में स्निग्ध व रूक्ष गुण का अभाव है तथा वह स्थिर है।
अन्वयार्थ- अमूर्तिक कालाणु के २१ वाँ अर्थात् उपचरित-स्वभाव नहीं है।
अन्वयार्थ- परोक्षप्रमाण की अपेक्षा से और असद्भूतव्यवहार उपनय की दृष्टि से पुद्गल के उपचार से अमूर्त स्वभाव भी है।
अन्वयार्थ- शुद्ध-द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य में स्वभाव भाव है और अशुद्ध-द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा जीव, पुद्गल में विभाव-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- शुद्ध द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा शुद्ध-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- अशुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अशुद्ध-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- असद्भूतव्यवहार नय की अपेक्षा उपचरित-स्वभाव है।
अन्वयार्थ- सकल वस्तु को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण है। जिस ज्ञान के द्वारा वस्तुस्वरूप जाना जाता है, निश्चय किया जाता है, वह ज्ञान प्रमाण है।
अन्वयार्थ- सविकल्प और निर्विकल्प के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है।
अन्वयार्थ- मानस अर्थात् विचार या इच्छा सहित ज्ञान सविकल्प ज्ञान है। वह चार प्रकार का है- १) मतिज्ञान, २) श्रुतज्ञान, ३) अवधिज्ञान, ४) मनःपर्ययज्ञान।
अन्वयार्थ- मन रहित अथवा विचार या इच्छा रहित ज्ञान निर्विकल्प ज्ञान है। केवलज्ञान निर्विकल्प है।
अन्वयार्थ- प्रमाण के द्वारा सम्यक् प्रकार ग्रहण की गई वस्तु के एक धर्म अर्थात् अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। अथवा, श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। अथवा, जो नाना स्वभावों से हटाकर किसी एक स्वभाव में वस्तु को प्राप्त कराता है, वह नय है।
अन्वयार्थ- सविकल्प और निर्विकल्प के भेद से नय भी दो प्रकार के हैं।
अन्वयार्थ- प्रमाण और नय के विषय में यथायोग्य नामादिरूप से पदार्थ निक्षेपण करना अर्थात् आरोपण करना निक्षेप है। वह निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से चार प्रकार का है।
अन्वयार्थ- द्रव्य जिसका प्रयोजन (विषय) है वह द्रव्यार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- शुद्ध-द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह शुद्ध-द्रव्यार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- अशुद्ध-द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह अशुद्ध-द्रव्यार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- जो नय सामान्य गुण, पर्याय, स्वभाव को- यह द्रव्य है, यह द्रव्य है, इस प्रकार अन्वयरूप से द्रव्य की व्यवस्था करता है वह अन्वय-द्रव्यार्थिक-नय है।
अन्वयार्थ- स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव अर्थात् स्वचतुष्टय को ग्रहण करना जिसका प्रयोजन है वह स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परस्वभाव अर्थात् परचतुष्टय को ग्रहण करना जिसका प्रयोजन है वह परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- परमभाव ग्रहण करना जिसका प्रयोजन है वह परमभाव-ग्राहक द्रव्यार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- पर्याय ही जिसका प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- अनादि-नित्य पर्याय जिसका प्रयोजन है वह अनादि-नित्य पर्यायार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- सादि-नित्य पर्याय जिसका प्रयोजन है, वह सादि-नित्य पर्यायार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- शुद्धपर्याय जिसका प्रयोजन है, वह शुद्धपर्यायार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- अशुद्ध पर्याय जिसका प्रयोजन है, वह अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
अन्वयार्थ- जो एक जो प्राप्त नहीं होता अर्थात् अनेक को प्राप्त होता
है वह निगम है। निगम का अर्थ विकल्प है। जो विकल्प को ग्रहण करे वह नैगम नय है।
अन्वयार्थ- जो नय अभेद रूप से सम्पूर्ण वस्तु समूह को विषय करता है, वह संग्रह नय है।
अन्वयार्थ- संग्रह नय से ग्रहण किये हुए पदार्थ को भेदरूप से व्यवहार करता है, ग्रहण करता है, वह व्यवहार नय है।
अन्वयार्थ- जो नय ऋजु अर्थात् अवक्र, सरल को सूत्रित अर्थात् ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्र नय है।
अन्वयार्थ- जो नय शब्द अर्थात् व्याकरण से प्रकृति और प्रत्यय के द्वारा सिद्ध अर्थात् निष्पन्न शब्द को मुख्य कर विषय करता है वह शब्द नय है।
अन्वयार्थ- परस्पर में अभिरूढ शब्दों को ग्रहण करने वाला नय समभिरूढ नय है। इस नय के विषय में शब्द-भेद होने पर भी अर्थ-भेद नहीं है। जैसे- शक्र, इन्द्र, पुरन्दर ये तीनों ही शब्द देवराज के पर्यायवाची होने से देवराज में ही अभिरूढ है।
अन्वयार्थ- जिस नय में वर्तमान क्रिया की प्रधानता होती है, वह एवंभूत नय है।
अन्वयार्थ- शुद्धनिश्चय नय और अशुद्धनिश्चय नय ये दोनों द्रव्यार्थिक नय के भेद हैं।
अन्वयार्थ- अभेद और अनुपचारता से जो नय वस्तु का निश्चय करे वह निश्चय नय है।
अन्वयार्थ- जो नय भेद और उपचार से वस्तु का व्यवहार करता है, वह व्यवहारनय है।
अन्वयार्थ- संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन के भेद से जो नय गुण-गुणी में भेद करता है वह सद्भूत व्यवहारनय है।
अन्वयार्थ- अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म (स्वभाव) अन्यत्र समारोप (निक्षेप) करने वाला असद्भूत व्यवहारनय है।
अन्वयार्थ- असद्भूत व्यवहार ही उपचार है, जो नय उपचार से भी उपचार करता है वह उपचरित-असद्भूत-व्यवहार नय है।
अन्वयार्थ- गुण-गुणी में, पर्याय-पर्यायी में, स्वभाव-स्वभावी में, कारक-कारकी में भेद करना सद्भूत व्यवहारनय का विषय है।
अन्वयार्थ- १) द्रव्य में द्रव्य का उपचार, २) पर्याय में पर्याय का उपचार, ३) गुण में गुण का उपचार, ४) द्रव्य में गुण का उपचार, ५) द्रव्य में पर्याय का उपचार, ६) गुण में द्रव्य का उपचार, ७) गुण में पर्याय का उपचार, ८) पर्याय में द्रव्य का उपचार, ९) पर्याय में गुण का उपचार, ऐसे नौ प्रकार का उपचार असद्भूत व्यवहारनय का विषय है।
अन्वयार्थ- उपचार पृथक् नय नहीं है अतः उसको पृथक् रूप से नय नहीं कहा है।
अन्वयार्थ- मुख्य के अभाव में प्रयोजनवश या निमित्तवश उपचार की प्रवृत्ति होती है।
अन्वयार्थ- वह सम्बन्ध भी सत्यार्थ अर्थात् स्वजाति पदार्थों में, असत्यार्थ अर्थात् विजाति पदार्थों में तथा सत्यासत्यार्थ अर्थात् स्वजाति-विजाति उभय पदार्थों में निम्न प्रकार का होता है- १) अविनाभावसम्बन्ध, २) संश्लेष सम्बन्ध, ३) परिणामपरिणामि- सम्बन्ध, ४) श्रद्धाश्रद्धेयसम्बन्ध, ५) ज्ञानज्ञेय-सम्बन्ध, ६) चारित्रचर्या सम्बन्ध इत्यादि।
अन्वयार्थ- फिर भी अध्यात्म-भाषा से नयों का कथन करते हैं।
अन्वयार्थ- नयों के मूल भेद दो हैं- एक निश्चय नय और दूसरा व्यवहार नय।
अन्वयार्थ- निश्चय नय का विषय अभेद है। व्यवहार नय का विषय भेद है।
अन्वयार्थ- उनमें से निश्चय नय दो प्रकार का है- १) शुद्धनिश्चय, २) अशुद्धनिश्चय।
अन्वयार्थ- उनमें से जो नय कर्मजनित विकार से रहित गुण और गुणी को अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह शुद्धनिश्चय नय है। जैसे- केवलज्ञान आदि स्वरूप जीव है। अर्थात् जीव केवलज्ञानमयी है, क्योंकि ज्ञान जीव-स्वरूप है।
अन्वयार्थ- जो नय कर्मजनित विकार सहित गुण और गुणी को अभेदरूप से ग्रहण करता है वह अशुद्धनिश्चय नय है। जैसे- मतिज्ञानादि स्वरूप जीव।
अन्वयार्थ- सद्भूतव्यवहार नय और असद्भूतव्यवहार नय के भेद से व्यवहारनय दो प्रकार का है।
अन्वयार्थ- उनमें से एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहार नय है।
अन्वयार्थ- भिन्न वस्तुओं को विषय करने वाला असद्भूतव्यवहार नय है।
अन्वयार्थ- उपचरित और अनुपचरित के भेद से सद्भूतव्यवहार नय दो प्रकार का है।
अन्वयार्थ- उनमें से, कर्मजनित विकार सहित गुण और गुणी के भेद को विषय करने वाला उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय है। जैसे- जीव के मति-ज्ञानादिक गुण।
अन्वयार्थ- उपाधिरहित अर्थात् कर्मजनित विकार रहित जीव में गुण और गुणी के भेदरूप विषय को ग्रहण करने वाला अनुपचरित-सद्भूत-व्यवहारनय है। जैसे- जीव के केवलज्ञानादि गुण।
अन्वयार्थ- उपचरित और अनुपचरित के भेद से असद्भूतव्यवहार नय भी दो प्रकार का है।
अन्वयार्थ- उनमें से संश्लेष-सम्बन्ध रहित, ऐसी भिन्न वस्तुओं का परस्पर में सम्बन्ध ग्रहण करना उपचरितासद्भूतव्यवहार नय का विषय है। जैसे- देवदत्त का धन।
अन्वयार्थ- संश्लेष सहित वस्तु के सम्बन्ध को विषय करने वाला अनुपचरितासद्भूतव्यवहार नय है, जैसे- जीव का शरीर इत्यादि।