णमिऊण परमसिद्धे सुतच्चसारं पवोच्छामि ॥१॥
अन्वयार्थ- (झाणग्गिदड्ढकम्मे) आत्मध्यानरूप अग्नि से ज्ञानावरणादि कर्मों को दग्ध करनेवाले, (णिम्मलसुविसुद्धलद्ध- सब्भावे) निर्मल और परम विशुद्ध आत्मस्वभाव को प्राप्त करनेवाले (परमसिद्धे) परम सिद्ध परमात्माओं को (णमिऊण) नमस्कार करके (सुतच्चसारं) श्रेष्ठ तत्त्वसार को (मैं देवसेन) (पवोच्छामि) कहूँगा।
आत्मध्यानरूप अग्नि से ज्ञानावरणादि कर्मों को दग्ध करनेवाले, निर्मल और परम विशुद्ध आत्मस्वभाव को प्राप्त करनेवाले परम सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार करके श्रेष्ठ तत्त्वसार को (मैं देवसेन) कहूँगा।
धम्मस्स वत्तणट्ठं भवियाण पबोहणट्ठं च ॥२॥
अन्वयार्थ- (लोए) इस लोक में (पुव्वायरिएहिं) पूर्वाचार्यों ने (धम्मस्स वत्तणट्ठं) धर्म का प्रवर्तन करने के लिए (च) तथा (भवियाण पबोहणट्ठं) भव्यजीवों को समझाने के लिए (तच्चं) तत्त्व को (बहुभेयगयं) अनेक भेदरूप (अक्खियं) कहा है।
इस लोक में पूर्वाचार्यों ने धर्म का प्रवर्तन करने के लिए तथा भव्यजीवों को समझाने के लिए तत्त्व को अनेक भेदरूप कहा है।
सगयं णिय-अप्पाणं इयरं पंचावि परमेट्ठी ॥३॥
अन्वयार्थ- (एगं) एक (सगयं) स्वगत (तच्चं) स्वतत्त्व है (तह) तथा (पुणो) फिर (अण्णं) दूसरा (परगयं) परतत्त्व (भणियं) कहा गया है। (सगयं) स्वगत तत्त्व (णिय) निज (अप्पाणं) आत्मा है; (इयरं) दूसरा परगततत्त्व (पंचावि परमेट्ठी) पांचों ही परमेष्ठी हैं।
एक स्वगत स्वतत्त्व है तथा फिर दूसरा परतत्त्व कहा गया है। स्वगत तत्त्व निज आत्मा है; दूसरा परगततत्त्व पांचों ही परमेष्ठी हैं।
बज्झइ पुण्णं बहुसो परंपराए हवे मोक्खो ॥४॥
अन्वयार्थ- (तेसिं) उन पंच परमेष्ठियों के (अक्खररूवं) वाचक अक्षररूप मंत्रों को (झायमाणाणं) ध्यान करनेवाले (भवियमणुस्साण) भव्यजनों के (बहुसो) बहुत-सा (पुण्णं) पुण्य (बज्झइ) बंधता है; (परंपराए) और परम्परा से (मोक्खो) मोक्ष (हवे) प्राप्त होता है।
उन पंच परमेष्ठियों के वाचक अक्षररूप मंत्रों को ध्यान करनेवाले भव्यजनों के बहुत-सा पुण्य बंधता है; और परम्परा से मोक्ष प्राप्त होता है।
सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगयसंकप्पं ॥५॥
अन्वयार्थ- (पुणु) पुनः (जं) जो (सगयं तच्चं) स्वगत तत्त्व है वह (सवियप्पं) सविकल्प (तह य) तथा (अवियप्पं) अविकल्प रूप से दो प्रकार का (हवइ) है। (सवियप्पं) सविकल्प स्वतत्व (सासवयं) आस्रव सहित है। और (विगयसंकप्पं) संकल्प-रहित निर्विकल्प स्वतत्त्व (णिरासवं) आस्रव-रहित है।
पुनः जो स्वगत तत्त्व है वह सविकल्प तथा अविकल्प रूप से दो प्रकार का है। सविकल्प स्वतत्व आस्रव सहित है। और संकल्प-रहित निर्विकल्प स्वतत्त्व आस्रव-रहित है।
तइया तं अवियप्पं ससरूवे अप्पणो तं तु ॥६॥
अन्वयार्थ- (जइया) जब (इंदिय विसयविरामे) इन्द्रियों के विषयों का विराम (इच्छानिरोध) हो जाता है (तइया) तब (मणस्स) मन का (णिल्लूरणं) निर्मूलन (हवे) होता है, और तभी (तं) वह (अवियप्पं) निर्विकल्पक स्वगत तत्त्व प्रकट होता है। (तं तु) और वह (अप्पणो) आत्मा का (ससरूवे) अपने स्वरूप में अवस्थान होता है।
जब इन्द्रियों के विषयों का विराम (इच्छानिरोध) हो जाता है तब मन का निर्मूलन होता है, और तभी वह निर्विकल्पक स्वगत तत्त्व प्रकट होता है। और वह आत्मा का अपने स्वरूप में अवस्थान होता है।
थक्को सुद्धसहावो अवियप्पो णिच्चलो णिच्चो ॥७॥
अन्वयार्थ- (समणे) अपने मन के (णिच्चलभूए) निश्चलीभूत होने पर (सव्वे) सर्व (वियप्पसंदोहे) विकल्प-समूह के (णट्ठे) नष्ट होने पर (अवियप्पो) विकल्प-रहित निर्विकल्प (णिच्चलो) निश्चल (णिच्चो) नित्य (सुद्धसहावो) शुद्ध स्वभाव (थक्को) स्थिर हो जाता है।
अपने मन के निश्चलीभूत होने पर सर्व विकल्प-समूह के नष्ट होने पर विकल्प-रहित निर्विकल्प निश्चल नित्य शुद्ध स्वभाव स्थिर हो जाता है।
चरणं पि तं च भणियं सा सुद्धा चेयणा अहवा ॥८॥
अन्वयार्थ- (जो) जो (खलु) निश्चय से (सुद्धोभावो) शुद्धभाव है (सो) वह (अप्पा) आत्मा है। (तं च) और वह आत्मा (दंसणं) दर्शनरूप, (णाणं) ज्ञानरूप (चरणंपि) और चारित्ररूप (भणियं) कहा गया है; (अहवा) अथवा (सा) वह (सुद्धा) शुद्ध (चेयणा) चेतनारूप है।
जो निश्चय से शुद्धभाव है वह आत्मा है। और वह आत्मा दर्शनरूप, ज्ञानरूप और चारित्ररूप कहा गया है; अथवा वह शुद्ध चेतनारूप है।
तं णाऊण विसुद्धं झायहु होऊण णिग्गंथो ॥९॥
अन्वयार्थ- (जं) जो (अवियप्पं) निर्विकल्प (तच्चं) तत्त्व है, (तं) वही (सारं) सार है- प्रयोजनभूत है (तं च) और वही (मोक्ख कारणं) मोक्ष का कारण है। (तं) उस (विसुद्धं) विशुद्ध तत्त्व को (णाऊण) जानकर (णिग्गंथो) निर्ग्रन्थ (होऊण) होकर (झायहु) ध्यान करो।
जो निर्विकल्प तत्त्व है, वही सार है- प्रयोजनभूत है और वही मोक्ष का कारण है। उस विशुद्ध तत्त्व को जानकर निर्ग्रन्थ होकर ध्यान करो।
सो णिग्गंथो भणिओ जिणलिंगसमासिओ समणो ॥१०॥
अन्वयार्थ- (इह) इस लोक में (जेण) जिसने (तिविहजोएण) मन, वचन, काय इन तीन प्रकार के योगों से ( बहिरब्भंतरगंथा) बाहिरी और भीतरी परिग्रहों को (मुक्का) त्याग दिया है, (सो) वह (जिणलिंगसमासिओ) जिनेन्द्रदेव के लिंग का आश्रय करने वाला (समणो) श्रमण (णिग्गंथो) निर्ग्रन्थ (भणिओ) कहा गया है।
इस लोक में जिसने मन, वचन, काय इन तीन प्रकार के योगों से बाहिरी और भीतरी परिग्रहों को त्याग दिया है, वह जिनेन्द्रदेव के लिंग का आश्रय करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ कहा गया है।
बंधु-अरियणसमाणो झाणसमत्थो हु सो जोई ॥११॥
अन्वयार्थ- जो (लाहालाहे) लाभ और अलाभ में, (सुहदुक्खे) सुख और दुःख में (तह य) और उसी प्रकार (जीविए मरणे) जीवन तथा मरण में (सरिसो) सदृश रहता है, इसी प्रकार (बंधुअरियणसमाणो) बन्धु और शत्रु में समान भाव रखता है, (सो हु) निश्चय से वही (जोई) योगी (झाणसमत्थो) ध्यान करने में समर्थ है।
जो लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में और उसी प्रकार जीवन तथा मरण में सदृश रहता है, इसी प्रकार बन्धु और शत्रु में समान भाव रखता है, निश्चय से वही योगी ध्यान करने में समर्थ है।
तह तह जायइ णूणं सुसव्वसामग्गि मोक्खट्ठं ॥१२॥
अन्वयार्थ- (जह जह) जैसे जैसे (भव्वपुरिसस्स) भव्य पुरुष की (कालाइलद्धि) काल आदि लब्धियां (णियडा) निकट (संभवइ) आती जाती हैं, (तह तह) वैसे वैसे ही (णूणं) निश्चय से (मोक्खट्ठं) मोक्ष के लिए (सुसव्वसामग्गि) उत्तम सर्व सामग्री (जायइ) प्राप्त हो जाती है।
जैसे जैसे भव्य पुरुष की काल आदि लब्धियां निकट आती जाती हैं, वैसे वैसे ही निश्चय से मोक्ष के लिए उत्तम सर्व सामग्री प्राप्त हो जाती है।
तह झाणेण विहीणो इच्छइ कम्मक्खयं साहू ॥१३॥
अन्वयार्थ- (जह) जैसे (चलण-रहिओ) पाद-रहित (मणुस्सो) मनुष्य (मेरु-सिहरं) सुमेरु पर्वत के शिखर पर (आरुहिउं) चढ़ने के लिए (वंछइ) इच्छा करे, (तह) वैसे ही (झाणेण) ध्यान से (विहीणो) रहित (साहू) साधु (कम्मक्खयं) कर्मों का क्षय (इच्छइ) करना चाहता है।
जैसे पाद-रहित मनुष्य सुमेरु पर्वत के शिखर पर चढ़ने के लिए इच्छा करे, वैसे ही ध्यान से रहित साधु कर्मों का क्षय करना चाहता है।
एवं भणंति केई ण हु कालो होइ झाणस्स ॥१४॥
अन्वयार्थ- (संका-कंखागहिया) शंकाशील और विषय-सुख की आकांक्षावाले, (विसयपसत्ता) विषयों में आसक्त (सुमग्गपब्भट्ठा) और मोक्ष के सुमार्ग से प्रभ्रष्ट (केई) कितने ही पुरुष (एवं) इस प्रकार (भणंति) कहते हैं कि (कालो) यह काल (झाणस्स) ध्यान के योग्य (ण हु) नहीं (होइ) है।
शंकाशील और विषय-सुख की आकांक्षावाले, विषयों में आसक्त और मोक्ष के सुमार्ग से प्रभ्रष्ट कितने ही पुरुष इस प्रकार कहते हैं कि यह काल ध्यान के योग्य नहीं है।
तत्थ चुया मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि णिव्वाणं ॥१५॥
अन्वयार्थ- (अज्जवि) आज भी (तिरयणवंता) रत्नत्रय-धारक मनुष्य (अप्पा) आत्मा का (झाऊण) ध्यान कर (सुरलोयं) स्वर्गलोक को (जंति) जाते हैं, और (तत्थ) वहां से (चुया) च्युत होकर (मणुयत्ते) उत्तम मनुष्यकुल में (उप्पज्जिय) उत्पन्न हो (णिव्वाणं) निर्वाण को (लहहि) प्राप्त करते हैं।
आज भी रत्नत्रय-धारक मनुष्य आत्मा का ध्यान कर स्वर्गलोक को जाते हैं, और वहां से च्युत होकर उत्तम मनुष्यकुल में उत्पन्न हो निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
झायउ णिय अप्पाणं जइ इच्छह सासयं सोक्खं ॥१६॥
अन्वयार्थ- (तम्हा) इसलिए (जइ) यदि (सासयं) शाश्वत (सुक्खं) सुख को (इच्छह) चाहते हो तो (राय दोस वा मोहो) राग, द्वेष और मोह को (मोत्तूणं) छोड़कर (सया) सदा (अब्भसउ) ध्यान का अभ्यास करो और (णिय-अप्पाणं) अपनी आत्मा का (झायउ) ध्यान करो।
इसलिए यदि शाश्वत सुख को चाहते हो तो राग, द्वेष और मोह को छोड़कर सदा ध्यान का अभ्यास करो और अपनी आत्मा का ध्यान करो।
सगहियदेहपमाणो णायव्वो एरिसो अप्पा ॥१७॥
अन्वयार्थ- (हु) निश्चयनय से आत्मा (दंसण-णाणपहाणो) दर्शन और ज्ञानगुण प्रधान है, (असंखदेसो) असंख्यात प्रदेशी है, (मुत्तिपरिहीणो) मूर्ति से रहित है, (सगहियदेहपमाणो) अपने द्वारा गृहीत देह-प्रमाण है। (एरिसो) ऐसे स्वरूपवाला (अप्पा) आत्मा (णायव्वो) जानना चाहिए।
निश्चयनय से आत्मा दर्शन और ज्ञानगुण प्रधान है, असंख्यात प्रदेशी है, मूर्ति से रहित है, अपने द्वारा गृहीत देह-प्रमाण है। ऐसे स्वरूपवाला आत्मा जानना चाहिए।
एयग्गमणो झायउ णिरंजणं णियय-अप्पाणं ॥१८॥
अन्वयार्थ- (रागादिया विभावा) रागादि विभावों को, तथा (बहिरंतर-उहयवियप्प) बाहिरी और भीतरी दोनों प्रकार के विकल्पों को (मोत्तूणं) छोड़कर और (एयग्गमणो) एकाग्र मन होकर (णिरंजणं) कर्मरूप अंजन से रहित शुद्ध (णियय- अप्पाणं) अपने आत्मा का (झायउ) ध्यान करना चाहिए।
रागादि विभावों को, तथा बाहिरी और भीतरी दोनों प्रकार के विकल्पों को छोड़कर और एकाग्र मन होकर कर्मरूप अंजन से रहित शुद्ध अपने आत्मा का ध्यान करना चाहिए।
जाइ जरा मरणं चिय णिरंजणो सो अहं भणिओ ॥१९॥
अन्वयार्थ- (जस्स) जिसके (ण कोहो) न क्रोध है, (ण माणो) न मान है, (ण माया) न माया है, (ण लोहो) न लोभ है, (ण सल्ल) न शल्य है, (ण लेस्साओ) न कोई लेश्या है, (ण जाइजरा-मरणं चिय) और न जन्म, जरा और मरण भी है, (सो) वही (णिरंजणो) निरंजन (अहं) मैं (भणिओ) कहा गया हूँ।
जिसके न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है, न शल्य है, न कोई लेश्या है, और न जन्म, जरा और मरण भी है, वही निरंजन मैं कहा गया हूँ।
ण य लद्धिबंधठाणा णोदयठाणाइया केई ॥२०॥
अन्वयार्थ- उस निरंजन आत्मा के (णत्थि कला) कोई कला नहीं है, (संठाणं) कोई संस्थान नहीं है, (मग्गण-गुणठाण) कोई मार्गणास्थान नहीं है, कोई गुणस्थान नहीं है, (जीवट्ठाणाइं) और न कोई जीवस्थान है (ण य लद्धि बंधठाणा) न कोई लब्धिस्थान हैं, न कोई बन्धस्थान हैं, (णोदयठाणाइया केई) और न कोई उदयस्थान आदि हैं।
उस निरंजन आत्मा के कोई कला नहीं है, कोई संस्थान नहीं है, कोई मार्गणास्थान नहीं है, कोई गुणस्थान नहीं है, और न कोई जीवस्थान है न कोई लब्धिस्थान हैं, न कोई बन्धस्थान हैं, और न कोई उदयस्थान आदि हैं।
सुद्धो चेयणभावो णिरंजणो सो अहं भणिओ ॥२१॥
अन्वयार्थ- (पुणो) और (जस्स) जिसके (फास-रस-रूव-गंधा) स्पर्श, रस, गन्ध, रूप (सद्दादीया य) और शब्द आदिक (णत्थि) नहीं हैं (सो) वह (सुद्धो) शुद्ध (चेयणभावो) चेतनभावरूप (अहं) मैं (निरंजणो) निरंजन (भणिओ) कहा गया हूँ।
और जिसके स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द आदिक नहीं हैं वह शुद्ध चेतनभावरूप मैं निरंजन कहा गया हूँ।
णोकम्म-कम्मणादी पज्जाया विविहभेयगया ॥२२॥
अन्वयार्थ- (पुणो) पुनः (ववहारिएण णएण) व्यावहारिक नय से (विविहभेयगया) अनेक भेद-गत (ए सव्वे) ये सर्व (णोकम्मकम्मणादी) नोकर्म और कर्म-जनित (पज्जाया) पर्याय (अत्थित्ति) जीव के हैं, ऐसा (भणिया) कहा गया है।
पुनः व्यावहारिक नय से अनेक भेद-गत ये सर्व नोकर्म और कर्म-जनित पर्याय जीव के हैं, ऐसा कहा गया है।
एकत्तो मिलियाणां णिय-णियसब्भावजुत्ताणं ॥२३॥
अन्वयार्थ- (णिय-णियसब्भावजुत्ताणं) अपने अपने सद्भाव से युक्त, किन्तु (एकत्तो मिलियाणां) एकत्व को प्राप्त (एदेसिं) इन जीव और कर्म का (संबंधो) सम्बन्ध (खीर-णीरणाएण) दूध और पानी के न्याय से (णायव्वो) जानना चाहिए।
अपने अपने सद्भाव से युक्त, किन्तु एकत्व को प्राप्त इन जीव और कर्म का सम्बन्ध दूध और पानी के न्याय से जानना चाहिए।
णाणी वि तहा भेयं करेइ वरझाणजोएणं ॥२४॥
अन्वयार्थ- (जह) जैसे (को वि) कोई पुरुष (तक्कजोएण) तर्क के योग से (पाणिय-दुद्धाण) पानी और दूध का (भेयं) भेद (कुणइ) करता है, (तहा) उसी प्रकार (णाणी वि) ज्ञानी पुरुष भी (वर-झाणजोएणं) उत्तम ध्यान के योग से (भेयं) चेतन और अचेतनरूप स्व-पर का (भेयं) भेद (करेइ) करता है।
जैसे कोई पुरुष तर्क के योग से पानी और दूध का भेद करता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी उत्तम ध्यान के योग से चेतन और अचेतनरूप स्व-पर का भेद करता है।
घेत्तव्वो णिय अप्पा सिद्धसरूवो परो बंभो ॥२५॥
अन्वयार्थ- (झाणेण) ध्यान से (पुग्गल-जीवाण) पुद्गल और जीव का (तह य) और उसी प्रकार (कम्माणं) कर्म और जीव का (भेयं) भेद (कुणउ) करना चाहिए। तत्पश्चात् (सिद्धसरूवो) सिद्ध-स्वरूप (परो बंभो) परम ब्रह्मरूप (णिय अप्पा) अपना आत्मा (घेत्तव्वो) ग्रहण करना चाहिए।
ध्यान से पुद्गल और जीव का और उसी प्रकार कर्म और जीव का भेद करना चाहिए। तत्पश्चात् सिद्ध-स्वरूप परम ब्रह्मरूप अपना आत्मा ग्रहण करना चाहिए।
तारिसओ देहत्थो परमो बंभो मुणेयव्वो ॥२६॥
अन्वयार्थ- (जारिसो) जैसा (मल-रहिओ) कर्म-मल से रहित, (णाणमओ) ज्ञानमय (सिद्धो) सिद्धात्मा (सिद्धीए) सिद्धलोक में (णिवसइ) निवास करता है, (तारिसओ) वैसा ही (परमो बंभो) परमब्रह्मस्वरूप अपना आत्मा (देहत्थो) देह में स्थित (मुणेयव्वो) जानना चाहिए।
जैसा कर्म-मल से रहित, ज्ञानमय सिद्धात्मा सिद्धलोक में निवास करता है, वैसा ही परमब्रह्मस्वरूप अपना आत्मा देह में स्थित जानना चाहिए।
सो हं सिद्धो सुद्धो णिच्चो एक्को णिरालंबो ॥२७॥
अन्वयार्थ- (जो) जो सिद्ध जीव, (णोकम्म-कम्मरहिओ) शरीरादि नोकर्म, (ज्ञानावरणादि) द्रव्यकर्म तथा (राग-द्वेषादि) भावकर्म से रहित है, (केवलणाणाइ-गुणसमिद्धो) केवलज्ञानादि अनन्त गुणों से समृद्ध है, (सो हं) वही मैं (सिद्धो) सिद्ध हूँ, (सुद्धो) शुद्ध हूँ, (णिच्चो) नित्य हूँ, (एक्को) एक स्वरूप हूँ और (णिरालंबो) निरालंब हूँ।
जो सिद्ध जीव, शरीरादि नोकर्म, (ज्ञानावरणादि) द्रव्यकर्म तथा (राग-द्वेषादि) भावकर्म से रहित है, केवलज्ञानादि अनन्त गुणों से समृद्ध है, वही मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, नित्य हूँ, एक स्वरूप हूँ और निरालंब हूँ।
देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य ॥२८॥
अन्वयार्थ- (सिद्धोहं) मैं सिद्ध हूँ, (सुद्धो हं) मैं शुद्ध हूँ, (अणंतणाणाइसमिद्धो हं) मैं अनन्त ज्ञानादि से समृद्ध हूँ, (देहपमाणो) मैं शरीर-प्रमाण हूं, (णिच्चो) मैं नित्य हूं, (असंखदेसो) मैं असंख्य प्रदेशी हूँ, (अमुत्तो य) और अमूर्त हूं।
मैं सिद्ध हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं अनन्त ज्ञानादि से समृद्ध हूँ, मैं शरीर-प्रमाण हूं, मैं नित्य हूं, मैं असंख्य प्रदेशी हूँ, और अमूर्त हूं।
पयडइ बंभसरूवं अप्पा झाणेण जोईणं ॥२९॥
अन्वयार्थ- (मणसंकप्पे) मन के संकल्पों के (थक्के) बन्द हो जाने पर (अक्खण) और इन्द्रियों के (विसयवावारे) विषय-व्यापार के (रुद्धे) रुक जाने पर (जोईणं) योगियों के (झाणेण) ध्यान के द्वारा (बंभसरूवं) ब्रह्मस्वरूप (अप्पा) आत्मा (पयडइ) प्रकट होता है।
मन के संकल्पों के बन्द हो जाने पर और इन्द्रियों के विषय-व्यापार के रुक जाने पर योगियों के ध्यान के द्वारा ब्रह्मस्वरूप आत्मा प्रकट होता है।
तह तह पयडइ अप्पा अप्पाणं जह णहे सूरो ॥३०॥
अन्वयार्थ- (जह जह) जैसे जैसे, (मणसंचारा) मन का संचार और (इंदियविसया वि) इन्द्रियों के विषय भी (उवसमं) उपशमभाव को (जंति) प्राप्त होते हैं, (तह तह) वैसे वैसे ही (अप्पा) अपना आत्मा (अप्पाणं) अपने शुद्धस्वरूप को (पयडइ) प्रकट करता है, (जह) जैसे (णहे) आकाश में (सूरो) सूर्य।
जैसे जैसे, मन का संचार और इन्द्रियों के विषय भी उपशमभाव को प्राप्त होते हैं, वैसे वैसे ही अपना आत्मा अपने शुद्धस्वरूप को प्रकट करता है, जैसे आकाश में सूर्य।
तो पयडइ अप्पाणं अप्पा परमप्पयसरूवं ॥३१॥
अन्वयार्थ- (जइणो) योगी के (जइ) यदि (मण-वयण- कायजोया) मन, वचन और काययोग (णिव्वियारत्तं) निर्विकारता को (जंति) प्राप्त हो जाते हैं (तो) तो (अप्पा) आत्मा (अप्पाणं) अपने (परमप्पयसरूवं) परमात्मस्वरूप को (पयडइ) प्रकट करता है।
योगी के यदि मन, वचन और काययोग निर्विकारता को प्राप्त हो जाते हैं तो आत्मा अपने परमात्मस्वरूप को प्रकट करता है।
चिर-बद्धं गलइ सयं फलरहियं जाइ जोईणं ॥३२॥
अन्वयार्थ- (मण-वयण-कायरोहे) मनवचनकाय की चंचलता रुकने पर (कम्माण) कर्मों का (आसवो) आस्रव (णूणं) निश्चय से (रुज्झइ) रुक जाता है। तब (चिर-बद्धं) चिरकालीन बंधा हुआ कर्म (जोईणं) योगियों का (सयं) स्वयं (गलइ) गल जाता है और (फलरहियं) फल-रहित (जाइ) हो जाता है।
मनवचनकाय की चंचलता रुकने पर कर्मों का आस्रव निश्चय से रुक जाता है। तब चिरकालीन बंधा हुआ कर्म योगियों का स्वयं गल जाता है और फल-रहित हो जाता है।
उग्गतवं पि कुणंतो सुद्धे भावे लहुं लहइ ॥३३॥
अन्वयार्थ- (जावय) जब तक (चित्तो) मन (पर दव्ववावडो) पर-द्रव्यों में व्याप्त (व्यापारयुक्त) है, तबतक (उग्ग तवं पि) उग्र तप को भी (कुणंतो) करता हुआ (भव्वो) भव्य जीव (मोक्खं) मोक्ष को (ण लहइ) नहीं पाता है। किन्तु (सुद्धे भावे) शुद्ध भाव में लीन होने पर (लहुं) शीघ्र ही (लहइ) पा लेता है।
जबतक मन पर-द्रव्यों में व्याप्त (व्यापारयुक्त) है, तबतक उग्र तप को भी करता हुआ भव्य जीव मोक्ष को नहीं पाता है। किन्तु शुद्ध भाव में लीन होने पर शीघ्र ही पा लेता है।
परसमयरदो तावं बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ॥३४॥
अन्वयार्थ- (देहाई) देहादिक (परदव्वं) पर-द्रव्य हैं, (जाय च) और जबतक (तेसुवरिं) उनके ऊपर (ममत्तिं) ममत्व भाव (कुणइ) करता है, (तावं) तबतक वह (पर-समय-रदो) परसमय में रत है, अतएव (विविहेहिं) नाना प्रकार के (कम्मेहिं) कर्मों से (बज्झदि) बंधता है।
देहादिक पर-द्रव्य हैं, और जबतक उनके ऊपर ममत्व भाव करता है, तबतक वह परसमय में रत है, अतएव नाना प्रकार के कर्मों से बंधता है।
सकसाओ अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥३५॥
अन्वयार्थ- (इंदिय-विसएहिं) इन्द्रियों के विषयों में (वसगओ) आसक्त (मूढो) मूढ़ (सकसाओ) कषाय-युक्त (अण्णाणी) अज्ञानी पुरुष (णिच्चं) नित्य (रूसइ) किसी में रुष्ट होता है और किसी में (तूसइ) सन्तुष्ट होता है, किन्तु (णाणी) ज्ञानी पुरुष (एत्तो दु) इससे (विवरीदो) विपरीत (स्वभाववाला) होता है।
इन्द्रियों के विषयों में आसक्त मूढ़ कषाय-युक्त अज्ञानी पुरुष नित्य किसी में रुष्ट होता है और किसी में सन्तुष्ट होता है, किन्तु ज्ञानी पुरुष इससे विपरीत (स्वभाववाला) होता है।
**तम्हा मज्झत्थो हं रूसेमि य कस्स तूसेमि ॥३६॥
अन्वयार्थ- (इत्थ) इस संसार में (चेयण-रहिओ) चेतन-रहित पदार्थ (दीसइ) दिखाई देता है, (चेयणा-सहिओ) और चेतना-सहित पदार्थ (ण य दीसइ) नहीं दिखाई देता है; (तम्हा) इस कारण (मज्झत्थोहं) मध्यस्थ मैं (कस्स) किससे (रूसेमि) रुष्ट होऊं (तूसेमि य) और किससे सन्तुष्ट होऊं?
इस संसार में चेतन-रहित पदार्थ दिखाई देता है, और चेतना-सहित पदार्थ नहीं दिखाई देता है; इस कारण मध्यस्थ मैं किससे रुष्ट होऊं और किससे सन्तुष्ट होऊं?
सो मज्झत्थो जोई ण य रूसइ णेय तूसेइ ॥३७॥
अन्वयार्थ- (तिहुयणत्था वि) तीन भुवन में स्थित भी (सव्वे वि) सभी (जीवा) जीव (अप्पसमाणा) अपने समान (दिट्ठा) दिखाई देते हैं, (सो) इसलिए वह (मज्झत्थो) मध्यस्थ (जोई) योगी (ण य) न तो (रूसइ) किसी से रुष्ट होता है (णेय) और नहीं (तूसेइ) किसी से सन्तुष्ट होता है।
तीन भुवन में स्थित भी सभी जीव अपने समान दिखाई देते हैं, इसलिए वह मध्यस्थ योगी न तो किसी से रुष्ट होता है और नहीं किसी से सन्तुष्ट होता है।
सगुणेहिं सव्वसरिसा णाणमया णिच्छयणएण ॥३८॥
अन्वयार्थ- (णिच्छयणएण) निश्चयनय से सभी जीव (जम्मणमरणविमुक्का) जन्म-मरण से विमुक्त (अप्पपएसेहिं) आत्मप्रदेशों की अपेक्षा (सव्वसामण्णा) सभी समान (सगुणेहिं सव्वसरिसा) आत्मीय गुणों से सभी सदृश और (णाणमया) ज्ञानमयी हैं।
निश्चयनय से सभी जीव जन्म-मरण से विमुक्त आत्मप्रदेशों की अपेक्षा सभी समान आत्मीय गुणों से सभी सदृश और ज्ञानमयी हैं।
तस्स मणो डहुलिज्जइ ण राय-दोसेहिं मोहेहिं ॥३९॥
अन्वयार्थ- (जो) जो ज्ञानी (दोहिं पि) दोनों ही (णएहिं) नयों से (इय एवं) यह इस प्रकार का (वत्थुसहावं) वस्तु-स्वभाव (बुज्झइ) जानता है (तस्स) उसका (मणो) मन (राय-दोसेहिं) राग-द्वेष (मोहेहिं) और मोह से (ण डहुलिज्जइ) डंवाडोल नहीं होता है।
जो ज्ञानी दोनों ही नयों से यह इस प्रकार का वस्तु-स्वभाव जानता है उसका मन राग-द्वेष और मोह से डंवाडोल नहीं होता है।
सो णियतच्चं पिच्छइ ण हु पिच्छइ तस्स विवरीओ ॥४०॥
अन्वयार्थ- (जस्स) जिसका (मणसलिलं) मनरूपी जल (रागद्दोसादीहि य) रागद्वेष आदि के द्वारा (णेय) नहीं (डहुलिज्जइ) डंवाडोल होता है (सो) वह (णियतच्चं) निजतत्त्व को (पिच्छइ) देखता है; (तस्स) इससे (विवरीओ) विपरीत पुरुष (ण हु) निश्चय से नहीं (पिच्छइ) देखता है।
जिसका मनरूपी जल रागद्वेष आदि के द्वारा नहीं डंवाडोल होता है वह निजतत्त्व को देखता है; इससे विपरीत पुरुष निश्चय से नहीं देखता है।
मण-सलिले थिरभूए दीसइ अप्पा तहा विमले ॥४१॥
अन्वयार्थ- (जह) जैसे (सरसलिले) सरोवर के जल के (थिरभूए) स्थिर होने पर (णिवडियं पि) सरोवर में गिरा हुआ भी (रयणं) रत्न (णिरु) नियम से (दीसइ) दिखाई देता है, (तहा) उसी प्रकार (मणसलिले) मनरूपी जल के (थिरभूए) स्थिर होने पर (विमले) निर्मल भाव में (अप्पा) आत्मा (दीसइ) दिखाई देता है।
जैसे सरोवर के जल के स्थिर होने पर सरोवर में गिरा हुआ भी रत्न नियम से दिखाई देता है, उसी प्रकार मनरूपी जल के स्थिर होने पर निर्मल भाव में आत्मा दिखाई देता है।
जायइ जोइस्स फुडं अमाणुसत्तं खणद्धेण ॥४२॥
अन्वयार्थ- (विमलसहावे) निर्मल स्वभाववाले, (इंदियत्थपरिचत्ते) इन्द्रियों के विषयों से रहित (णियतच्चे) निज आत्मतत्त्व के (दिट्ठे) दिखाई देने पर (खणद्धेण) आधे क्षण में (जोइस्स) योगी के (अमाणुसत्तं) अमानुषपना (फुडं) स्पष्ट प्रकट (जायइ) हो जाता है।
निर्मल स्वभाववाले, इन्द्रियों के विषयों से रहित निज आत्मतत्त्व के दिखाई देने पर आधे क्षण में योगी के अमानुषपना स्पष्ट प्रकट हो जाता है।
ते छंडिय भावेज्जो सुद्धसहावं णियप्पाणं ॥४३॥
अन्वयार्थ- (णाणमयं) ज्ञानमयी (णियतच्चं) निजतत्त्व को (मेल्लिय) छोड़कर (सव्वेवि) सभी (भावा) भाव (परगया) परगत हैं; (ते छंडिय) उन्हें छोड़कर (सुद्धसहावं) शुद्ध-स्वभाववाले (णियप्पाणं) निज आत्मा की ही (भावेज्जो) भावना करनी चाहिए।
ज्ञानमयी निजतत्त्व को छोड़कर सभी भाव परगत हैं; उन्हें छोड़कर शुद्ध-स्वभाववाले निज आत्मा की ही भावना करनी चाहिए।
सो हवइ वीयराओ णिम्मलरयणत्तओ साहू ॥४४॥
अन्वयार्थ- (जो संवेयणचेयणाइ उवजुत्तो) जो स्व-संवेदन चेतनादि से उपयुक्त (साहू) साधु (अप्पाणं) आत्मा को (झायदि) ध्याता है (सो) वह (णिम्मलरयणत्तओ) निर्मल रत्नत्रय का धारक (वीयराओ) वीतराग (हवइ) हो जाता है।
जो स्व-संवेदन चेतनादि से उपयुक्त साधु आत्मा को ध्याता है वह निर्मल रत्नत्रय का धारक वीतराग हो जाता है।
जो झायइ अप्पाणं सचेयणं सुद्धभावट्ठं ॥४५॥
अन्वयार्थ- (जो) जो (जोई) योगी (सचेयणं) सचेतन और (सुद्धभावट्ठं) शुद्ध भाव में स्थित योगी परमयोगी (अप्पाणं) आत्मा को (झायइ) ध्याता है (तस्स) उसको (इह) इस लोक में (णिच्छयं) निश्चय (दंसणणाण-चरित्तं) दर्शन ज्ञान चारित्र (भणइ) कहते हैं।
जो योगी सचेतन और शुद्ध भाव में स्थित योगी परमयोगी आत्मा को ध्याता है उसको इस लोक में निश्चय दर्शन ज्ञान चारित्र कहते हैं।
तो ण लहइ तं सुद्धं भग्गविहीणो जहा रयणं ॥४६॥
अन्वयार्थ- (झाणट्ठिओ) ध्यान में स्थित (जोई) योगी (जइ) यदि (हु) निश्चय से (णिययअप्पाणं) अपने आत्मा को (णो) नहीं (संवेइ) अनुभव करता है (तो) तो वह (तं) उस (सुद्धं) शुद्ध आत्मा को (ण) नहीं (लहइ) प्राप्त कर पाता है। (जहा) जैसे (भग्गविहीणो) भाग्यहीन मनुष्य (रयणं) रत्न को नहीं प्राप्त कर पाता है।
ध्यान में स्थित योगी यदि निश्चय से अपने आत्मा को नहीं अनुभव करता है तो वह उस शुद्ध आत्मा को नहीं प्राप्त कर पाता है। जैसे भाग्यहीन मनुष्य रत्न को नहीं प्राप्त कर पाता है।
तच्चं वियाररहियं णिच्चं चिय झायमाणो हु ॥४७॥
अन्वयार्थ- (वियार-रहियं) विचार-रहित (तच्चं) तत्त्व को (णिच्चं) नित्य (चिय) ही (झायमाणो हु) निश्चय से ध्यान करता हुआ भी (जेण) यतः (देहसुहे) शरीर के सुख में (पडिबद्धो) अनुरक्त है (तेण) इसलिए (सो) वह (सुद्धं) शुद्ध आत्मस्वरूप को (ण हु) नहीं (लहइ) प्राप्त कर पाता है।
विचार-रहित तत्त्व को नित्य ही निश्चय से ध्यान करता हुआ भी यतः शरीर के सुख में अनुरक्त है इसलिए वह शुद्ध आत्मस्वरूप को नहीं प्राप्त कर पाता है।
तस्स ममत्ति कुणंतो बहिरप्पा होइ सो जीवो ॥४८॥
अन्वयार्थ- (देहो) शरीर (सया) सदाकाल (मुक्खो) मूर्ख है, (विणासरूवो) विनाशरूप है, (चेयणपरिवज्जिओ) चेतना से रहित है, जो (तस्स) उसकी (ममत्ति) ममता (कुणंतो) करता है (सो) वह (बहिरप्पा) बहिरात्मा (होइ) है।
शरीर सदाकाल मूर्ख है, विनाशरूप है, चेतना से रहित है, जो उसकी ममता करता है वह बहिरात्मा है।
जो अप्पाणं झायदि सो मुच्चइ पंचदेहेहिं ॥४९॥
अन्वयार्थ- (देहस्स य) देह के (रोयं) रोग (सडणं) सटन और (पडणं) पतन को तथा (जर-मरणं) जरा और मरण को (पिक्खिऊण) देखकर (जो) जो भव्य (अप्पाणं) आत्मा को (झायदि) ध्याता है (स) वह (पंच देहेहिं) पांच प्रकार के शरीरों से (मुच्चइ) मुक्त हो जाता है।
देह के रोग सटन और पतन को तथा जरा और मरण को देखकर जो भव्य आत्मा को ध्याता है वह पांच प्रकार के शरीरों से मुक्त हो जाता है।
सयमागयं च तं जइ सो लाहो णत्थि संदेहो ॥५०॥
अन्वयार्थ- (जं) जो (कम्मं) कर्म (तवसा) तप के द्वारा (उदयस्स) उदय में (आणियं) लाकर (भुंजियव्वं) भोगने के योग्य (होइ) होता है, (तं) वह (जइ) यदि (सयं) स्वयं (आगयं) उदय में आ गया है (सो) वह (लाहो) बड़ा भारी लाभ है; इसमें कोई (संदेहो) सन्देह (णत्थि) नहीं है।
जो कर्म तप के द्वारा उदय में लाकर भोगने के योग्य होता है, वह यदि स्वयं उदय में आ गया है वह बड़ा भारी लाभ है; इसमें कोई सन्देह नहीं है।
सो संचियं विणासइ अहिणवकम्मं ण बंधेइ ॥५१॥
अन्वयार्थ- जो भव्य जीव (कम्मफलं) कर्मों के फल को (भुंजंतो) भोगता हुआ (ण रायं) न राग को (तह य) और (दोसं च) न द्वेष को (कुणइ) करता है (सो) वह (संचियं) पूर्व संचित कर्म को (विणासइ) विनष्ट करता है और (अहिणवकम्मं) नवीन कर्म को (ण बंधेइ) नहीं बांधता है।
जो भव्य जीव कर्मों के फल को भोगता हुआ न राग को और न द्वेष को करता है वह पूर्व संचित कर्म को विनष्ट करता है और नवीन कर्म को नहीं बांधता है।
जइ तो पुणो वि बंधइ णाणावरणादि अट्ठविहं ॥५२॥
अन्वयार्थ- (कम्मफलं) कर्मों के फल को (भुंजंतो) भोगता हुआ अज्ञानी पुरुष (जइ) यदि (मोहेण) मोह से (सुहमसुहं) शुभ और अशुभ (भावं) भाव को (कुणइ) करता है, (तो) तब (पुणो वि) फिर भी वह (णाणावरणादि) ज्ञानावरणादि (अट्ठविहं) आठ प्रकार के कर्म को (बंधइ) बांधता है।
कर्मों के फल को भोगता हुआ अज्ञानी पुरुष यदि मोह से शुभ और अशुभ भाव को करता है, तब फिर भी वह ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म को बांधता है।
सो कम्मेण ण मुच्चइ परमट्ठ वियाणओ समणो ॥५३॥
अन्वयार्थ- (जाम) जबतक (जोई) योगी (समणम्मि) अपने मन में से ( परमाणुमित्तरायं) परमाणुमात्र भी राग को (ण छंडेइ) नहीं छोड़ता है, तबतक (परमट्ठवियाणओ) परमार्थ का ज्ञायक भी (स समणो) वह श्रमण (कम्मेण) कर्म से (ण मुच्चइ) नहीं छूटता है।
जबतक योगी अपने मन में से परमाणुमात्र भी राग को नहीं छोड़ता है, तबतक परमार्थ का ज्ञायक भी वह श्रमण कर्म से नहीं छूटता है।
हेऊ कम्मस्स तओ णिज्जरणट्ठं इमो भणिओ ॥५४॥
अन्वयार्थ- (सुह-दुक्खं पि) सुख-दुःख को भी (सहंतो) सहता हुआ (णाणी) ज्ञानी पुरुष जब (झाणम्मि) ध्यान में (दिढचित्तो) दृढ़-चित्त (होइ) होता है, तब उसका (तपो) तप (कम्मस्स) कर्म की (णिज्जरणट्ठं) निर्जरा के लिए (हेऊ) हेतु होता है (इमो) ऐसा (भणिओ) कहा गया है।
सुख-दुःख को भी सहता हुआ ज्ञानी पुरुष जब ध्यान में दृढ़-चित्त होता है, तब उसका तप कर्म की निर्जरा के लिए हेतु होता है ऐसा कहा गया है।
जो जीवो संवरणं णिज्जरणं सो फुडं भणिओ ॥५५॥
अन्वयार्थ- (जो जीवो) जो जीव (सगं) अपने (भावं) भाव को (ण मुएइ) नहीं छोडता है, (परं) और पर पदार्थरूप (ण परिणमइ) परिणत नहीं होता है, किन्तु (अप्पाणं) अपने आत्मा का (मुणइ) मनन, चिन्तन और अनुभवन करता है, (सो) वह जीव (फुडं) निश्चयनय से (संवरणं) संवर और (णिज्जरणं) निर्जरारूप (भणिओ) कहा गया है।
जो जीव अपने भाव को नहीं छोडता है, और पर पदार्थरूप परिणत नहीं होता है, किन्तु अपने आत्मा का मनन, चिन्तन और अनुभवन करता है, वह जीव निश्चयनय से संवर और निर्जरारूप कहा गया है।
सो जीवो णायव्वो दंसण-णाणं चरित्तं च ॥५६॥
अन्वयार्थ- (ससहावं) अपने आत्मस्वभाव को (वेदंतो) अनुभव करता हुआ जो जीव (विमुक्कपरभावो) परभाव को छोड़कर (णिच्चलचित्तो) निश्चल चित्त होता है (सो जीवो) वही जीव (दंसण-णाणं चरित्तं च) सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और सम्यक् चारित्र है, ऐसा (णायव्वो) जानना चाहिए।
अपने आत्मस्वभाव को अनुभव करता हुआ जो जीव परभाव को छोड़कर निश्चल चित्त होता है वही जीव सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और सम्यक् चारित्र है, ऐसा जानना चाहिए।
सा सुद्धचेयणा वि य णिच्छयणयमस्सिए जीवे ॥५७॥
अन्वयार्थ- (णिच्छयणयमस्सिए) निश्चयनय के आश्रित (जीवे) जीव में (जो अप्पा) जो आत्मा है, (तं णाणं) वही ज्ञान है, (जं णाणं) और जो ज्ञान है (तं च दंसणं चरणं) वही दर्शन है, वही चारित्र है (सा सुद्धचेयणा वि य) और वही शुद्ध चेतना भी है।
निश्चयनय के आश्रित जीव में जो आत्मा है, वही ज्ञान है, और जो ज्ञान है वही दर्शन है, वही चारित्र है और वही शुद्ध चेतना भी है।
विलसइ परमाणंदो जोईणं जोयसत्तीए ॥५८॥
अन्वयार्थ- (उभयविणट्ठे भावे) राग और द्वेषरूप दोनों भावों के विनष्ट होने पर (सुसुद्धससरूवे) अत्यन्त शुद्ध आत्मस्वरूप (णियउवलद्धे) निज भाव के उपलब्ध होने पर (जोयसत्तीए) योगशक्ति से (जोईणं) योगियों के (परमाणंदो) परम आनन्द (विलसइ) विलसित होता है।
राग और द्वेषरूप दोनों भावों के विनष्ट होने पर अत्यन्त शुद्ध आत्मस्वरूप निज भाव के उपलब्ध होने पर योगशक्ति से योगियों के परम आनन्द विलसित होता है।
फुरइ ण परमाणंदो सच्चेयणसंभवो सुहदो ॥५९॥
अन्वयार्थ- (जोएण किं कीरइ) उस योग से क्या करना है? (जस्स य) जिसकी (एरिसी) ऐसी (सत्ती) शक्ति (ण हु) नहीं (अत्थि) है कि उससे (सच्चेयणसंभवो) सत्-चेतन से उत्पन्न (सुहदो) सुखद (परमाणंदो) परमानन्द (ण फुरइ) प्रकट न हो।
उस योग से क्या करना है? जिसकी ऐसी शक्ति नहीं है कि उससे सत्-चेतन से उत्पन्न सुखद परमानन्द प्रकट न हो।
ताम ण परमाणंदो उप्पज्जइ परमसोक्खयरो ॥६०॥
अन्वयार्थ- (जा) जबतक (गहियजोयस्स) योग के धारक (जोइस्स) योगी का (मणो) मन (झाणे) ध्यान में (किंचिवि) कुछ भी (चलइ) चलायमान रहता है (ताम) तब तक (परमसोक्खयरो) परम सुख-कारक (परमाणंदो) परमानन्द (ण उप्पज्जइ) नहीं उत्पन्न होता है।
जबतक योग के धारक योगी का मन ध्यान में कुछ भी चलायमान रहता है तब तक परम सुख-कारक परमानन्द नहीं उत्पन्न होता है।
जो अप्पणो सहावो मोक्खस्स य कारणं सो हु ॥६१॥
अन्वयार्थ- (सयलवियप्पे) समस्त विकल्पों के (थक्के) रुक जाने पर (कोवि) कोई अद्वितीय (सासओ) शाश्वत-नित्य (भावो) भाव (उप्पज्जइ) उत्पन्न होता है (जो) जो (अप्पणो) आत्मा का (सहावो) स्वभाव है; (सो) वह (हु) निश्चय से (मोक्खस्स य) मोक्ष का (कारणं) कारण है।
समस्त विकल्पों के रुक जाने पर कोई अद्वितीय शाश्वत-नित्य भाव उत्पन्न होता है जो आत्मा का स्वभाव है; वह निश्चय से मोक्ष का कारण है।
जाणइ णिय-अप्पाणं पिच्छइ तं चेव सुविसुद्धं ॥६२॥
अन्वयार्थ- (अप्पसहावे) आत्मस्वभाव में (थक्को) स्थित (जोई) योगी (आगए) उदय में आये हुए (विसए) इन्द्रियों के विषयों को (ण मुणेइ) नहीं जानता है। किन्तु (णिय-अप्पाणं) अपनी आत्मा को ही (जाणइ) जानता है (तं चेव) और उसी (सुविसुद्धं) अतिविशुद्ध आत्मा को (पिच्छइ) देखता है।
आत्मस्वभाव में स्थित योगी उदय में आये हुए इन्द्रियों के विषयों को नहीं जानता है। किन्तु अपनी आत्मा को ही जानता है और उसी अतिविशुद्ध आत्मा को देखता है।
एकीहवइ णिरासो मरइ पुणो झाणसत्थेण ॥६३॥
अन्वयार्थ- (उवलद्धसुद्धतच्चस्स) जिसने शुद्धतत्त्व को प्राप्त कर लिया है, ऐसे (जोइस्स) योगी का (मणो) मन (विसएसु) इन्द्रियों के विषयों में (ण रमइ) नहीं रमता है। किन्तु (णिरासो) विषयों से निराश होकर आत्मा में (एकीहवइ) एकमेव हो जाता है। (पुणो) पुनः (झाणसत्थेण) ध्यानरूपी शस्त्र के द्वारा (मरइ) मरण को प्राप्त हो जाता है।
जिसने शुद्धतत्त्व को प्राप्त कर लिया है, ऐसे योगी का मन इन्द्रियों के विषयों में नहीं रमता है। किन्तु विषयों से निराश होकर आत्मा में एकमेव हो जाता है। पुनः ध्यानरूपी शस्त्र के द्वारा मरण को प्राप्त हो जाता है।
खीयंति खीणमोहे सेसाणि य घाइकम्माणि ॥६४॥
अन्वयार्थ- (जाम) जबतक (सव्वो मोहो) सम्पूर्ण मोह (खयं) क्षय को (ण गओ) नहीं प्राप्त होता है, (ताव) तबतक (इत्थ) इस आत्मा का (मणो) मन (ण मरइ) नहीं मरता है। (खीणमोहे) मोह के क्षीण होने पर (सेसाणि य) शेष भी (घाइकम्माणि) घाति-कर्म (खीयंति) नष्ट हो जाते हैं।
जबतक सम्पूर्ण मोह क्षय को नहीं प्राप्त होता है, तबतक इस आत्मा का मन नहीं मरता है। मोह के क्षीण होने पर शेष भी घाति-कर्म नष्ट हो जाते हैं।
तह णिहयमोहराए गलंति णिस्सेसघाईणि ॥६५॥
अन्वयार्थ- (राए) राजा के (णिहए) मारे जाने पर जैसे (गलियमाहप्पं) जिसका माहात्म्य गल गया है ऐसी (सेण्णं) सेना (सयमेव) स्वयं ही (णासइ) नष्ट हो जाती है, (तह) उसी प्रकार (णिहयमोहराए) मोहराजा के नष्ट हो जाने पर (णिस्सेसघाईणि) समस्त घातिया-कर्म (गलंति) स्वयं ही गल जाते हैं।
राजा के मारे जाने पर जैसे जिसका माहात्म्य गल गया है ऐसी सेना स्वयं ही नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार मोहराजा के नष्ट हो जाने पर समस्त घातिया-कर्म स्वयं ही गल जाते हैं।
लोयालोयपयासं कालत्तयजाणगं परमं ॥६६॥
अन्वयार्थ- (घाइचउक्के णट्ठे) चारों घातिया कर्मों के नष्ट होने पर (लोयालोयपयासं) लोक और अलोक को प्रकाशित करनेवाला, (कालत्तय जाणगं) तीनों कालों को जाननेवाला, (परमं) परम (विमलं) निर्मल (केवलणाणं) केवलज्ञान (उप्पज्जइ) उत्पन्न होता है।
चारों घातिया कर्मों के नष्ट होने पर लोक और अलोक को प्रकाशित करनेवाला, तीनों कालों को जाननेवाला, परम निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
जायइ अभूदपुव्वो लोयग्गणिवासिओ सिद्धो ॥६७॥
अन्वयार्थ- (तिहुवणपुज्जो) अरहन्त अवस्था में तीन भुवन के जीवों का पूज्य होकर, पुनः (सेसाणि) शेष (कम्मजालाणि) कर्मजालों को (खविउ) क्षय करके (अभूदपुव्वो) अभूतपूर्व (लोयग्गणिवासिओ) लोकाग्र का निवासी (सिद्धो) सिद्ध परमात्मा (जायइ) हो जाता है।
अरहन्त अवस्था में तीन भुवन के जीवों का पूज्य होकर, पुनः शेष कर्मजालों को क्षय करके अभूतपूर्व लोकाग्र का निवासी सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
ग
अव्वाबाहसुहत्थो परमट्ठगुणेहिं संजुत्तो ॥६८॥
अन्वयार्थ- (गमणागमणविहीणो) गमन और आगमन से रहित (फंदण-चलणेहि) परिस्पन्द और हलन-चलन से रहित, (अव्वाबाहसुहत्थो) अव्याबाध सुख में स्थित (परमट्ठगुणेहिं) परमार्थ या परम अष्टगुणों से (संजुत्तो) संयुक्त (सिद्धो) सिद्ध परमात्मा होता है।
गमन और आगमन से रहित परिस्पन्द और हलन-चलन से रहित, अव्याबाध सुख में स्थित परमार्थ या परम अष्टगुणों से संयुक्त सिद्ध परमात्मा होता है।
मुत्तामुत्ते दव्वे अणंतपज्जायगुणकलिए ॥६९॥
अन्वयार्थ- (करणकमरहियं) इंद्रियों के क्रम से रहित एक साथ (सव्वं) सर्व (लोयालोयं) लोक और अलोक को, तथा (अणंतपज्जायगुणकलिए) अनन्त पर्याय और अनन्त गुणों से संयुक्त सभी (मुत्तामुत्ते दव्वे) मूर्त और अमूर्त द्रव्यों को (जाणइ) जानता है और (पेच्छइ) देखता है।
इंद्रियों के क्रम से रहित एक साथ सर्व लोक और अलोक को, तथा अनन्त पर्याय और अनन्त गुणों से संयुक्त सभी मूर्त और अमूर्त द्रव्यों को जानता है और देखता है।
अच्छइ अणंतकालं लोयग्गणिवासिओ होउ ॥७०॥
अन्वयार्थ- (तस्स सिद्धस्स) उस सिद्ध परमात्मा का (धम्माभावे) धर्मद्रव्य का अभाव होने से (परदो) लोक से परे अलोक में (गमणं णत्थि त्ति) गमन नहीं है, इस कारण (लोयग्गणिवासिओ होउ) लोकाग्र निवासी होकर वहाँ (अणंतकालं) अनंत काल तक (अच्छइ) रहते हैं।
उस सिद्ध परमात्मा का धर्मद्रव्य का अभाव होने से लोक से परे अलोक में गमन नहीं है, इस कारण लोकाग्र निवासी होकर वहाँ अनंत काल तक रहते हैं।
उड्ढगमणसहाओ मुक्को जीवो हवे जम्हा ॥७१॥
अन्वयार्थ- (मुक्को जीवो) कर्मों से मुक्त हुआ जीव (धम्मदव्वे संते वि) धर्म-द्रव्य के होने पर भी (अहो ण गच्छेइ) नीचे नहीं जाता है, (तह य तिरियं वा) उसी प्रकार तिरछा भी नहीं जाता है। (जम्हा) क्योंकि मुक्त जीव (उड्ढगमणसहाओ) ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला (हवे) है।
कर्मों से मुक्त हुआ जीव धर्म-द्रव्य के होने पर भी नीचे नहीं जाता है, उसी प्रकार तिरछा भी नहीं जाता है। क्योंकि मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है।
जम्मण-मरण-विमुक्का णमामि सव्वे पुणो सिद्धा ॥७२॥
अन्वयार्थ- (पुणो) पुनः (सिद्धा जीवा) वे सिद्ध जीव (असरीरा) शरीर-रहित हैं, (घणा) अर्थात् बहुत घने हैं, (किंचूणा) कुछ कम (चरम सरीरा) चरम शरीर प्रमाण हैं, (जम्मण-मरण-विमुक्का) जन्म और मरण से रहित हैं। ऐसे (सव्वे सिद्धा) सर्व सिद्धों को (णमामि) मैं नमस्कार करता हूँ।
पुनः वे सिद्ध जीव शरीर-रहित हैं, अर्थात् बहुत घने हैं, कुछ कम चरम शरीर प्रमाण हैं, जन्म और मरण से रहित हैं। ऐसे सर्व सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूँ।
तं भव्वजीवसरणं णंदउ सग-परगयं तच्चं ॥७३॥
अन्वयार्थ- (जं अल्लीणा) जिसमें तल्लीन हुए (जीवा) जीव (विसमं) विषम (संसार-सायरं) संसार समुद्र को (तरंति) तिर जाते हैं (तं) वह (भव्वजीवसरणं) भव्य जीवों को शरणभूत (सग-परगयं) स्व और परगत (तच्चं) तत्त्व (णंदउ) सदा वृद्धि को प्राप्त हो।
जिसमें तल्लीन हुए जीव विषम संसार समुद्र को तिर जाते हैं वह भव्य जीवों को शरणभूत स्व और परगत तत्त्व सदा वृद्धि को प्राप्त हो।
जो सद्दिट्ठी भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ॥७४॥
अन्वयार्थ- (जो सद्दिट्ठी) जो सम्यग्दृष्टि (मुणिणाहदेवसेणेण) मुनिनाथ देवसेन के द्वारा (रइयं) रचित (तच्चसारं) इस तत्त्वसार को (सोऊण) सुनकर (भावइ) उसकी भावना करेगा, (सो) वह (सासयं सोक्खं) शाश्वत सुख को (पावइ) पावेगा।
जो सम्यग्दृष्टि मुनिनाथ देवसेन के द्वारा रचित इस तत्त्वसार को सुनकर उसकी भावना करेगा, वह शाश्वत सुख को पावेगा।