समयसार गाथा 87 से 95

उपयोग कि इस प्रकार की व्याख्या सम्पूर्ण जिनागम में पढ़ने-सुनने को नही मिलती ।
यहां आचार्य ने उपयोग की एक नयी श्रेणी का निर्माण किया है
त्रिविध उपयोग । ऐसा सुनते आएं हैं ।
मेरा प्रश्न है कि यहाँ आचार्य ने /-

  1. जीव को ही उपयोग संज्ञा दी है, तो जीव के क्या सभी परिणामों पर उपयोग इस संज्ञा का उपचार बनता है…?

  2. मेरे ख्याल में ये कोई नई श्रेणी नही , अपितु सर्व सामान्य श्रेणी को अन्तरगर्भित किये हुए है , क्योंकि उपयोग की परिभाषा कही है कि चेतना के परिणाम विशेष को उपयोग कहतें हैं , तो जीव के श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र ये तीनों ही चेतना के परिणाम हैं…

  3. आचार्य ने मिथ्यादर्शन-अज्ञान-अविरति को उपयोग में डाला , तो क्या सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र को भी उपयोग की श्रेणी में रखा जा सकता है…?

कृपया इन तीनों कथनों की न्याय के आलोक में समीक्षा करें ।
@jinesh ji…आदि सभी विद्वज्जन ।

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अच्छा प्रकरण है, मैं निवेदन करूँगा @Sayyam जी से कि वे इस प्रकरण में विशेष रूप से यदि बतावें तो अच्छा है, अभी अभी किसी गोष्ठी में भी यह चर्चा उनसे सुनी थी।

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धन्यवाद जिनेश जी!

संयमजी, दिल्ली

  1. जी! उपयोग एक ऐसी अवस्था है जो जीव के अनादि-अनंतता की सिद्धि करती है। तो उसका रूप सर्वत्र ही मानना चाहिए। यदि ज्ञान में ही सबकुछ है, तो दोष भी उसमें ही झलकेगा और निवारण भी उसमें ही; इसलिए मिथ्या-दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी उपयोग के भेद बन सकते हैं और रत्नत्रय भी।

  2. सामान्य और विशेषात्मक दोनों।

  3. पूर्वोत्तरित

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