363 प्रकार का पाखण्ड | 363 Prakar ka pakhand

गृहीत मिथ्यात्व के भेद:-
ये क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञानवादी के भेद से चार प्रकार के होते हैं।

१.क्रियावादी:-

क्रियावादी गृहीत मिथ्यादृष्टि के १८० भेद

क्रियावादी आस्तिक होते हैं। इनमें क्रियावादियों के 180 भेद हैं, वे इस प्रकार हैं–

स्वभाववादी– स्वभाव ही सब कुछ करता है- ऐसा मानने वाले।

नियतिवादी– भवितव्यता से ही सब कुछ होता है- ऐसा मानने वाले।

कालवादी– काल ही सब कुछ करने वाला है- ऐसा मानने वाले।

ईश्वरवादी– ईश्वर ही सब कार्यों को करता है- ऐसा मानने वाले।

आत्मवादी– सर्व व्यापी आत्मा ही सब कुछ करता है- ऐसा मानने वाले।

इनके प्रवर्तक कोक्षुल्ल, कंठेविद्ध, कौशिक, हरिश्मयश्रु, मांथविक, रोमश, हारीत, मुण्ड और आश्वलायन आदि अनेक हुए हैं।

क्रियावादी के स्वभावादि 5 पाँच भेदों को जीवादि नव पदार्थों से गुणित करने पर पैंतालीस भेद होते हैं और उन 45 भेदों को स्वतः आदि चार भेदों से गुणित करने पर 180 (एक सौ अस्सी) भेद हो जाते हैं। नीचे के कोष्ठक को देखने से यह स्पष्ट समझ में आ जायेगा।


स्वभाववादी- १ । नियतिवादी- २ । कालवादी- ३ । ईश्वरवादी- ४ । आत्मवादी- ५ । =५


जीव । अजीव ‌‌। आस्रव । बंध । संवर ‌‌। निर्जरा । मोक्ष । पुण्य । पाप । = ९
५×९ = ४५


स्वत: - १ । परत: - २ । नित्य- ३ । अनित्य-४ । = ४५×४ = १८०


२.अक्रियावादी:-

अक्रियावादी गृहीत मिथ्यादृष्टि के 84 भेद

(2) अक्रियावादी के चौरासी भेद होते हैं। ये नास्तिक हैं। इसके प्रवर्तक मरीचि, कुमार, उलूक, कपिल, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाग्वलि, माठर और मौङ्गिल्य आदि हैं।
जो क्रियावादी के पाँच भेद पूर्व में बताये जा चुके हैं, वे अक्रियावादी के भी होते हैं। उनको सात तत्त्वों से गुणित करने पर पैंतीस भेद हो जाते हैं। उनको फिर स्वतः एवं परतः दोनों से गुणित करने पर सत्तर भेद होते हैं। नियति तथा काल इन दो से सात तत्त्वों को गुणित करने पर 14 भेद होते हैं और इनको 70 में मिलाने पर चौरासी भेद अक्रियावादी के हो जाते हैं।

निम्नलिखित कोष्ठक पंक्तियों से यह अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है–


स्वभाव- १ । नियति- २ । काल- ३ । ईश्वर- ४ । आत्म- ५ । = ५


जीव । अजीव । आस्रव । बंध । संवर । निर्जरा । मोक्ष । = ७
५×७ = ३५


स्वत: । परत: । = २

३५×२ = ७०

नियति । काल । = २

जीवादि सात। २×७ = १४
७०+ १४ = ८४


प्रथम कोष्ठक में 70 भेद दिखाये हैं, वे स्वतः-परतः विकल्प की अपेक्षा दिखाये हैं। द्वितीय कोष्ठक में जो चौदह भेद दिखाये गये हैं, वे स्वतः-परतः विकल्प से रहित केवल नियति और काल की अपेक्षा से ही हैं; क्योंकि ऊपर के पाँच विकल्पों में से नियति और काल के ही दो विकल्प ऐसे हैं, जो कि स्वतः और परतः विकल्प से सहित और रहित भी हो सकते हैं। स्वभाव, ईश्वर और आत्मा इन तीन विकल्पों में यह बात नहीं हो सकती। अतः इनको नहीं लिया है।

३.विनयवादी:-

विनयवादी गृहीत मिथ्यादृष्टि के 32 भेद

(3) विनयवादी के 32 भेद होते हैं-- ये लोग देव, नृप, यति, ज्ञाति (कुल-कुटुम्ब), वृद्ध, बालक, जननी और जनक इन आठों का मन, वचन, काय और दान से विनय करने का आदेश करते हैं। इसके प्रवर्तक वशिष्ठ, पराशर, जतुकर्ण, वाल्मीक, रोमहर्षण और व्यास आदि हैं।

देवादिक आठ विकल्पों को मन आदिक चार भेदों से गुणित करने पर 32 बत्तीस भेद हो जाते हैं। इसका कोष्ठक नीचे देखिए–


देव १ । नृप २ । यति ३ । ज्ञाति ४ । वृद्ध ५ । बालक ६ । जननी ७ । जनक ८ ।
मन १ । वचन २ । काय ३ । दान ४ ।
८×४ = ३२


अज्ञानवादी:-

(4) अज्ञानवादी के 67 भेद होते हैं - इस मत के प्रवर्तक साकल्प, वाष्कल, चारायण, कमठ, माध्यन्दिन, पिप्लाद और बादरायण आदि हैं।

अज्ञानवादी के सदादि सात विकल्पों को नव जीवादि पदार्थों से गुणित करने पर त्रेसठ और सद्भावोत्पत्ति आदि शुद्ध चार विकल्पों के मिलाने से 67 भेद होते हैं। नीचे के कोष्ठक को देखिए -


सत् १ । असत् २ । सदसत् ३ । अवाच्य ४ । सद् वाच्य ५ । असद् वाच्य ६ । सदसद् वाच्य ७ ।

जीव १ । अजीव २ । आस्रव ३ । बंध ४ । संवर ५ । निर्जरा ६ । मोक्ष ७ । पुण्य ८‌। पाप ९ ।
७×९ = ६३

शुद्ध चार भेद

सद्भावोत्पत्ति १ । असद्भावोत्पत्ति २ । सद्सद्भावोत्पत्ति ३ । अवाच्य भावोत्पत्ति ४ ।

६३+४ = ६७


363 प्रकार का पाखण्ड

क्रियावादी 180, अक्रियावादी के 84, विनयवादी 32 और अज्ञानवादी के 67 इन सबको मिलाने पर 363 (तीन सौ त्रेसठ) मत होते हैं। यही तीन सौ त्रेसठ प्रकार के पाखण्ड भी कहलाते हैं। यह सब कथन पंच संग्रह के आधार से है। अन्य ग्रंथों में भी कहा है–

असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होई चुलसीदी।
सत्तट्ठी अण्णाणी वेणईया होंति बत्तीसा ।।137।। (भावप्राभृत)

अर्थ– एक सौ अस्सी क्रियावादियों के, चौरासी अक्रियावादियों के, सड़सठ अज्ञानवादियों के और बत्तीस वैनयिकों के इस प्रकार 363 मत हैं।

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मैं एक श्रमण होने के नाते ये पूछना चाहता हु, जैन धर्म में पाखंड का मतलब क्या होता है। क्या यह अंधविश्वास वाले पाखंड मतलब से अलग है।

  • जय जिनेन्द्र

जय जिनेन्द्र,
सामान्यतः पाखण्ड का अर्थ दुनिया यही करती हैकि किसी व्यक्ति की वह चारित्रिक विशेषता है, अपने पास अच्छे गुण, नैतिकता और सिद्धान्तों के होने का दिखावा करता है किन्तु वे उसके पास होती नहीं हैं।

यह अर्थ भी कुछ हद तक यहाँ अपेक्षित है परंतु जैनदर्शन आत्मवादी दर्शन भी है और यहाँ पाखण्ड का अर्थ मिथ्या-एकांतों से लेना है। वस्तु के किसी एक पक्ष को ही सर्वथा मान लेना कि मात्र इतनी तथा ऐसी ही वस्तु है इसका नाम है - मिथ्या एकांत। और यही अर्थ यहाँ पाखण्ड शब्द से लेना है।

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अच्छा। समझ गए हम।

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