वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग-१ | Vitrag Vigyan Pathmala Part -1

पाठ 5 कर्म

सिद्धांतचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य (व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व )

जह चक्केण य चक्की, छक्खंडं साहियं अविऽघेण।
तह मइ चक्केण मया, छक्खंडं साहियं सम्म।। ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 397)

" जिस प्रकार सुदर्शनचक्र के द्वारा चक्रवर्ती छह खंडों को साधता ( जीत लेता) है, उसी प्रकार मैंनें (नेमिचन्द्र ने) अपने बुद्धिरूपी चक्र से षट्खण्डागमरूप महान् सिद्धान्त को साधा है।” अतः वे ‘सिद्धान्त-चक्रवर्ती’ कहलाए। ये प्रसिद्ध जैन राजा चामुण्डराय के समकालीन थे और चामुण्डराय का समय ग्यारहवीं सदी का पूर्वार्ध हैं, अतः आचार्य नेमिचन्द्र भी इसी समय भारत-भूमि को अलंकृत कर रहे थे। (ये नेमिचंद्राचार्य सिद्धान्तचक्रवर्ती, नेमिचंद्राचार्य से भिन्न हैं।)

ये कोई साधारण विद्वान् नहीं थे; इनके द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि उपलब्ध ग्रन्थ उनकी असाधारण विद्वत्ता और ‘सिद्धान्तचक्रवर्ती’ पदवी को सार्थक सिद्ध कर रहे हैं।

इन्होंने चामुण्डराय के आग्रह पर सिद्धान्त ग्रन्थों का सार लेकर गोम्मटसार ग्रन्थ की रचना की है, जिसके जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड नामक दो महा अधिकार हैं। इनका दूसरा नाम पंचसंग्रह भी है। इस ग्रन्थ पर मुख्यःत टीकाएँ उपलब्ध हैं:

  1. अभयचंद्राचार्य की संस्कृत टीका ‘मंदप्रबोधिका’।
  2. केशववर्णी की संस्कृत मिश्रित कन्नड़ी टीका ‘जीवतत्त्वप्रदीपिका’।
  3. नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका ‘जीवतत्त्वप्रदीपिका’।
  4. आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी की भाषाटीका ‘सम्यग्ज्ञानचंद्रिका’।

यह पाठ गोम्मटसार कर्मकाण्ड के आधार पर लिखा गया है।

कर्म

चामुण्डराय - महाराज! यह आत्मा दुःखी क्यों है ? आत्मा का हित क्या है ? कृपा कर बताइये।
आचार्य नेमिचन्द्र - आत्मा का हित निराकुल सुख है, वह आत्मा के आश्रय से ही प्राप्त किया जा सकता है। पर यह जीव अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर मोह-राग-द्वेष रूप विकारी भावों को करता है, अतः दुःखी है।

चामुण्डराय - हमने तो सुना है कि दुःख का कारण कर्म है।
आचार्य नेमिचन्द्र - नहीं भाई! जब यह आत्मा अपने को भूलकर स्वयं मोह-राग-द्वेष भाव रूप विकारी परिणमन करता है, तब कर्म का उदय उसमें निमित्त कहा जाता है। कर्म थोड़े ही जबरदस्ती आत्मा को विकार कराते हैं।

चामुण्डराय - यह निमित्त क्या होता है ?
आचार्य नेमिचन्द्र - जब पदार्थ स्वयं कार्यरूप परिणमे, तब कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप जिस पर आ सके उसे निमित्तकारण कहते हैं। अतः जब आत्मा स्वयं अपनी भूल से विकारादि रूप (दुःखादि रूप) परिणमे, तब उसमें कर्म को निमित्त कहा जाता है।

चामुण्डराय - यह तो ठीक है कि यह आत्मा अपनी भूल से स्वयं दुःखी है, ज्ञानावरणादि कर्मों के कारण नहीं। पर वह भूल क्या है ?
आचार्य नेमिचन्द्र - अपने को भूलकर पर में इष्ट और अनिष्ट कल्पना करके मोह-राग-द्वेष रूप भाव-कर्म (विभाव भाव रूप परिणमन) करना ही आत्मा की भूल है।

चामुण्डराय - भाव-कर्म क्या होता है ?
आचार्य नेमिचन्द्र - कर्म के उदय में यह जीव मोह-राग-द्वेष रूपी विकारी भाव रूप होता है, उन्हें भाव-कर्म कहते हैं और उन मोह-राग-द्वेष भावों का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणा (कर्मरज) कर्मरूप परिणमित होकर प्रात्मा से सम्बद्ध हो जाती हैं, उन्हें द्रव्य-कर्म कहते हैं।

चामुण्डराय - तो कर्मबंध के निमित्त, आत्मा में उत्पन्न होने वाले मोहराग-द्वेष भाव तो भाव-कर्म हैं और कार्माण वर्गणा का कर्मरूप परिणमित रजपिण्ड द्रव्य-कर्म ?
आचार्य नेमिचन्द्र - हाँ! मूलरूप से ये कर्म आठ प्रकार के होते हैं। इन आठ प्रकार के कर्मों में ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय तो घातिया कर्म कहलाते हैं और वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार अघातिया कर्म कहलाते हैं।

चामुण्डराय - घातिया और अघातिया से क्या तात्पर्य ?
आचार्य नेमिचन्द्र - जो जीव के अनुजीवी गुणों को घात करने में निमित्त हों वे घाति कर्म हैं, और आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त न हों उन्हें अघातिया कर्म कहते हैं।

चामुण्डराय - ज्ञान पर आवरण डालने वाले कर्म को ज्ञानावरण और दर्शन पर आवरण डालने वाले कर्म को दर्शनावरण कहते होंगे ?
आचार्य नेमिचन्द्र - सुनो ! जब आत्मा स्वयं अपने ज्ञान भाव का घात करता है, अर्थात् ज्ञान-शक्ति को व्यक्त नहीं करता तब आत्मा के ज्ञानगुण के घात में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे ज्ञानावरण कहते हैं। और जब आत्मा स्वयं अपने दर्शन-गुण (भाव) का घात करता है तब दर्शन-गुण के घात में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे दर्शनावरण कहते हैं। ज्ञानावरणी पांच प्रकार का और दर्शनावरणी नौ प्रकार का होता है।

चामुण्डराय - और मोहनीय…?
आचार्य नेमिचन्द्र - जीव अपने स्वरूप को भूल कर अन्य को अपना माने या स्वरूपाचरण में असावधानी करे तब जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है : 1. दर्शन मोहनीय, 2. चारित्र मोहनीय।
मिथ्यात्व आदि तीन भेद दर्शन मोहनीय के हैं, 25 कषायें चारित्र मोहनीय के भेद हैं।

चामुंडराय - अब घातिया कर्मों में एक अन्तराय और रह गया ?
आचार्य नेमिचन्द्र - जीव के दान, लाभ , भोग, उपभोग और वीर्य के विघ्न में जिस कर्म का उदय निमित्त हो, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। यह पांच प्रकार का होता है।

चामुण्डराय - अब कृपया अघातिया कर्मों को भी…?
आचार्य नेमिचन्द्र - हाँ! हाँ!! सुनो!
जब आत्मा स्वयं मोह भाव के द्वारा प्राकुलता करता है तब अनुकूलता, प्रतिकूलता रूप संयोग प्राप्त होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। यह साता वेदनीय और असाता वेदनीय के भेद से दो प्रकार का होता है।

जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तिर्यञ्च , मनुष्य या देव शरीर में रुका रहे तब कर्म का उदय निमित्त हो उसे आयु कर्म कहते हैं। यह भी नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु के भेद से चार प्रकार का है।

तथा जिस शरीर में जीव हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे नाम कर्म कहते हैं। यह शुभ नाम कर्म और अशुभ नाम कर्म के भेद से दो प्रकार का होता है। वैसे इसकी प्रकृतियाँ 93 हैं।

और जीव को उच्च या नीच आचरण वाले कुल में पैदा होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह भी उच्चगोत्र और नीच गोत्र, इस प्रकार दो भेद वाला है।

चामुण्डराय - तो बस, कर्मों के पाठ ही प्रकार हैं ?
आचार्य नेमिचन्द्र - इन आठ भेदों में भी प्रभेद हैं, जिन्हें प्रकृतियाँ कहते हैं और वे 148 होती हैं। और भी कई प्रकार के भेदों द्वारा इन्हें समझा जा सकता हैं, अभी इतना ही पर्याप्त है। यदि विस्तार से जानने की इच्छा हो तो गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिये।

प्रश्न

  1. कर्म कितने प्रकार के होते हैं ? नाम सहित गिनाइये।
  2. द्रव्य कर्म और भाव कर्म में क्या अंतर है ?
  3. क्या कर्म आत्मा को जबर्दस्ती विकार कराते हैं ?
  4. ज्ञानावरणी, मोहनीय एवं आयु कर्म की परिभाषाएँ लिखिये।
  5. सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र का संक्षिप्त परिचय दीजिये।