वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग-१ | Vitrag Vigyan Pathmala Part -1

पाठ 4 : षट् आवश्यक

( मंदिरजी में शास्त्र-प्रवचन हो रहा है। पंडितजी शास्त्र-प्रवचन कर रहे हैं और सब श्रोता रुचिपूर्वक श्रवण कर रहे हैं।)

प्रवचनकार - संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं, और उन दुःखों से बचने के लिये उपाय भी करते हैं, पर उनसे बचने का सही उपाय नहीं जानते हैं, अतः दुःखी ही रहते हैं।

एक श्रोता - तो फिर दुःख से बचने का सच्चा उपाय क्या है ?
प्रवचनकार - आत्मा को समझकर उसमें लीन होना ही सच्चा उपाय है और यही निश्चय से आवश्यक कर्तव्य है।

दूसरा श्रोता - आप तो साधुओं की बात करने लगे, हम सरीखे गृहस्थ सच्चा सुख प्राप्त करने के लिये क्या करें ?
प्रवचनकार - दुःख मेटने और सच्चा सुख प्राप्त करने का उपाय तो सब के लिये एक ही है।
यह बात अलग है कि मुनिराज अपने उग्र पुरुषार्थ से आत्मा का सुख विशेष प्राप्त कर लेते है और गृहस्थ अपनी भूमिकानुसार अंशतः सुख प्राप्त करता है।
उक्त मार्ग में चलने वाले सम्यग्दृष्टि श्रावक के आंशिक शुद्धिरूप निश्चय आवश्यक के साथ-साथ शुभ विकल्प भी आते हैं। उन्हें व्यवहार-आवश्यक कहते है। वे छह प्रकार के होते हैं :

देवपूजा गुरुपास्ति, स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानञ्चेति गृहस्थानां, षट् कर्माणि दिने दिने।।

  1. देवपूजा
  2. गुरु की उपासना
  3. स्वाध्याय
  4. संयम
  5. तप
  6. दान

श्रोता - कृपया इन्हें संक्षेप में समझा दीजिये।

प्रवचनकार - ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि निश्चय से भाव-देवपूजा है और सच्चे देव का स्वरूप समझकर उनके गुणों का स्तवन ही व्यवहार से भाव-देवपूजा है। ज्ञानी श्रावक वीतरागता और सर्वज्ञता आदि गुणों का स्तवन करते हुये विधिपूर्वक अष्ट द्रव्य से पूजन करते हैं उसे द्रव्यपूजा कहते हैं।
इसी प्रकार ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि ही निश्चय से गुरु-उपासना है और गुरु का सच्चा स्वरूप समझकर उनकी उपासना करना ही व्यवहार-गुरुउपासना है।

तुम्हें पहिले बताया जा चुका है कि अरहंत और सिद्ध भगवान देव कहलाते हैं और आचार्य, उपाध्याय तथा साधु गुरु कहलाते हैं।
ज्ञानी श्रावक के योग्य प्रांशिक शुद्धि ही निश्चय से स्वाध्याय है तथा जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये तत्त्व का निरूपण करने वाले शास्त्रों का अध्ययन, मनन करना व्यवहार-स्वाध्याय है।

श्रोता - यह तो तीन हुए।
प्रवचनकार - सुनो! ज्ञानी श्रावक के योग्य प्रांशिक शुद्धि ही निश्चय से संयम है और उसके साथ होने वाले भूमिकानुसार हिंसादि से विरति एवं इन्द्रिय-निग्रह व्यवहार-संयम है।

ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि अर्थात् शुभाशुभ इच्छाओं का निरोध ( उत्पन्न नहीं होना) निश्चय-तप है तथा उसके साथ होने वाले अनशनादि संबंधी शुभभाव व्यवहार-तप है।

ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि, वह निश्चय से अपने को शुद्धता का दान है तथा स्व और पर के अनुग्रह के लिये धनादि देना व्यवहार-दान है। वह चार प्रकार का होता है :

  1. आहारदान 2. ज्ञानदान 3. औषधिदान 4. अभयदान

श्रोता - निश्चय और व्यवहार आवश्यक में क्या अंतर है ?

प्रवचनकार - निश्चय आवश्यक तो शुद्ध धर्म-परिणति है, अतः बंध के प्रभाव का कारण है तथा व्यवहार आवश्यक पुण्य बंध का कारण है। सच्चे आवश्यक ज्ञानी जीव के ही होते हैं। पर देवपूजनादि करने का भाव अज्ञानी के भी होता हैं तथा मंद कषाय और शुभ भावानुसार पुण्य बंध भी होता है, पर वे सच्चे धर्म नहीं कहे जा सकते।

श्रोता- यदि आप ऐसा कहोगें तो अज्ञानी जीव देवपूजनादि आवश्यक कर्मों को छोड़ देंगे।
प्रवचनकार - भाई! उपदेश तो ऊँचा चढ़ने को दिया जाता है। अतः देवपूजनादि के शुभ भाव छोड़कर यदि अशुभ भाव में जावेंगे तो पाप बंध करेंगे। अतः देवपूजनादि छोड़ना ठीक नहीं है।

प्रश्न -

  1. छह आवश्यकों के नाम लिखकर उनकी परिभाषायें दीजिये।