वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग-१ | Vitrag Vigyan Pathmala Part -1

पाठ 3 : सात तत्त्व

आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी (व्यक्तित्व और कर्तृत्व)

तत्त्वार्थसूत्रकर्त्तारं, गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामीमुनीश्वरम्।।

कम से कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धि पाने वाले आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी के तत्त्वार्थ सूत्र से जैन समाज जितना अधिक परिचित है, उनके जीवन परिचय के संबंध में उतना ही अपरिचित है।
ये कुन्दकुन्दाचार्य के पट्ट शिष्य थे तथा विक्रम की प्रथम शताब्दी के अन्तिम काल में तथा द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत-भूमि को पवित्र कर रहे थे।
आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी उन गौरवशाली प्राचार्यों में हैं, जिन्हें समग्र आचार्य परम्परा में पूर्ण प्रामाणिकता और सन्मान प्राप्त है। जो महत्त्व वैदिकों में गीता का, ईसाइयों में बाइबिल का और मुसलमानों में कुरान का माना जाता है, वही महत्व जैन परम्परा में गृद्धपिच्छ उमास्वामी के तत्त्वार्थ सूत्र को प्राप्त है। इसका दूसरा नाम मोक्षशास्त्र भी है। यह संस्कृत भाषा का सर्वप्रथम जैन ग्रन्थ है।
यह ग्रन्थराज जैन समाज द्वारा संचालित सभी परीक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रमों में निर्धारित है और सारे भारतवर्ष के जैन विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। प्रस्तुत अंश तत्त्वार्थ सूत्र के आधार पर लिखा गया है।

सात तत्त्व

प्रवचनकार - संसार में समस्त प्राणी दुःखी दिखाई देते हैं, और वे दुःख से बचने का उपाय भी करते हैं। परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्वों की सही जानकारी एवं श्रद्धा के बिना दुःख दूर होता नहीं।
मुमुक्षु - ये प्रयोजनभूत तत्त्व क्या हैं जिनकी जानकारी और सही श्रद्धा के बिना दुःख दूर नहीं हो सकता ?

प्रवचनकार - दुःख दूर करना और सुखी होना ही सच्चा प्रयोजन है और ऐसे तत्त्व जिनकी सम्यक् श्रद्धा और ज्ञान बिना हमारा दुःख दूर न हो सके और हम सुखी न हो सकें, उन्हें ही प्रयोजनभूत तत्त्व कहते हैं। तत्त्व माने वस्तु का सच्चा स्वरूप। जो वस्तु जैसी है, उसका जो भाव , वही तत्त्व है।
वे तत्त्व सात होते हैं, जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी ने कहा है -

“जीवाजीवास्त्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्" ||1,4||

जीव, अजीव, आस्रव , बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं।

प्रश्नकर्ता - कृपया संक्षेप में इनका स्वरूप बताइये।
प्रवचनकार - जीव तत्त्व ज्ञान-दर्शन स्वभावी आत्मा को कहते हैं। ज्ञान-दर्शन स्वभाव से रहित तथा आत्मा से भिन्न समस्त द्रव्य (पदार्थ) अजीव तत्त्व कहलाते हैं। पुद्गलादि समस्त पदार्थ अजीव है।
इन शरीरादि सभी अजीव पदार्थों से भिन्न चेतन तत्त्व ही आत्मा है। वह आत्मा ही मैं हूँ, मुझसे भिन्न पुद्गलादि पाँच द्रव्य अजीव हैं।
सामान्य रूप से तो जीव अजीव दो ही तत्त्व हैं। आश्रव आदिक तो जीव अजीव के ही विशेष हैं।

शंकाकार - यदि आश्रवादिक जीव अजीव के ही विशेष हैं, तो इनको पृथक् क्यों कहा है ?
प्रवचनकार - यहाँ तो मोक्ष का प्रयोजन है। अतः प्रास्त्रवादिक पाँच पर्यायरूप विशेष तत्त्व कहे। उक्त सातों के यथार्थ श्रद्धान बिना मोक्षमार्ग नहीं बन सकता है। क्योंकि जीव और अजीव को जाने बिना अपने-पराये का भेदविज्ञान कैसे हो ? मोक्ष को पहिचाने बिना और हित रूप माने बिना उसका उपाय कैसे करे ? मोक्ष का उपाय संवर निर्जरा हैं, अतः उनका जानना भी आवश्यक है। तथा आश्रव का प्रभाव सो संवर है, और बंध का एकदेश प्रभाव सो निर्जरा है, अतः इनको जाने बिना इनको छोड़ संवर निर्जरा रूप कैसे प्रवर्ते ?

शंकाकार - हमने तो प्रवचन में सुना था कि आत्मा तो त्रिकाल शुद्ध , शुद्धाशुद्ध पर्यायों से पृथक् है, वही आश्रय करने योग्य है।
प्रवचनकार - भाई, वह द्रव्य–दृष्टि के विषय की बात है। आत्मद्रव्य प्रमाण-दृष्टि से शुद्धाशुद्ध पर्यायों से युक्त है।

जिज्ञासु - यह द्रव्य-दृष्टि क्या है ?
प्रवचनकार - सप्त तत्त्वों को यथार्थ जानकर, समस्त परपदार्थ और शुभाशुभ आश्रवादिक विकारी भाव तथा संवरादिक अविकारी भावों से भी पृथक् ज्ञानानन्द-स्वभावी, त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व ही दृष्टि का विषय है। इस दृष्टि से कथन में पर, विकार और भेद को भी गौण करके मात्र त्रैकालिक ज्ञानस्वभाव को आत्मा कहा जाता है और उसके प्राश्रय से ही धर्म ( संवर निर्जरा) प्रकट होता है।
जिन मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्म पाते हैं, उन मोह-राग-द्वेष भावों को तो भावास्त्रव कहते हैं। उसके निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वयं आना द्रव्यास्त्रव है।
इसी प्रकार आत्मा का अज्ञान, मोह-राग-द्वेष , पुण्य-पाप आदि विभाव भावों में रुक जाना सो भाव-बंध है और उसके निमित्त से पुद्गल का स्वयं कर्मरूप बंधना सो द्रव्य-बंध है।

शंकाकार - पुण्य-पाप को बंध के साथ क्यों जोड़ दिया ?
प्रवचनकार - भाई! पुण्य और पाप, आश्रव-बंध के ही अवान्तर भेद हैं। शुभ राग से पुण्य का आश्रव और बंध होता है और अशुभ राग, द्वेष और मोह से पाप का आश्रव और बंध होता है। शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार का राग अर्थात् पुण्य और पाप दोनों ही छोड़ने योग्य हैं, क्योकि वे आश्रव और बंध तत्त्व हैं।
पुण्य-पाप के विकारी भाव (आश्रव) को आत्मा के शुद्ध (वीतरागी) भावों से रोकना सो भाव-संवर है और तदनुसार नये कर्मों का स्वयं आना रुक जाना द्रव्य-संवर है।

इसी प्रकार ज्ञानानन्द-स्वभावी आत्मा के लक्ष्य के बल से स्वरूपस्थिरता की वृद्धि द्वारा आंशिक शुद्धि की वृद्धि और अशुद्ध (शुभाशुभ ) अवस्था का आंशिक नाश करना सो भाव-निर्जरा है और उसका निमित्त पाकर जड़ कर्म का अंशतः खिर जाना सो द्रव्य-निर्जरा है।

प्रश्नकर्ता - और मोक्ष ?
प्रवचनकार - अशुद्ध दशा का सर्वथा सम्पूर्ण नाश होकर आत्मा की पूर्ण निर्मल पवित्र दशा का प्रकट होना भाव-मोक्ष है और निमित्त कारण द्रव्य-कर्म का सर्वथा नाश (अभाव) होना सो द्रव्य-मोक्ष है। उक्त सातों तत्त्वों को भली भाँति जानकर एवं समस्त परतत्त्वों पर से दृष्टि हटाकर अपने आत्मतत्त्व पर दृष्टि ले जाना ही सच्चा सुख प्राप्त करने का सच्चा उपाय है।

प्रश्न -

  1. तत्त्व किसे कहते है ? वे कितने प्रकार के हैं ?
  2. ‘प्रयोजनभूत’ शब्द का क्या आशय है ?
  3. पुण्य और पाप का अन्तर्भाव किन तत्त्वों में होता है और कैसे ? स्पष्ट कीजिये।
  4. हेय और उपादेय तत्त्वों को बताइये।
  5. द्रव्य-संवर, भाव-निर्जरा, भाव-मोक्ष, द्रव्यास्रव तथा भाव-बंध को स्पष्ट कीजिये।
  6. आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर प्रकाश डालिये।