पाठ 1 : देव-स्तुति
पं. दौलतरामजी दर्शन स्तुति
(दोहा)
सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन |
सो जिनेंद्र जयवंत नित, अरिरजरहस विहीन ||1||
अर्थ: जिनेन्द्र देव की स्तुति करते हुए पं. दौलतरामजी कहते हैं कि - हे जिनेन्द्र देव! आप समस्त ज्ञेयों ( लोकालोक) के ज्ञाता होने पर भी अपनी आत्मा के आनन्द में लीन रहते हो। चार घातिया कर्म हैं निमित्त जिनके, ऐसे मोह-राग-द्वेष , अज्ञान आदि विकारों से रहित हो-प्रभो! आपकी जय हो |
(पद्धरि छंद)
जय वीतराग विज्ञानपूर, जय मोहतिमिर को हरन सूर |
जय ज्ञान अनंतानंत धार, दृगसुख वीरजमंडित अपार ||2 ||
अर्थ: आप मोह-राग-द्वेष रूप अंधकार का नाश करने वाले वीतरागी सूर्य हो। अनन्त ज्ञान के धारण करने वाले हो, अतः पूर्णज्ञानी ( सर्वज्ञ) हो तथा अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य से भी सुशोभित हो। हे प्रभो! आपकी जय हो |
जय परम शान्त मुद्रा समेत, भवि-जन को निज अनुभूति हेत।
भविभागन वश जोगे वशाय, तुम धुनि ह्वै सुनि विभ्रम नशाय॥(3)
अर्थ: भव्य जीव आपकी परम शान्तमुद्रा को देखकर अपनी आत्मा की अनुभूति प्राप्त करने का लक्ष्य करते हैं। भव्य जीवों के भाग्य से और आपके वचनयोग से आपकी दिव्यध्वनि होती है, उसको श्रवण कर भव्य जीवों का भ्रम नष्ट हो जाता है |
तुम गुण चिन्तत निज-पर-विवेक, प्रगटै विघटैं आपद अनेक।
तुम जगभूषण दूषण-विमुक्त, सब महिमा युक्त विकल्प-मुक्त॥(4)
अर्थ: आपके गुणों का चिन्तवन करने से स्व और पर का भेद-विज्ञान हो जाता है, और मिथ्यात्व दशा में होने वाली अनेक आपत्तियाँ (विकार) नष्ट हो जाती हैं। आप समस्त दोषों से रहित हो, सब विकल्पों से मुक्त हो, सर्व प्रकार की महिमा धारण करने वाले हो और जगत् के भूषण (सुशोभित करने वाले) हो |
अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप।
शुभ-अशुभ विभाव अभाव कीन, स्वाभाविक परिणतिमय अछीन॥(5)
अर्थ: हे परमात्मा! आप समस्त उपमानों से रहित, परम पवित्र, शुद्ध, चेतन (ज्ञान दर्शन) मय हो। आप में किसी भी प्रकार का विरोध भाव नहीं हैं। आपने शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के विकारी-भावों का प्रभाव कर दिया है और स्वभाव-भाव से युक्त हो गये हो, अतः कभी भी क्षीण दशा को प्राप्त होने वाले नहीं हो |
अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्वचतुष्टयमय राजत गंभीर।
मुनि गणधरादि सेवत महंत, नव केवल-लब्धि-रमा धरंत॥(6)
अर्थ: आप अठारह दोषों से रहित हो और अनंत चतुष्टय युक्त विराजमान हो। केवलज्ञानादि नौ प्रकार के क्षायिक-भावों के धारण करने वाले होने से महान् मुनि और गणधर देवादि आपकी सेवा करते हैं |
तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव।
भव-सागर में दु:ख छार वारि, तारन को और न आप टारि॥(7)
अर्थ: आपके बताये मार्ग पर चलकर अनंत जीव मुक्त हो गये हैं, हो रहे हैं और सदा काल होते रहेंगे। इस संसार रूपी समुद्र में दुःख रूपी अथाह खारा पानी भरा हुआ है। आपको छोड़कर और कोई भी इससे पार नहीं उतार सकता है |
यह लखि निज दु:खगद-हरण-काज, तुम ही निमित्त कारण इलाज।
जाने तातैं मैं शरण आय, उचरों निज दु:ख जो चिर लहाय॥(8)
अर्थ: इस भयंकर दुःख को दूर करने में निमित्त कारण आप ही हो, ऐसा जानकर मैं आपकी शरण में आया हूँ और अनंत काल से दुःख पाया है, उसे आपसे कह रहा हूँ |
मैं भ्रम्यों अपनपो विसरि आप, अपनाये विधि-फल पुण्य-पाप |
निज को पर को करता पिछान, पर में अनिष्टता इष्ट ठान॥(9)
आकुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग-मृगतृष्णा जानि वारि।
तन-परिणति में आपो चितार, कबहूँ न अनुभवो स्व-पद सार॥(10)
अर्थ: मैं अपनी ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर अपने आप ही संसार में भ्रमण कर रहा हूँ और मैंने कर्मों के फल पुण्य और पाप को अपना लिया है। अपने को पर का कर्ता मान लिया है, और अपना कर्ता पर को मान लिया है और पर-पदार्थों में से ही कुछ को इष्ट मान लिया है और कुछ को अनिष्ट मान लिया है। परिणामस्वरूप प्रज्ञान को धारण करके स्वयं ही आकुलित हुआ हूँ, जिस प्रकार कि हरिण मृगतृष्णावश बालू को पानी समझकर अपने अज्ञान से ही दुःखी होता है। शरीर की दशा को ही अपनी दशा मानकर अपने पद ( आत्म-स्वभाव) का अनुभव नहीं किया |
तुमको बिन जाने जो कलेश, पायो सो तुम जानत जिनेश।
पशु-नारक-नर-सुर-गति-मँझार, भव धर-धर मर्यो अनन्त बार॥(11)
अर्थ: हे जिनेश! आपको पहिचाने बिना जो दुःख मैंने पाये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। तिर्यंच गति, नरक गति, मनुष्य गति और देव गति में उत्पन्न होकर अनन्त बार मरण किया है |
अब काललब्धि बलतैं दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल।
मन शांतभयो मिटि सकल द्वन्द्व, चाख्यो स्वातमरस दु:खनिकंद॥(12)
अर्थ: अब काललब्धि के आने पर आपके दर्शन प्राप्त हुए हैं, इससे मुझे बहुत ही प्रसन्नता है। मेरा अन्तर्द्वन्द्व समाप्त हो गया है और मेरा मन शान्त हो गया है और मैंने दुःखों को नाश करने वाली आत्मानुभूति को प्राप्त कर लिया है।
तातैं अब ऐसी करहु नाथ, बिछुरै न कभी तुव चरण साथ।
तुम गुण गण को नहिं छेव देव, जग तारन को तुव विरद एव॥(13)
अर्थ: अतः हे नाथ! अब ऐसा करो जिससे आपके चरणों के साथ का वियोग न हो। तात्पर्य यह है कि जिस मार्ग (आचरण) द्वारा आप पूर्ण सुखी हुए हैं, मैं भी वही प्राप्त करूँ। हे देव! आपके गुणों का तो कोई अन्त नहीं है और संसार से पार उतारने का तो मानो आपका विरद ही है।
आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय।
मैं रहूँ आप में आप लीन, सो करो होऊँ ज्यों निजाधीन॥(14)
अर्थ: आत्मा का अहित करने वाली पाँचों इन्द्रियों के विषयों में लीनता और कषायें हैं। हे प्रभो! मैं चाहता हूँ कि इनकी ओर मेरा झुकाव न हो। मैं तो अपने में ही लीन रहूँ , जिससे मैं पूर्ण स्वाधीन हो जाऊँ |
मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय-निधि दीजे मुनीश।
मुझ कारज के कारन सु आप, शिव करहु-हरहु मम मोह ताप॥(15)
अर्थ: मेरे हृदय में और कोई इच्छा नहीं है, बस एक रत्नत्रय निधि ही पाना चाहता हूँ। मेरे हित रूपी कार्य के निमित्त कारण आप ही हो। मेरा मोह-ताप नष्ट होकर कल्याण हो, यही भावना है।
शशि शांति करन तप हरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत।
पीवत पीयूष ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभवतैं भव नशाय॥(16)
अर्थ: जैसे चन्द्रमा स्वयमेव गर्मी कम करके शीतलता प्रदान करता है, उसी प्रकार आपकी स्तुति करने से स्वयमेव ही आनन्द प्राप्त होता है। जैसे अमृत के पीने से रोग चला जाता है, उसी प्रकार आपका अनुभव करने से संसार-रूपी रोग चला जाता है |
त्रिभुवन तिहुँकाल मँझार कोय, नहिं तुम बिन निज सुखदाय होय।
मो उर यह निश्चय भयो आज, दु:ख जलधि उतारन तुम जिहाज॥(17)
अर्थ: तीनों लोकों में और तीनों कालों में आपके समान सुखदायक ( सन्मार्गदर्शक) और कोई नहीं है। ऐसा आज मुझे निश्चय हो गया है कि आपही दुःख-रूपी समुद्र से पार उतारने वाले जहाज हो |
(दोहा)
तुम गुणगण-मणि गणपति, गणत न पावहिं पार।
‘दौल’ स्वल्प-मति किम कहै, नमहुँ त्रियोग सम्हार॥(18)
अर्थ: आपके गुणों-रूपी मणियों को गिनने में गणधर देव भी समर्थ नहीं हैं, तो फिर मैं (दौलतराम) अल्पबुद्धि उनका वर्णन किस प्रकार कर सकता हूँ। अंतः मैं आपको मन, वचन और काय को सँभाल कर बार-बार नमस्कार करता हूँ |
प्रश्न - उक्त स्तुति में से कोई से 2 छंद जो आपको रुचिकर लगे हों, लिखिये तथा रुचिकर होने का कारण भी बताइये।