1. ‘श्रोता’ का शब्दार्थ सुनने वाला है। अत: सामान्यत: सभी श्रोता हैं, परन्तु सच्चा श्रोता जिज्ञासा एवं विनय पूर्वक समझकर, स्व-पर के लिए हितरूप एवं प्रशंसनीय आचरण (दोषों के त्याग, गुणों के विकास) के लक्ष्य से सुनने वाला ही हो सकता है।
2. श्रोता के लक्षण का ज्ञान सच्चे श्रोता बनने के लिए है। दूसरों की निंदा या तिरस्कार करने के लिए नहीं।
3. संसार के संयोग अध्रुव एवं अशरण, परिग्रह बोझा और भोग रोग के समान संक्लेशता के निमित्त लगे हों और अपने दोषों को दूर कर,अपना हित करने की भावना जगी हो।
4. सर्व जीवों का प्रयोजन तो सुखी होना है,अतः सुख के मार्ग में प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्व का निर्णय करके, भेदज्ञान पूर्वक आत्मानुभव एवं आत्म साधना में बढ़ते जाना ही शास्त्राभ्यास एवं उपदेश श्रवण का प्रयोजन है। अतः श्रोता का लक्षण मात्र सुनना, याद कर लेना और दूसरों को सुना देना ही नहीं है।
अतः अपना स्वरूप, दुख और दुख के कारण, सुख और सुख के उपाय का निर्णय करने के लक्ष्य से, अंतरंग एवं बहिरंग उल्लास पूर्वक शास्त्र को वैसे ही सुनें, जैसे-पीड़ा को सहने में असमर्थ रोगी वैद्य की वार्ता को सुनता है।
5. समझ में न आने पर अति विनयवान होकर, उचित अवसर में प्रश्न करें।
6. अंतरंग में बारम्बार विचार एवं ऊहापोह करें।
7. समान बुद्धि वाले आत्मार्थी साधर्मीजनों से वात्सल्य पूर्ण व्यवहार करें।
8. स्वयं चारों अनुयोगों का यथायोग्य शास्त्राभ्यास करें।
9. निर्णय होने पर हेय के त्याग एवं उपादेय के ग्रहण का उद्यम करें।
10. अभिमान पूर्वक अपने विपरीत श्रद्धान, पक्ष, विषय या कषाय का पोषण न करें। अपनी भूल को सहजता से स्वीकार कर दूर करने का प्रयास करें।
11. कृतज्ञता एवं प्रसन्नता की अभिव्यक्ति भी करें।
12. रोगी, जैसे-पूर्ण स्वस्थ होने तक वैद्य की आज्ञा में प्रवर्तता है, अपनी सही स्थिति की जानकारी देते हुए चिकित्सा कराता है, वैसे ही पूर्ण वीतरागता होने तक निरन्तर तत्त्वाभ्यास एवं वैराग्य भावना आदि में उपयोग को लगावें।
13. गुरुजनों को अपने परिणामों की सही जानकारी देकर योग्य निर्देश प्राप्त करें।
14. पद्धतिबुद्धि से मात्र सुनते ही न रहें, जीवन को भी पवित्र एवं प्रशंसनीय बनायें । विनय, सेवा आदि में भी प्रमाद रहित एवं उदारता पूर्वक प्रवर्ते, जिससे गुरुजनों को शिक्षा देने में उत्साह रहे।
15. मात्र शब्दों को नहीं, अपितु कथन के अभिप्राय को ग्रहण करें।
16. प्रश्न भी इसप्रकार पूछे, जिससे वक्ता या सभा को विघ्न या क्षोभ न हो।
17. हठ और कुतर्क कदापि न करें। समझ में न आने पर भी सरलता पूर्वक विचार करें, खोज करें। आवेश में निषेध न करने लग जावें।
18. वक्ता के चूक जाने पर भी उसे योग्य रीति से संशोधित करें।
19. नवीन और अल्प अभ्यासी वक्ता से ऐसे प्रश्न न करें, जो उसे न आते हों।
20. सूक्ष्म बोध के अभिलाषी रहें। अध्यात्म रस के रसिक हों। आत्मानुभवमय वीतराग दशा को ही हितरूप समझें।
21. समय की नियमितता एवं अनुशासन का पालन करें।
22. दूसरों की निंदा, आत्म प्रशंसा या अन्य विकथा न करें।
23. बाह्य व्यवस्थाओं में अपने ही उदय का विचार कर समता रखें। अपनी आवश्यकतायें स्वयं पूरी करें।
24. शिविर या सभा का अनुशासन न बिगड़े। सकारात्मक एवं सहयोगात्मक शैली रखें।
25. लोकनिंद्य विचार, वचन और प्रवृत्ति को प्रयत्न पूर्वक छोड़ें।
26. खान-पान, वस्त्रादि, चेष्टाएं, व्यापार, लेन-देन, विनय, सेवा एवं अन्य समस्त क्रिया रूप समस्त व्यवहार सहज आगम के अनुकूल करें।