प्रवचनसार पद्यानुवाद । Pravachansar Padyanuvad

द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार

द्रव्य जीव अजीव हैं जिय चेतना उपयोगमय।
पुद्गलादी अचेतन हैं अतएव अजीव हैं ।।१२७।
आकाश में जो भाग पुद्गल जीव धर्म अधर्म से।
अरे काल से समृद्ध है वह लोक शेष अलोक है ।।१२८।।
जीव और पुद्गल माया इस लोक में परिणाम से ।
भेद से संघात से उत्पाद-व्यय-धृव भाव हो ।।१२९।
जिन चिह्नों से द्रव ज्ञात हों रे जीव और अजीव में ।
वे मूर्त और अमूर्त गुण हैं अतद्भावी द्रव्य से ।।१३०।।
इन्द्रियों से ग्राह्य बहुविधि मूत्र गुण पुद्गलमयी।
अमूर्त हैं जो द्रव्य उनके गुण अमूर्तिक जानना ।।१३१।।
सूक्ष्म से पृथ्वी तलक सब पुद्गलों में जो रहें ।
स्पर्श रस गंध वर्ण गुण अर शब्द सब पर्याय हैं ।।१३२।।
आकाश का अवगाह धर्माधर्म के गमनागमन ।
स्थानकारणता कहे ये सभी जिनवरदेव ने ।१३३।
उपयोग आतमराम का अर वर्तना गुण काल का ।
है अमूर्त द्रव्य गुणों का कथन यह संक्षेप में।१३४। युगलम् ।।
हैं बहुप्रदेशी जीव पुद्गल गगन धर्माधर्म सब।
है अप्रदेशी काल जिनवरदेव के हैं ये वचन ।।१३५।।
काल द्रव को छोड़कर अवशेष अस्तिकाय हैं।
बहुप्रदेशीपना ही है काय जानवर ने कहा ।।११।।*
गगन लोकालोक में अर लोक धर्माधर्म से।
है व्याप्त अर अवशेष दो से काल पुद्गल जीव हैं ।।१३६।।
जिसतरह परमाणु से है नाप गगन प्रदेश का ।
बस उसतरह ही शेष का परमाणु रहित प्रदेश से ।।१३७।।
पुद्गलाणु मंद गति से चले जितने काल में
अरे एक गगनप्रदेश पर परदेश विरहित काल वह ।?३८।।
परमाणु गगनप्रदेश लंघन करे जितने काल में ।
उत्पन्न-ध्वंसी समय परापर रहे वह भी काल है ।।१३९।।
अणु रहे जितने गगन में वह गगन ही परदेश है।
अरे उस परदेश में ही रह सकें परमाणु सब ।।१४०।।
एक दो या बहुत से परदेश असंख्य अनंत हैं।
काल के हैं समय अर अवशेष के परदेश हैं ।।१४१।।
इस समय में उत्पाद-व्यय यदि काल द्रव में प्राप्त हैं।
तो काल द्रव्यस्वभावथित ध्रुवभावमय ही क्यों न हो।।१४२।।
इक समय मे उत्पाद-व्यय-ध्रुव नाम के दो अर्थ हैं।
वे सदा हैं बस इसलिए कालाणु का सद्भाव है।।१४३।।
जिस अर्थ का इस लोक में ना एक ही परदेश हो।
वह शून्य ही है जगत में परदेश बिन न अर्थ हो ।।१४४।।

*आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ११