प्रवचनसार पद्यानुवाद । Pravachansar Padyanuvad

पंचरत्न अधिकार

अयथार्थग्राही तत्त्व के हों भले ही जिनमार्ग में।
कर्मफल से आभरित भवभ्रमे भावीकाल में ।।२७१।।
यथार्थग्राही तत्त्व के अर रहित अयथाचार से।
प्रशान्तात्मा श्रमण वे न भवभ्रमे चिरकाल तक।।२७२।।
यथार्थ जाने अर्थ दो विध परिग्रह को छोड़कर ।
ना विषय में आसक्त वे ही श्रमण वृद्ध कहे गये ।।२७३।।
है ज्ञान-दर्शन शुद्धता निज शुद्धता श्रामण्य है।
हो शुद्ध को निर्वाण शत-शत बार उनको नमन है॥२७४।।
जो श्रमण-श्रावक जानते जैन वचन के इस पार को।
वे प्राप्त करते शीघ्र ही निज आत्मा के सार को ।।२७५।।

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