समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(मालिनी)
इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके
स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम् ।
प्रकटित-परमार्थै-र्दर्शन-ज्ञानवृत्तैः
कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः ।।३१।।


श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार पूर्वोक्तरूप से भावकभाव और ज्ञेयभावों से भेदज्ञान होने पर जब [सर्वैः अन्यभावैः सह विवेके सति ] सर्व अन्यभावोंसे जब भिन्नता हुई तब [अयं उपयोगः ] यह उपयोग [स्वयं ] स्वयं ही [एकं आत्मानम् ] अपने एक आत्माको ही [बिभ्रत् ] धारण करता हुआ, [प्रकटितपरमार्थैः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः ] जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है ऐसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र से जिसने परिणति की है ऐसा [आत्म-आरामे एव प्रवृत्तः ] अपने आत्मारूपी बाग (क्रीड़ावन) में ही प्रवृत्ति करता है, अन्यत्र नहीं जाता ।

भावार्थ : — सर्व परद्रव्यों से तथा उनसे उत्पन्न हुए भावों से जब भेद जाना तब उपयोग को रमण के लिये अपना आत्मा ही रहा, अन्य ठिकाना नहीं रहा । इसप्रकार दर्शन-ज्ञान-चारित्र के साथ एकरूप हुआ वह आत्मा में ही रमण करता है ऐसा जानना ।३१।

(वसन्ततिलका)
मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका
आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः
आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण
प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः ।।३२।।

श्लोकार्थ : — [एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः ] यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम-तिरस्करिणीं भरेण आप्लाव्य ] विभ्रमरूपी आड़ी चादर को समूलतया डूबोकर (दूर करके) [प्रोन्मग्नः ] स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है; [अमी समस्ताः लोकाः ] इसलिये अब समस्त लोक [शान्तरसे ] उसके शान्त रस में [समम् एव ] एक साथ ही [निर्भरम् ] अत्यन्त [मज्जन्तु ] मग्न हो जाओ, कि जो शान्त रस [आलोकम् उच्छलति ] समस्त लोक पर्यन्त उछल रहा है।

भावार्थ : — जैसे समुद्र के आड़े कुछ आ जाये तो जल दिखाई नहीं देता और जब वह आड़ दूर हो जाती है तब जल प्रगट होता है; वह प्रगट होने पर, लोगों को प्रेरणा योग्य होता है कि ‘इस जल में सभी लोग स्नान करो’; इसीप्रकार यह आत्मा विभ्रम से आच्छादित था तब उसका स्वरूप दिखाई नहीं देता था; अब विभ्रम दूर हो जाने से यथास्वरूप (ज्यों का त्यों स्वरूप) प्रगट हो गया; इसलिए ‘अब उसके वीतराग विज्ञान रूप शान्तरस में एक ही साथ सर्व लोक मग्न होओ’ इसप्रकार आचार्यदेव ने प्रेरणा की है । अथवा इसका अर्थ यह भी है कि जब आत्माका अज्ञान दूर होता है तब केवलज्ञान प्रगट होता है और केवलज्ञान प्रगट होने पर समस्त लोकमें रहनेवाले पदार्थ एक ही समय ज्ञान में झलकते हैं उसे समस्त लोक देखो ।३२।

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