समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिव्याख्यासमुपेतः।

(अनुष्टुभ्)
नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते ।
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।।१।।

श्लोकार्थ : — [नमः समयसाराय ] ‘समय’ अर्थात् जीव नामक पदार्थ, उसमें सार—जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा, उसे मेरा नमस्कार हो । वह कैसा है ?[भावाय ] शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु है । इस विशेषणपद से सर्वथा अभाववादी नास्तिकों का मत खंडित हो गया । और वह कैसा है ? [चित्स्वभावाय ] जिसका स्वभाव चेतनागुणरूप है । इस विशेषणसे गुण-गुणीका सर्वथा भेद माननेवाले नैयायिकों का निषेध हो गया। और वह कैसा है? [स्वानुभूत्या चकासते ] अपनी ही अनुभवनरूप क्रिया से प्रकाश करता है, अर्थात् अपने को अपने से ही जानता है , प्रगट करता है - इस विशेषण से आत्मा को तथा ज्ञान को सर्वथा परोक्ष ही माननेवाले जैमिनीय – भट्ट – प्रभाकर के भेदवाले मीमांसकों के मत का खण्डन हो गया; तथा ज्ञान अन्यज्ञान से जाना जा सकता है- स्वयं अपने को नहीं जानता, ऐसा माननेवाले नैयायिकों का भी प्रतिषेध हो गया । और वह कैसा है? [सर्वभावान्तरच्छिदे ] अपने से अन्य सर्व जीवाजीव, चराचर पदार्थोंको सर्वक्षेत्र - काल सम्बन्धी, सर्व विशेषणों के साथ, एक ही समय में जाननेवाला है । इस विशेषण से सर्वज्ञ का अभाव माननेवाले मीमांसक आदि का निराकरण हो गया । इस प्रकारके विशेषणों (गुणों) से शुद्ध आत्मा को ही इष्टदेव सिद्ध करके (उसे) नमस्कार किया है ।
भावार्थ : — यहाँ मंगल के लिये शुद्ध आत्मा को नमस्कार किया है । यदि कोई यह प्रश्न करे कि किसी इष्टदेव का नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? तो उसका समाधान इस प्रकार है : — वास्तव में इष्टदेव का सामान्य स्वरूप सर्व कर्मरहित, सर्वज्ञ, वीतराग, शुद्ध आत्मा ही है, इसलिये इस अध्यात्मग्रन्थ में ‘समयसार’ कहने से इसमें इष्टदेव का समावेश हो गया । तथा एक ही नाम लेनेमें अन्यमतवादी मतपक्षका विवाद करते हैं उन सबका निराकरण, समयसार के विशेषणों से किया है । और अन्यवादीजन अपने इष्टदेवका नाम लेते हैं, उसमें इष्ट शब्द का अर्थ घटित नहीं होता, उसमें अनेक बाधाएँ आती हैं, और स्याद्वादी जैनों को तो सर्वज्ञ वीतरागी शुद्ध आत्मा ही इष्ट है; फिर चाहे भले ही उस इष्टदेव को परमात्मा कहो, परमज्योति कहो, परमेश्वर, परब्रह्म, शिव, निरंजन, निष्कलंक, अक्षय, अव्यय, शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी, अनुपम, अच्छेद्य, अभेद्य, परमपुरुष, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा, चिदानंद, सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हत्, जिन, आप्त, भगवान, समयसार - इत्यादि हजारो नामों से कहो; वे सब नाम कथंचित् सत्यार्थ हैं । सर्वथा एकान्तवादियों को भिन्न नामों में विरोध है, स्याद्वादी को कोई विरोध नहीं है । इसलिये अर्थ को यथार्थ समझना चाहिए।

(अनुष्टुभ्)
अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः ।
अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।।२।।

श्लोकार्थ : — [अनेकान्तमयी मूर्तिः ] जिनमें अनेक अन्त (धर्म) हैं ऐसे जो ज्ञान तथा वचन उसमयी मूर्ति [नित्यम् एव ] सदा ही [प्रकाशताम् ] प्रकाशरूप हो । कैसी है वह मूर्ति ? [अनन्तधर्मणः प्रत्यगात्मनः तत्त्वं ] जो अनन्त धर्मोंवाला है और जो परद्रव्यों से तथा परद्रव्यों के गुण-पर्यायों से भिन्न एवं परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने विकारों से कथंचित् भिन्न एकाकार है ऐसे आत्मा के तत्त्व को अर्थात् असाधारण — सजातीय विजातीय द्रव्यों से विलक्षण — निजस्वरूप का, [पश्यन्ती ] वह मूर्ति अवलोकन करती है ।
भावार्थ : — यहाँ सरस्वती की मूर्ति को आशीर्वचनरूप से नमस्कार किया है । लौकिक में जो सरस्वती की मूर्ति प्रसिद्ध है वह यथार्थ नहीं है, इसलिये यहाँ उसका यथार्थ वर्णन किया है । सम्यक्ज्ञान ही सरस्वती की सत्यार्थ मूर्ति है । उसमें भी सम्पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है,जिसमें समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भासित होते हैं; वह अनन्त धर्म सहित आत्मतत्त्व को प्रत्यक्ष देखता है, इसलिये वह सरस्वतीकी मूर्ति है और उसीके अनुसार जो श्रुतज्ञान है वह आत्मतत्त्वको परोक्ष देखता है, इसलिये वह भी सरस्वती की मूर्ति है, और द्रव्यश्रुत वचनरूप है वह भी उसकी मूर्ति है, क्योंकि वह वचनों के द्वारा अनेक धर्मोवाले आत्मा को बतलाती है । इसप्रकार समस्त पदार्थोंके तत्त्व को बतानेवाली ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकांतमयी सरस्वती की मूर्ति है; इसीलिये सरस्वती के वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी इत्यादि बहुतसे नाम कहे जाते हैं । यह सरस्वतीके मूर्ति अनन्तधर्मोंको ‘स्यात्’ पद से एक धर्मी में अविरोधरूप से साधती है, इसलिये वह सत्यार्थ है । कितने ही अन्यवादीजन सरस्वती की मूर्ति को अन्यथा (प्रकारान्तर से) स्थापित करते हैं, किन्तु वह पदार्थ को सत्यार्थ कहनेवाली नहीं है । यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्मा को अनन्तधर्मोंवाला कहा है, सो उसमें वे अनन्त धर्म कौन कौनसे हैं ? उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि — वस्तुमें अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तिकत्व, अमूर्तिकत्व इत्यादि (धर्म) तो गुण हैं; और उन गुणों का तीनों कालो में समय-समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त हैं ; और वस्तुमें एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं । वे सामान्यरूप धर्म तो वचनगोचर हैं, किन्तु अन्य विशेषरूप अनन्त धर्म भी हैं जो कि वचन के विषय नहीं हैं, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं । आत्मा भी वस्तु है, इसलिये उसमें भी अपने अनन्त धर्म है। ।
आत्मा के अनन्तधर्मों में चेतनत्व असाधारण धर्म है वह अन्य अचेतन द्रव्यों में नहीं है।सजातीय जीवद्रव्य अनन्त हैं, उनमें भी यद्यपि चेतनत्व है तथापि सबका चेतनत्व निजस्वरूप से भिन्न-भिन्न कहा है; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य के प्रदेशभेद होने से वह किसी का किसीमें नहीं मिलता । वह चेतनत्व अपने अनन्त धर्मोंमें व्यापक है, इसलिये उसे आत्मा का तत्त्व कहा है । उसे यह सरस्वती की मूर्ति देखती है और दिखाती है । इसप्रकार इसके द्वारा सर्व प्राणियोंका कल्याण होता है, इसलिये ‘सदा प्रकाशरूप रहो’ इसप्रकार इसके प्रति आशीर्वादरूप वचन कहा ।।२।।

(मालिनी)

परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा-

दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः ।

मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते-

र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ।।३।।


श्लोकार्थ : — श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव कहते हैं कि [समयसार-व्याख्यया एव ] इस समयसार (शुद्धात्मा तथा ग्रन्थ) की व्याख्या (टीका) से ही [मम अनुभूतेः] मेरी अनुभूति की अर्थात् अनुभवनरूप परिणति की [परमविशुद्धिः ] परम विशुद्धि (समस्त रागादि विभाव परिणति रहित उत्कृष्ट निर्मलता) [भवतु ] हो । कैसी है यह मेरी परिणति ? [परपरिणतिहेतोः मोहनाम्नः अनुभावात् ] परपरिणतिका कारण जो मोह नामक कर्म है, उसके अनुभाव (उदयरूप विपाक) से [अविरतम्-अनुभाव्य-व्याप्ति-कल्माषितायाः ] जो अनुभाव्य (रागादि परिणामों) की व्याप्ति है, उससे निरन्तर कल्माषित अर्थात् मैली है । और मैं कैसा हूँ ? [शुद्ध-चिन्मात्रमूर्तेः ] द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ ।
भावार्थ : — आचार्यदेव कहते हैं कि शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से तो मैं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ , किन्तु मेरी परिणति मोहकर्म के उदय का निमित्त पा करके मैली है — रागादिस्वरूप हो रही है । इसलिये शुद्ध आत्मा की कथनीरूप इस समयसार ग्रंथ की टीका करने का फल यह चाहता हूँ कि मेरी परिणति रागादि रहित शुद्ध हो, मेरे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति हो । मैं दूसरा कुछ भी — ख्याति, लाभ, पूजादिक — नहीं चाहता । इसप्रकार आचार्य ने टीका करने की प्रतिज्ञागर्भित उसके फल की प्रार्थना की है ।।३।।

(मालिनी)

उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके

जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ।

सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै-

रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।।४।।

श्लोकार्थ : — [उभय-नय विरोध-ध्वंसिनि ] निश्चय और व्यवहार — इन दो नयों के विषय के भेदसे परस्पर विरोध है; उस विरोधका नाश करनेवाला [स्यात् पद-अंके] ‘स्यात्’-पद से चिह्नित जो [जिनवचसि ] जिन भगवानका वचन (वाणी) है, उसमें [ये रमन्ते ] जो पुरुष रमते हैं ( - प्रचुर प्रीति सहित अभ्यास करते हैं) [ते ] वे [स्वयं ] अपने आप ही (अन्य कारण के बिना) [वान्त मोहाः ] मिथ्यात्वकर्म के उदयका वमन करके [उच्चैः परं ज्योतिः समयसारं ] इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्मा को [सपदि ईक्षन्ते एव ] तत्काल ही देखते हैं । वह समयसाररूप शुद्ध आत्मा [अनवम् ] नवीन उत्पन्न नहीं हुआ, किन्तु पहले कर्मों से आच्छादित था सो वह प्रगट व्यक्ति रूप हो गया है । और वह [अनय-पक्ष-अक्षुण्णम् ] सर्वथा एकान्तरूप कुनय के पक्ष से खण्डित नहीं होता, निर्बाध है ।
भावार्थ : — जिनवचन (जिनवाणी) स्याद्वादरूप है । जहां दो नयोंके विषयका विरोध है — जैसे कि : जो सत्रूप होता है वह असत्रूप नहीं होता है, जो एक होता है वह अनेक नहीं होता, जो नित्य होता है वह अनित्य नहीं होता, जो भेदरूप होता है वह अभेदरूप नहीं होता, जो शुद्ध होता है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयोंके विषयमें विरोध है — वहाँ जिनवचन कथंचित् विवक्षासे सत्-असत्रूप, एक-अनेकरूप, नित्य-अनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप जिस प्रकार विद्यमान वस्तु है उसी प्रकार कहकर विरोध मिटा देता है, असत् कल्पना नहीं करता । वह जिनवचन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक — इन दोनों नयोंमें, प्रयोजनवश शुद्धद्रव्यार्थिक नयको मुख्य करके उसे निश्चय कहता है और अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिकनयको गौण कर उसे व्यवहार कहता है । — ऐसे जिनवचनमें जो पुरुष रमण करते हैं वे इस शुद्ध आत्माको यथार्थ प्राप्त कर लेते हैं; अन्य सर्वथा-एकान्तवादी सांख्यादिक उसे प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि वस्तु सर्वथा एकान्त पक्षका विषय नहीं है तथापि वे एक ही धर्मको ग्रहण करके वस्तुकी असत्य कल्पना करते हैं — जो असत्यार्थ है, बाधा सहित मिथ्या दृष्टि है ।४।

(मालिनी)

व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या-

मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः ।

तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं

परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् ।।५।।

श्लोकार्थ : — [व्यवहरण-नयः ] जो व्यवहारनय है वह [यद्यपि ] यद्यपि [इह प्राक्-पदव्यां ] इस पहली पदवी में (जब तक शुद्धस्वरूप की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक) [निहित-पदानां ] जिन्होंने अपना पैर रखा है ऐसे पुरुषोंको, [हन्त ] अरे रे ! [हस्तावलम्बः स्यात् ]हस्तावलम्बन तुल्य कहा है, [तद्-अपि ] तथापि [चित्-चमत्कार-मात्रं पर-विरहितं परमं अर्थं अन्तः पश्यतां ] जो पुरुष चैतन्य-चमत्कारमात्र, परद्रव्यभावों से रहित (शुद्धनय के विषयभूत) परम ‘अर्थ’ को अन्तरङ्ग में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं तथा उसरूप लीन होकर चारित्रभाव को प्राप्त होते हैं उन्हें [एषः ] यह व्यवहारनय [किञ्चित् न ] कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है ।
भावार्थ : — शुद्ध स्वरूप का ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण होने के बाद अशुद्धनय कुछ भी प्रयोजनकारी नहीं है ।५।

(शार्दूलविक्रीडित)

एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः

पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ।

सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं

तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः ।।६।।

श्लोकार्थ : — [अस्य आत्मनः ] इस आत्मा को [यद् इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् दर्शनम् ] अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना (श्रद्धान करना) [एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम् ]- ही नियम से सम्यग्दर्शन है । यह आत्मा [व्याप्तुः ] अपने गुण-पर्यायों में व्याप्त (रहने वाला) है, और [शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य ] शुद्धनय से एकत्व में निश्चित किया गया है तथा [पूर्ण-ज्ञान-घनस्य ] पूर्ण ज्ञानघन है । [च ] एवं [तावान् अयं आत्मा ] जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही यह आत्मा है । [तत् ] इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हैं कि ‘‘[इमाम् नव-तत्त्व-सन्ततिं मुक्त्वा ] इस नवतत्त्वकी परिपाटी को छोड़कर, [अयम् आत्मा एकः अस्तु नः ] यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो’’ ।
भावार्थ : — सर्व स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुण-पर्यायभेदों में व्यापनेवाला यह आत्मा शुद्धनयसे एकत्वमें निश्चित किया गया है — शुद्धनयसे ज्ञायकमात्र एक-आकार दिखलाया गया है, उसे सर्व अन्यद्रव्यों और अन्यद्रव्यों के भावों से अलग देखना, श्रद्धान करना सो नियम से सम्यग्दर्शन है । व्यवहारनय आत्मा को अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शन को अनेक भेद-रूप कहता है, वहाँ व्यभिचार (दोष) आता है, नियम नहीं रहता । शुद्धनय की सीमा तक पहुँचने पर व्यभिचार नहीं रहता, इसलिए नियमरूप है , शुद्धनय के विषय भूत आत्मा पूर्ण ज्ञानघन है — सर्व लोकालोक को जानने वाले ज्ञानस्वरूप है । ऐसे आत्माका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन है । यह कहीं पृथक् पदार्थ नहीं है — आत्माका ही परिणाम है, इसलिये आत्मा ही है । अतः जो सम्यग्दर्शन है सो आत्मा है, अन्य नहीं ।

(अनुष्टुभ्)

अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् ।

नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुंचति ।।७।

श्लोकार्थ : — [अतः ] तत्पश्चात् [शुद्धनय-आयत्तं ] शुद्धनयके आधीन [प्रत्यग्-ज्योतिः ] जो भिन्न आत्मज्योति है [तत् ] वह [चकास्ति ] प्रगट होती है [यद् ] कि जो [नव-तत्त्व-गतत्वे अपि ] नवतत्त्वोंमें प्राप्त होने पर भी [एकत्वं ] अपने एकत्वको [न मुंचति ] नहीं छोड़ती ।
भावार्थ : — नवतत्त्वोंमें प्राप्त हुआ आत्मा अनेक रूप दिखाई देता है; यदि उसका भिन्न स्वरूप विचार किया जाये तो वह अपनी चैतन्यचमत्कारमात्र ज्योतिको नहीं छोड़ता ।७।

(मालिनी)
चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं
कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे ।
अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं
प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ।।८।।

श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार [चिरम्-नव-तत्त्व-च्छन्नम् इदम् आत्मज्योतिः ] नवतत्त्वों में बहुत समय से छिपी हुई यह आत्मज्योति [उन्नीयमानं ] शुद्धनयसे बाहर निकालकर प्रगट की गई है, [वर्णमाला-कलापे निमग्नं कनकम् इव ] जैसे वर्णो के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकालते हैं । [अथ ] इसलिए अब हे भव्य जीवों ! [सततविविक्तं ] इसे सदा अन्य द्रव्यों से तथा उनसे होनेवाले नैमित्तिक भावों से भिन्न, [एकरूपं ] एकरूप [दृश्यताम् ] देखो । [प्रतिपदम् उद्योतमानम् ] यह (ज्योति), पद पद पर अर्थात् प्रत्येक पर्याय में एकरूप चित्चमत्कारमात्र उद्योतमान है ।
भावार्थ : — यह आत्मा सर्व अवस्थाओं में विविधरूपसे दिखाई देता था, उसे शुद्धनयने एक चैतन्य-चमत्कार मात्र दिखाया है; इसलिये अब उसे सदा एकाकार ही अनुभव करो, पर्यायबुद्धि का एकान्त मत रखो — ऐसा श्री गुरुओं का उपदेश है ।८।

(मालिनी)
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं
क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम् ।
किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मि-
न्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ।।९।।

श्लोकार्थ : — आचार्य शुद्धनयका अनुभव करके कहते हैं कि — [अस्मिन् सर्वङ्कषे धाम्नि अनुभवम् उपयाते ] इन समस्त भेदों को गौण करनेवाला जो शुद्धनय के विषयभूत चैतन्य-चमत्कार मात्र तेजःपुञ्ज आत्मा है, उसका अनुभव होने पर [नयश्रीः न उदयति ] नयोंकी लक्ष्मी उदित नहीं होती, [प्रमाणं अस्तम् एति ] प्रमाण अस्त हो जाता है [अपि च ] और [निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः ] निक्षेपों का समूह कहां चाला जाता है सो हम नहीं जानते । [किम् अपरम् अभिदध्मः ] इससे अधिक क्या कहें ? [द्वैतम् एव न भाति ] द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता ।
भावार्थ : — भेदको अत्यन्त गौण करके कहा है कि — प्रमाण, नयादि भेद की तो बात ही क्या ? शुद्ध अनुभवके होनेपर द्वैत ही भासित नहीं होता, एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता है । यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदान्ती कहते हैं कि — अन्त में परमार्थरूप तो अद्वैतका ही अनुभव हुआ । यही हमारा मत है; इसमें आपने विशेष क्या कहा ? इसका उत्तर : — तुम्हारे मत में सर्वथा अद्वैत माना जाता है । यदि सर्वथा अद्वैत माना जाये तो बाह्य वस्तुका अभाव ही हो जाये, और ऐसा अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । हमारे मत में नयविवक्षा है जो कि बाह्य वस्तु का लोप नहीं करती । जब शुद्ध अनुभवसे विकल्प मिट जाता है तब आत्मा परमानन्दको प्राप्त होता है, इसलिये अनुभव कराने के लिए यह कहा है कि ‘‘शुद्ध अनुभव में द्वैत भासित नहीं होता’’ । यदि बाह्य वस्तुका लोप किया जाये तो आत्माका भी लोप हो जायेगा और शून्यवाद का प्रसङ्ग आयेगा । इसलिए जैसा तुम कहते हो उसप्रकार से वस्तुस्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती, और वस्तुस्वरूपकी यथार्थ श्रद्धाके बिना जो शुद्ध अनुभव किया जाता है वह भी मिथ्यारूप है; शून्य का प्रसङ्ग होने से तुम्हारा अनुभव भी आकाश-कुसुम के अनुभव के समान है ।९।

(उपजाति)

आत्मस्वभावं परभावभिन्न-
मापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम् ।
विलीनसंकल्पविकल्पजालं
प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ।।१०।।

श्लोकार्थ : — [शुद्धनयः आत्मस्वभावं प्रकाशयन् अभ्युदेति ] शुद्धनय आत्मस्वभाव को प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है । वह आत्मस्वभाव को [परभावभिन्नम् ] परद्रव्य, परद्रव्य के भाव तथा परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने विभाव — ऐसे परभावों से भिन्न प्रगट करता है । और वह, [आपूर्णम् ] आत्मस्वभाव सम्पूर्णरूप से पूर्ण है — समस्त लोकालोक का ज्ञाता है — ऐसा प्रगट करता है; (क्योंकि ज्ञान में भेद कर्मसंयोग से हैं, शुद्धनय में कर्म गौण हैं ) । और वह, [आदि-अन्त-विमुक्तम् ] आत्मस्वभाव को आदि-अन्त से रहित प्रगट करता है (अर्थात् किसी आदि से लेकर जो किसी से उत्पन्न नहीं किया गया, और कभी भी किसी से जिसका विनाश नही होता, ऐसे पारिणामिक भाव को वह प्रगट करता है) । और वह, [एकम् ] आत्मस्वभाव को एक — सर्व भेदभावों से (द्वैतभावोंसे) रहित एकाकार — प्रगट करता है, और [विलीनसंकल्प-विकल्प-जालं ] जिसमें समस्त संकल्प-विकल्प के समूह विलीन हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है । (द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्यों में अपनी कल्पना करना सो संकल्प है, और ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेद ज्ञात होना सो विकल्प है ।) ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है ।१०।
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