समयसार कलश l Samaysar Kalash (Sanskrit +Arth) with Audio

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(द्रुतविलम्बित)
तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो
द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् ।
ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं
स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ।।१००।।

श्लोकार्थ : — [अथ ] अब (कर्ता-कर्म अधिकार के पश्चात्), [शुभ-अशुभ-भेदतः ] शुभ और अशुभ के भेद से [द्वितयतां गतम् तत् कर्म ] द्वित्व को प्राप्त उस कर्म को [ऐक्यम् उपानयन् ]एक रूप करता हुआ, [ग्लपित-निर्भर-मोहरजा ] जिसने अत्यंत मोहरज को दूर कर दिया है ऐसा [अयं अवबोध-सुधाप्लवः ] यह (प्रत्यक्ष – अनुभवगोचर) ज्ञान सुधांशु (सम्यग्ज्ञानरूपी चन्द्रमा) [स्वयम् ] स्वयं [उदेति ] उदय को प्राप्त होता है ।

भावार्थ : -अज्ञान से एक ही कर्म दो प्रकार दिखाई देता था उसे सम्यक्ज्ञान ने एकप्रकार का बताया है । ज्ञान पर जो मोहरूप रज चढ़ी हुई थी उसे दूर कर देने से यथार्थ ज्ञान प्रगट हुआ है; जैसे बादल या कुहरे के पटल से चन्द्रमा का यथार्थ प्रकाशन नहीं होता, किन्तु आवरण के दूर होने पर वह यथार्थ प्रकाशमान होता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए ।१००।

अब पुण्य-पाप के स्वरूप का दृष्टान्त रूप काव्य कहते हैं :

(मन्दाक्रान्ता)
एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना-
दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव ।
द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः
शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण ।।१०१।

श्लोकार्थ : — (शूद्रा के पेट से एक ही साथ जन्म को प्राप्त दो पुत्रों में से एक ब्राह्मण के यहाँ और दूसरा शूद्रा के घर पला। उनमें से) [एक: ] एक तो [ब्राह्मणत्व-अभिमानात् ] ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ इसप्रकार ब्राह्मणत्व के अभिमान से [दूरात् ] दूर से ही [मदिरां ] मदिरा का [त्यजति ] त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता; तब [अन्यः ] दूसरा [अहम् स्वयम् शूद्रः इति ] ‘मैं स्वयं शूद्र हूँ’ यह मानकर [नित्यं ] नित्य [तया एव ] मदिरा से ही [स्नाति ] स्नान करता है अर्थात् उसे पवित्र मानता है । [एतौ द्वौ अपि ] यद्यपि वे दोनों [शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ ] शूद्रा के पेट से एक ही साथ उत्पन्न हुए हैं वे [साक्षात् शूद्रौ ] (परमार्थतः) दोनों साक्षात् शूद्र हैं, [अपि च ] तथापि [जातिभेदभ्रमेण ] जातिभेद के भ्रम सहित [चरतः ] प्रवृत्ति (आचरण) करते हैं । इसीप्रकार पुण्य और पाप के सम्बन्ध में समझना चाहिए।

भावार्थ : — पुण्य – पाप दोनों विभाव परिणति से उत्पन्न हुए हैं, इसलिये दोनों बन्धनरूप ही हैं । व्यवहारदृष्टि से भ्रमवश उनकी प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न भासित होने से, वे अच्छे और बूरे रूप से दो प्रकार दिखाई देते हैं। परमार्थदृष्टि तो उन्हें एकरूप ही, बन्धरूप ही, बुरा ही जानती है ।१०१।

(उपजाति)
हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां
सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः
तद्बन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं
स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः ।।१०२।।


श्लोकार्थ : - [हेतु-स्वभाव-अनुभव-आश्रयाणां ] हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय — इन चारों का [सदा अपि ] सदा ही [अभेदात् ] अभेद होने से [न हि क र्मभेदः ] कर्म में निश्चय से भेद नहीं है; [तद् समस्तं स्वयं ] इसलिये, समस्त कर्म स्वयं [खलु ] निश्चय से [बन्धमार्ग-आश्रितम् ] बंधमार्ग के आश्रित है और [बन्धहेतुः ] बंध का कारण है, अतः [एक म्इष्टं ] कर्म एक ही माना गया है — उसे एक ही मानना योग्य है ।१०२।

(स्वागता)
कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद्
बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात् ।
तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं
ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ।।१०३।।


श्लोकार्थ : — [यद् ] क्योंकि [सर्वविदः ] सर्वज्ञदेव [सर्वम् अपि कर्म ] समस्त(शुभाशुभ) कर्म को [अविशेषात् ] अविशेषतया [बन्धसाधनम् ] बंध का साधन (कारण) [उशन्ति ] क हते हैं, [तेन ] इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने) [सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं ] समस्त कर्म का निषेध किया है और [ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं ] ज्ञान को ही मोक्षका कारण कहा है ।१०३।

(शिखरिणी)
निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल
प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः ।
तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं
स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः ।।१०४।


जब कि समस्त कर्मों का निषेध कर दिया गया है तब फिर मुनियों को किसकी शरण रही सो अब कहते हैं : —

श्लोकार्थ :—[सुकृतदुरिते सर्वस्मिन् कर्मणि किल निषिद्धे] शुभ आचरणरूप कर्म और अशुभ आचरणरूप कर्म — ऐसे समस्त कर्म का निषेध कर देने पर और [नैष्कर्म्ये प्रवृत्ते] इसप्रकारनिष्कर्म (निवृत्ति) अवस्था प्रवर्तमान होने पर [मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति ] मुनिजन कहीं अशरण नहीं हैं; [तदा ] (क्योंकि) जब निष्कर्म अवस्था प्रवर्तमान होती है तब [ज्ञाने प्रतिचरितम् ज्ञानं हि ] ज्ञान में आचरण करता हुआ — रमण करता हुआ — परिणमन करता हुआ ज्ञान ही [एषां ] उन मुनियों को [शरणं ] शरण है; [एते ] वे [तत्र निरताः ] उस ज्ञान में लीन होते हुए [परमम् अमृतं ] परम अमृत का [स्वयं ] स्वयं [विन्दन्ति ] अनुभव करते हैं — स्वाद लेते हैं ।

भावार्थ : — किसी को यह शंका हो सकती है कि — जब सुकृत और दुष्कृत- दोनों का निषेध कर दिया गया है तब फिर मुनियों को कुछ भी करना शेष नहीं रहता, इसलिये वे किस के आश्रय से या किस आलम्बन के द्वारा मुनित्व का पालन कर सकेंगे ? आचार्यदेव ने उसके समाधानार्थ कहा है कि :— समस्त कर्म का त्याग हो जाने पर ज्ञान का महा शरण है । उस ज्ञान में लीन होने पर सर्व आकुलता से रहित परमानन्द का भोग होता है — जिसके स्वादको ज्ञानी ही जानता है ।अज्ञानी कषायी जीव कर्म को ही सर्वस्व जानकर उसमें लीन हो रहा है, ज्ञानानन्द के स्वाद को नहीं जानता ।१०४।

(शिखरिणी)
यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं
शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति ।
अतोऽन्यद्बन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत्
ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम् ।।१०५।।


श्लोकार्थ : - [यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति ] जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूप से और अचलरूप से ज्ञानस्वरूप होता हुआ — परिणमता हुआ भासित होता है [अयंशिवस्य हेतुः ] वही मोक्ष का हेतु है, [यतः] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि शिवः इति ] वह स्वयमेव मोक्ष स्वरूप है; [अतः अन्यत् ] उसके अतिरिक्त जो अन्य कुछ है [बन्धस्य] वह बन्ध का हेतु है, [यतः ] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि बन्धः इति ] वह स्वयमेव बन्धस्वरूप है । [ततः ] इसलिये [ज्ञानात्मत्वं भवनम् ] ज्ञानस्वरूप होने का ( – ज्ञानस्वरूप परिणमित होने का) अर्थात् [अनुभूतिः हि ] अनुभूति करने का ही [विहितम् ] आगम में विधान है।१०५।

(अनुष्टुभ्)
वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा ।
एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत् ।।१०६।।


श्लोकार्थ : — [एक द्रव्यस्वभावत्वात् ] ज्ञान द्रव्यस्वभावी ( – जीवस्वभावी – ) होने से [ज्ञानस्वभावेन] ज्ञान के स्वभाव से [सदा ] सदा [ज्ञानस्य भवनं वृत्तं ] ज्ञान का भवन बनता है;[तत् ] इसलिये [तद् एव मोक्षहेतुः ] ज्ञान ही मोक्ष का कारण है ।१०६।।

(अनुष्टुभ्)
वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि ।
द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ।।१०७।।


श्लोकार्थ : - [द्रव्यान्तरस्वभावत्वात् ] कर्म अन्यद्रव्यस्वभावी ( – पुद्गलस्वभावी – ) होने से [कर्मस्वभावेन ] कर्म के स्वभाव से [ज्ञानस्य भवनं न हि वृत्तं] ज्ञान का भवन नहीं बनता; [तत् ] इसलिये [कर्म मोक्षहेतुः न ] कर्म मोक्ष का कारण नहीं है ।१०७।

(अनुष्टुभ्)
मोक्षहेतुतिरोधानाद्बन्धत्वात्स्वयमेव च।
मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्तन्निषिध्यते ।।१०८।।


श्लोकार्थ : — [मोक्षहेतुतिरोधानात् ]कर्म मोक्ष के कारण का तिरोधान करनेवाला है, और [स्वयम् एव बन्धत्वात् ] वह स्वयं ही बन्धस्वरूप है [च ] तथा [मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात् ] वह मोक्ष के कारण का तिरोधायिभावस्वरूप (तिरोधानकर्ता) है, इसीलिये [तत् निषिध्यते ] उसका निषेध किया गया है ।१०८।

(शार्दूलविक्रीडित)
संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना
संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा ।
सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्-
नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ।।१०९।।


श्लोकार्थ : — [मोक्षार्थिना इदं समस्तम् अपि तत् कर्म एव संन्यस्तव्यम् ] मोक्षार्थी को यह समस्त ही कर्ममात्र त्याग करने योग्य है । [संन्यस्ते सति तत्र पुण्यस्य पापस्य वा किल का कथा ] जहाँ समस्त कर्म का त्याग किया जाता है फिर वहाँ पुण्य या पाप की क्या बात है ? (कर्ममात्र त्याज्य है तब फिर पुण्य अच्छा है और पाप बुरा — ऐसी बातको अवकाश ही कहाँ हैं ?कर्म सामान्य में दोनों आ गये हैं ।) [सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनात् मोक्षस्य हेतुः भवन् ] समस्त कर्म का त्याग होने पर, सम्यक्त्वादि अपने स्वभावरूप होने से — परिणमन करने से मोक्ष का कारणभूत होता हुआ, [नैष्कर्म्यप्रतिबद्धम् उद्धतरसं ] निष्कर्म अवस्था के साथ जिसका उद्धत ( – उत्कट) रसप्रतिबद्ध है ऐसा [ज्ञानं ] ज्ञान [स्वयं ] अपने आप [धावति ] दौड़ा चला आता है ।

भावार्थ : — कर्मको दूर करके, अपने सम्यक्त्वादि स्वभावरूप परिणमन करने से मोक्षका कारणरूप होने वाला ज्ञान अपने आप प्रगट होता है, तब फिर उसे कौन रोक सकता है ? ।।१०९।।

(शार्दूलविक्रीडित)
यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा
कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः।
किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तन्-
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः।।११०।।


अब आशंका उत्पन्न होती है कि — जब तक अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादि के कर्म का उदय रहता है तब तक ज्ञान मोक्ष का कारण कैसे हो सकता है ? और कर्म तथा ज्ञान दोनों ( – कर्म के निमित्त से होनेवाली शुभाशुभ परिणति तथा ज्ञान परिणति दोनों -) एक ही साथ कैसे रह सकते हैं?इसके समाधानार्थ काव्य कहते हैं -

श्लोकार्थ : — [यावत् ] जब तक [ज्ञानस्य क र्मविरतिः ] ज्ञान की कर्मविरति [सा सम्यक् पाकम् न उपैति ] भलिभाँति परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होती [तावत् ] तब तक [कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः, न काचित् क्षतिः ] कर्म और ज्ञान का एकत्रितपना शास्त्र में कहा है उसके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरोध नहीं है । [किन्तु] किन्तु [अत्र अपि ] यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि आत्मा में [अवशतः यत् कर्म समुल्लसति ] अवशपनें जो कर्म प्रगट होता है [तत् बन्धाय ] वह तो बंध का कारण है, और [मोक्षाय ] मोक्षका कारण तो, [एकम् एव परमं ज्ञानं स्थितम् ] जो एक परम ज्ञान है वह एक ही है — [स्वतः विमुक्तं ] जो कि स्वतःविमुक्त है (अर्थात् तीनों काल परद्रड्डव्य-भावोंसे भिन्न है) ।

भावार्थ : —जब तक यथाख्यात चारित्र नहीं होता तब तक सम्यग्दृष्टि के दो धाराएँ रहती हैं, — शुभाशुभ कर्मधारा और ज्ञानधारा । उन दोनों के एक साथ रहने में कोई भी विरोध नहीं है ।(जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान के परस्पर विरोध है वैसे कर्मसामान्य और ज्ञान के विरोध नहीं है ।) ऐसी स्थिति में कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है । जितने अंश में शुभाशुभ कर्मधारा है उतने अंश में कर्मबन्ध होता है और जितने अंश में ज्ञानधारा है उतने अंश में कर्म का नाश होता है । विषय-कषाय के विकल्प या व्रत-नियम के विकल्प — अथवा शुद्ध स्वरूप का विचार तक भी — कर्मबन्ध का कारण है; शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ही मोक्ष का कारण है ।११०।

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