जिनपूजन रहस्य | Jin Pujan Rahasya

सिद्धचक्र-मण्डल विधान : अनुशीलन

हिन्दी पूजन-भक्ति साहित्य में एक विधा मंडल पूजन-विधान की भी है। ये मंडल पूजन-विधान विशेष अवसरों पर विशेष आयोजनों के साथ किये जाते हैं। इस विधा के कवि संतलाल, टेकचन्द, स्वरूपचन्द, वृन्दावन आदि हैं।

पूजा-विधानों में सिद्धचक्रविधान का सर्वाधिक महत्त्व है; क्योंकि सिद्धचक्रविधान का प्रयोजन सिद्धों के गुणों का स्मरण करते हुए अपनी आत्मा को सिद्धदशा तक पहुँचाना होता है और आत्मा के लिए इससे उत्कृष्ट अन्य उद्देश्य नहीं हो सकता।

हिन्दी विधानों में सिद्धचक्रमंडल विधान के रचयिता कविवर संतलाल का नाम सर्वोपरि है; क्योंकि उनकी यह रचना साहित्यिक दृष्टि से तो उत्तम है ही, साथ ही भक्ति काव्य होते हुए भी आध्यात्मिक एवं तात्विक भावों से भरपूर है। एक-एक अर्घ्य के पद का अर्थगांभीर्य एवं विषयवस्तु विचारणीय है।
तत्त्वज्ञानपरक, जाग्रतविवेक, विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि एवं निष्काम भक्ति की त्रिवेणी जैसी इसमें प्रवाहित हुई है, वैसी अन्यत्र दिखाई नहीं देती। निश्चय ही हिन्दी विधान-पूजा साहित्य में कविवर संतलाल का उल्लेखनीय योगदान है।

इस विधान की आठों जयमालायें एक से बढ़कर एक हैं। सभी में सिद्धों का विविध आयामों से तत्त्वज्ञानपरक गुणगान किया गया है। इनमें न तो कहीं लौकिक कामनाओं की पूर्ति विषयक चाह ही प्रकट की गई है और न प्रलोभन ही दिया गया है।

पहली जयमाला में ही सिद्धभक्ति के माध्यम से गुणस्थान क्रम में संसारी से सिद्ध बनने की सम्पूर्ण प्रक्रिया अति संक्षेप में जिस खूबी से दर्शाई गई है, वह द्रष्टव्य है :

जय करण कृपाण सु प्रथम वार, मिथ्यात्व-सुभट कीनो प्रहार।
दृढ़ कोट विपर्ययमति उलंघि, पायो समकित थल थिर अभंग ।।१।।
निजपर विवेक अन्तर पुनीत, आतमरुचि वरती राजनीत ।
जगविभव विभाव असार एह, स्वातम सुखरस विपरीत देह ।।२।।
तिन नाशन लीनो दृढ़ संभार, शुद्धोपयोग चित्त चरण सार।
निर्ग्रन्थ कठिन मारग अनूप, हिंसादिक टारन सुलभ रूप ।।३।।
लखि मोह शत्रु परचण्ड जोर, तिस हनन शुकल दल ध्यान जोर।
आनन्द वीररस हिये छाय, क्षायिक श्रेणी आरम्भ थाय ।।४।।

सांगरूपक के रूप में इसमें जीवराजा और मोहराजा के मध्य हुए घमासान युद्ध का चित्रण किया गया है। सर्वप्रथम जीवरूप राजा अधःकरण, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण गुणस्थान रूप कृपाण से मिथ्यात्व रूप सुभट पर प्रहार करता है तथा विपरीत बुद्धिरूप ऊँचे कोट को लाँघकर सम्यग्दर्शन रूप सुखद, समतल स्थित भूमि पर अधिकार कर लेता है और आत्मरुचि एवं स्वपरभेदविज्ञान की सात्विक राजनीति आरम्भ हो जाती है तथा आत्मस्वभाव के विपरीत जगत के वैभव और विभावभावों के अभाव के लिए शुद्धोपयोग को दृढ़ता से धारण करता है।

अन्त में आनन्दरूप वीर रस से उत्साहित होकर जीवराजा ने मोहरूप राजा को सदा के लिए मृत्यु की गोद में सुला दिया और तेरहवें गुणस्थान की पावन भूमि में प्रवेश कर अनंत आनंद का अनुभव करते हुए अपनी सनातन रीति के अनुसार मोहराजा के उपकरणरूप शेष अघातिया कर्मों का भी अभाव करके अनंतकाल के लिए सिद्धपुर का अखण्ड साम्राज्य प्राप्त कर लिया।

इसप्रकार हम देखते हैं कि इस पूजन में तत्त्वज्ञान तो पद-पद में दर्शनीय है ही, भक्ति-भावना की भी कहीं कोई कमी नहीं है। तत्त्वज्ञान या अध्यात्म के कारण भक्ति रस के प्रवाह में कहीं कोई अवरोध या व्यवधान नहीं आने पाया है। इसप्रकार संत कवि कृत सिद्धचक्र मण्डल विधान पूजन-विधान साहित्य में अभूतपूर्व-अद्वितीय उपलब्धि है। इसको जितने अधिक ध्यान से पढ़ा व सुना जा सके, उतना ही अधिक लाभ होगा।

जैनदर्शन अकर्त्तावादी दर्शन है। इसके अनसार प्रत्येक आत्मा स्वभाव से स्वयं भगवान है और यदि जिनागम में बताये मार्ग पर चले, स्वयं को जाने, पहचाने और स्वयं में ही समा जाये तो प्रकट रूप से पर्याय में भी परमात्मा बन जाता है।

जैनदर्शन के अनुसार परमात्मा बनने की प्रक्रिया पूर्णतः स्वावलम्बन पर आधारित है। किसी की कृपा से दुःखों से मुक्ति संभव नहीं है; अतः जैनदर्शन का भक्ति साहित्य अन्य दर्शनों के समान कर्त्तावाद का पोषक नहीं हो सकता।

प्रायः देखा जाता है कि इस विधान को करनेवाले अधिकांश व्यक्ति अपने मन में व्यक्त या अव्यक्त रूप में कोई न कोई मनौती या लौकिक प्रयोजन की पूर्ति की भावना संजोये रहते हैं, जो कभी-कभी उनकी वाणी में भी व्यक्त हो जाती है।

वे कहते हैं - “जब हमारा बच्चा बीमार पड़ा था, बचने की आशा नहीं रही, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया तो हमने भगवान से मन ही मन यह प्रार्थना कीह्न हे प्रभु! यदि बच्चा अच्छा हो गया तो सिद्धचक्र मण्डल विधान रचायेंगे।"

“जब हमारे यहाँ आयकर वालों की रेड़ पड़ी (छापा पड़ा) और हमारा सारा सोना-चाँदी एवं जवाहरात जब्त हो गया, तब हमने यह संकल्प किया था कि यदि माल वापस मिल गया तो…”

“जब गुस्से में आकर हमारे बच्चे से गोली चल जाने से किसी की मौत हो गई और उससे फौजदारी का केस दायर हो गया. तब हमने यह भावना भायी कि हे भगवान! यदि बेटा बरी हो गया, हम केस जीत गये तो हम…।"

फिर उनमें से कोई कहेगा- “अरे भाई! सिद्धचक्र विधान में बड़ी सिद्धि है, हमारा बच्चा तो एकदम ठीक हो गया। ऑपरेशन में एक लाख रुपया लग गया तो क्या हुआ, पर भगवान की कृपा से वह बिलकुल ठीक है; अतः हमें विधान तो कराना ही है।"

दूसरा कहेगा - “हमने तो विधान में पैसा पानी की तरह बहाया, परन्तु क्या बतायें जब्त हुए माल का एक फुल्टा भी तो वापस नहीं मिला. उल्टा जुर्माना और भरना पड़ा। इस कारण अपनी तो भाई! अब पूजा-पाठ में कुछ श्रद्धा नहीं रही।”

तीसरा कहेगा - “भाई! विधान में पैसा तो हमने भी कम खर्च नहीं किया था, परन्तु हम तो यह समझते हैं कि जब अपना भाग्य खोटा हो तो बेचारे भगवान भी क्या कर सकते हैं? ह जैसी करनी, वैसी भरनी। फिर भी भाई! हमारा तो भगवान की दया से जो भी हुआ अच्छा ही हुआ। विधान न करते तो केस तो फाँसी का ही था, फाँसी से बच भी जाते तो जन्मभर की जेल तो होती ही, परन्तु विधान का ही प्रताप है कि तीन साल की सजा से पल्ला छुट गया। धन्य है भाई! भगवान की महिमा…।”

इसप्रकार जो सिद्धचक्र विधान हमें सिद्धचक्र में सम्मिलित करा सकता है, आत्मा के अनादिकालीन मिथ्यात्व, अज्ञान एवं कषायभावों के कोढ़ को कम कर सकता है, मिटा सकता है; हमने अपनी मान्यता में उसकी महिमा को मात्र शारीरिक रोग मिटाने या अपनी अत्यन्त तुच्छ-लौकिक विषय-कषाय जनित कामनाओं की पूर्ति करने तक ही सीमित कर दिया है तथा वीतराग भगवान को पर के सुख-दुःख का कर्ता-हर्ता मानकर अपने अज्ञान व मिथ्यात्व का ही पोषण किया है।

और मजे की बात तो यह है कि ह्र अपने इस अज्ञान के पोषण में प्रथमानुयोग की शैली में लिखी गई श्रीपाल-मैनासुन्दरी की पौराणिक कथा को निमित्त बनाया है। परमपवित्र उद्देश्य से लिखी गई उस धर्मकथा का प्रयोजन तो केवल अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि अव्युत्पन्न जीवों की पाप प्रवृत्ति को छुड़ाकर मोक्षमार्ग में लगाने का था, जिसे हमने मिथ्यात्व की पोषक बना दिया है। इससे ज्ञात होता है कि अज्ञानी शास्त्र को शस्त्र कैसे बना लेते हैं?
क्या उपर्युक्त विचार मिथ्यात्व व अज्ञान के पोषक नहीं हैं और क्या सिद्धचक्र विधान की महिमा को कम नहीं करते? अरे! सिद्धों की आराधना का सच्चा फल तो वीतरागता की वृद्धि है; क्योंकि वे स्वयं वीतराग हैं। सिद्धों का सच्चा भक्त उनकी पूजा-भक्ति के माध्यम से किसी भी लौकिक लाभ की चाह नहीं रखता; क्योंकि लौकिक लाभ की चाह तीव्रकषाय के बिना सम्भव नहीं है और ज्ञानी भक्त को तीव्रकषाय रूप पाप भाव नहीं होता।

मैना सुन्दरी ने सिद्धचक्र विधान किया था, किन्तु पति का कोढ़ मिटाने के लिए नहीं किया था; बल्कि पति का दुःख देखकर उसे जो आकुलता होती थी, उससे बचने के लिए एवं पति का उपयोग जो बारम्बार पीड़ा चिन्तन रूप आर्तध्यानमय होता था, उससे बचाने के लिए सिद्धचक्र का पाठ किया था; क्योंकि मैना सुन्दरी तत्त्वज्ञानी तो थी ही और अगले भव में मोक्षगामी भी थी। कोटिभट राजा श्रीपाल भी तत्त्वज्ञानी व तद्भव मोक्षगामी महापुरुष थे। क्या वे यह नहीं जानते थे कि वीतरागी सिद्ध भगवान किसी का कुछ भला-बुरा नहीं करते? फिर भी अपनी आकुलता रूप पाप भाव से बचने के लिए एवं समता भाव बनाये रखने के लिए इससे बढ़कर अन्य कोई उपाय नहीं है, अतः ज्ञानीजन भी यही सब करते हैं, पर कोई लौकिक सुख की कामना नहीं करते।

आगम में भी यही कहा है कि लौकिक अनुकूलताओं के लक्ष्य से वीतराग देव-गुरु-धर्म की आराधना से भी पापबन्ध ही होता है।

मोक्षमार्गप्रकाशक में पण्डित टोडरमलजी लिखते है -
“पुनश्च, इस (इन्द्रियजनित सुख की प्राप्ति एवं शारीरिक दुःख के विनाश रूप) प्रयोजन के हेतु अरहन्तादिक की भक्ति करने से भी तीव्र कषाय होने के कारण पापबन्ध ही होता है, इसलिए अपने को इस प्रयोजन का अर्थी होना योग्य नहीं है।”

अतः हमें वीतराग देव-गुरु-धर्म (शास्त्र) का सही स्वरूप समझकर एवं उनकी भले प्रकार से पहचान व प्रतीति करके सभी पूजन-विधान के माध्यम से एक वीतराग भावों का ही पोषण करना चाहिए।

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