जिनपूजन रहस्य | Jin Pujan Rahasya

पूजन के लिए प्रासुक अष्ट द्रव्य

पूजन के विविध आलम्बनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आलम्बन अष्ट द्रव्य माने जाते हैं। अष्ट द्रव्य चढ़ाने के सम्बन्ध में वर्तमान में स्पष्ट दो मत हैं। प्रथम पक्ष के अनुसार तो अचित्त प्रासुक द्रव्य ही पूजन के योग्य हैं । यह पक्ष सचित्त द्रव्य को हिंसामूलक होने से स्वीकार नहीं करता तथा दूसरा पक्ष पूजन सामग्री में सचित्त अर्थात् हरितकाय फल-फूल एवं पकवान व मिष्ठान्न को भी पूजन के अष्ट द्रव्य में सम्मिलित करता है।

इस सम्बन्ध में यदि हम अपना पक्षव्यामोह छोड़कर साम्यभाव से आगम का अध्ययन करें और उनकी नय विवक्षा को समझने का प्रयत्न करें तो हमें बहुत कुछ समाधान मिल सकता है।

पूजन के छन्दों के आधार पर जिन लोगों का यह आग्रह रहता है कि ह्र जब हम विविध फलों और पकवानों के नाम बोलते हैं तो फिर उन्हें ही क्यों न चढ़ाये? भले ही वे सचित्त हों, अशुद्ध हो।

उनसे हमारा अनुरोध है कि हमारी पूजा में आद्योपान्त एक वस्तु भी तो वास्तविक नहीं है। स्वयं हमारे पूज्य परमात्मा की स्थापना एक पाषाण की प्रतिमा में की गई है। देवकत दिव्य समवशरण की स्थापना सीमेंट. ईट-पत्थर के बने मन्दिर में की गई है। स्वयं पूजक भी असली इन्द्र कहाँ है? जब आद्योपान्त सभी में स्थापना निक्षेप से काम चलाया गया है तो अकेले अष्ट द्रव्य के सम्बन्ध में ही हिंसामूलक सचित्त मौलिक वस्तु काम में लेने का हठाग्रह क्यों?

सचित्त पूजा करनेवाले क्या कभी पूजा में उल्लिखित सामग्री के अनुसार पूरा निर्वाह कर पाते हैं? जरा विचार करें हपूजाओं के पदों में तो कंचन-झारी में क्षीरसागर का जल एवं रत्नदीप समर्पित करने की तथा नाना प्रकार के सरस व्यंजनों से पूजा करने की बात आती है; पर आज क्षीरसागर का जल तो क्या कुएँ का पानी कठिन हो रहा है और रत्नदीप तो हमने केवल पुस्तकों में ही देखे हैं। आखिर में जब सभी जगह कल्पना से ही काम चलाना पड़ता है, तब हम क्यों नहीं अहिंसामूलक शुद्ध वस्तु से ही काम चलायें? आगमानुसार भी पूजा में तो भावों की ही मुख्यता होती है, द्रव्य की नहीं । द्रव्य तो आलम्बन मात्र है। जैसे विशुद्ध परिणाम होंगे, फल तो वैसा ही मिलेगा।

कहा भी है -

"जीवन के परिणामन की अति विचित्रता देखहु प्राणी।
बन्ध-मोक्ष परिणामन ही तैं कहत सदा है जिनवाणी।।"

यद्यपि यह बात सच है कि पद्मपुराण, वसुनन्दि श्रावकाचार, सागार धर्मामृत, तिलोयपण्णत्ति और पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पाठों में सचित्त द्रव्यों द्वारा की गई पूजा की खूब खुलकर चर्चा है, परन्तु क्या कभी आपने यह देखने व समझने का भी प्रयास किया है कि ये पूजायें किसने, कब, कहाँ की और किन-किन द्रव्यों से की?

लगभग सभी चर्चायें इन्द्रध्वज, अष्टाह्निका, कल्पद्रुम, सदार्चन एवं चतुर्मुख पूजाओं से सम्बन्धित हैं, जो सर्वशक्तिसम्पन्न इन्द्रगण, देवगण, पुराणपुरुष, चक्रवर्ती एवं मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा दिव्य निर्जन्तुक सामग्री से की जाती हैं। हम सब स्वयं अकृत्रिम चैत्यालयों के अंत में अंचलिका के रूप में पढ़ते हैं -

“चहुविहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुफ्फेण दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण धूवेण, दिब्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेण णिचकालं अच्चन्ति पुज्जन्ति वन्दन्ति णमस्संति । अहमवि इह सन्तोतत्थ संताई णिच्चकालं अच्चमि पुज्जेमि वन्दामिणमस्सामि”
अर्थात् सभी सामग्री देवोपनीत कल्पवृक्षों से प्राप्त दिव्य प्रासुक निर्जन्तुक होती है।

इस सम्बन्ध में पण्डित सदासुखदासजी के निम्नांकित विचार दृष्टव्य हैं -
“इस कलिकाल में भगवान प्ररूप्या नयविभाग तो समझे नाहीं, अर शास्त्रनि में प्ररूपण किया तिस कथनी कूनयविभाग तैं जाने नाहीं, अर अपनी कल्पना तैं ही पक्षग्रहण करि यथेच्छ प्रवर्ते हैं।”

सचित्त द्रव्यों से पूजन करने का निषेध करते हुए वे आगे लिखते हैं -
“इस दुषमकाल में विकलत्रय जीवनि की उत्पत्ति बहुत है, अर पुष्पनि में बेंद्री, तेन्द्री, चौइन्द्री, पंचेन्द्री त्रस जीव प्रगट नेत्रनि के गोचर दौडते देखिये हैं… । अर पुष्पादि में त्रस जीव तो बहुत ही हैं। अर बादर निगोद जीव अनंत हैं… । तात ज्ञानी धर्म बुद्धि हैं ते तो समस्त कार्य यत्नाचार ते करो…।”

उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि आगम में सचित्त व अचित्त द्रव्य से पूजन का विधान है, वह कहाँ किस अपेक्षा है ह यह समझकर हमें अचित्त द्रव्य से ही पूजा करना चाहिए। पण्डित सदासुखदासजी के ही शब्दों में -

“जे सचित्त के दोष तैं भयभीत हैं, यत्नाचारी हैं, ते तो प्रासुक जल, गन्ध, अक्षत कू चन्दन कुमकुमादि तैं लिप्त करि, सुगन्ध रंगीन चावलों में पुष्पनि का संकल्प कर पुष्पनि तैं पू हैं तथा आगम में कहे सुवर्ण के पुष्प व रूपा के पुष्प तथा रत्नजटित सुवर्ण के पुष्प तथा लवंगादि अनेक मनोहर पुष्पनि करि पूजन करें हैं, बहुरि रत्ननि के दीपक व सुवर्ण रूपामय दीपकनि करि पूजन करें हैं तथा बादाम, जायफल, पूंगीफलादि विशुद्ध प्रासुक फलनि तैं पूजन करें हैं।"

यद्यपि पूजन में सर्वत्र भावों की ही प्रधानता है, तथापि अष्ट द्रव्य भी हमारे उपयोग की विशेष स्थिरता के लिए अवलम्बन के रूप में पूजन के आवश्यक अंग माने गये हैं। आगम में भी पूजन के अष्ट द्रव्यों का विधान है, किन्तु पूजन-सामग्री में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि ऐसी कोई वस्तु पूजन के अष्ट द्रव्य में सम्मिलित न हो, जो हिंसामूलक हो और जिसके कारण लोक की जगत की संचालन व्यवस्था में कोई बाधा या अवरोध उत्पन्न होता हो।

यही कारण है कि गेहूँ, चना, जौ आदि अनाजों को पूजन-सामग्री में सम्मिलित नहीं किया गया है क्योंकि वे बीज हैं, बोने पर उगते हैं। देश की आवश्यकता की पूर्ति के साथ-साथ समृद्धि के भी साधन हैं। इसी हेतु से दूध दही-घी आदि का भी अभिषेक, पूजन एवं हवन आदि में उपयोग नहीं होना चाहिए। तथा इसी कारण निष्तुष-निर्मल-शुभ्र तण्डुल और जल-चन्दन-नैवेद्य-दीप-धूपफल आदि प्राकृतिक व सूखे-पुराने प्रासुक पदार्थ ही पूजन के योग्य कहे गये हैं।

भले ही जल-चन्दन-नैवेद्य-दीप-धूप और फल आदि लौकिक दृष्टि से सोना-चाँदी एवं जवाहरात की भाँति बहुमूल्य नहीं हों, किन्तु जीवनोपयोगी होने से ये पदार्थ बहुमूल्य ही नहीं, बल्कि अमूल्य भी हैं। जल भले ही बिना मूल्य के मिल जाता हो, परन्तु जल के बिना जीवन संभव नहीं है, इसीकारण उसे जीवन भी कहा है। तथा चन्दन, अक्षत, दीप, धूप, पुष्प, फलादि सामग्री भले ही जल की भाँति जीवनोपयोगी न हो, तथापि “कर्पूरं घनसारं च हिमं सेवते पुण्यवान्" की उक्त्यनुसार इसका सेवन (उपभोग) पुण्यवानों को ही प्राप्त होता है। इसतरह यद्यपि ये पदार्थ भी सम्मानसूचक होने से पूजन के योग्य माने गये हैं, किन्तु अहिंसा की दृष्टि से इन सबका प्रासुक व निर्जन्तुक होना आवश्यक है।

जब हमारे यहाँ कोई विशिष्ट अतिथि (मेहमान) आते हैं तो हम उनके स्वागत में अपने घर में उपलब्ध उत्कृष्टतम पदार्थ उनकी सेवा में समर्पित करते हैं। स्वयं तो स्टील की थाली में भोजन करते हैं किन्तु उन्हें चाँदी की थाली में कराते हैं। स्वयं पुराने कम्बल-चादर ओढ़ते-बिछाते हैं और मेहमान के लिए नये-नये वस्त्र-बर्तन आदि काम में लेते हैं। उसी तरह जिनेन्द्र भगवान की पूजन के लिए आचार्यों ने उत्तमोत्तम बहुमूल्य जीवनोपयोगी और सम्मानसूचक पदार्थों को समर्पण करने की भावना प्रकट की है।

परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि जो-जो पदार्थ पूजनों में लिखे हैं. वे सभी पदार्थ उसी रूप में पूजन में अनिवार्य रूप से होने ही चाहिए। जिसके पास जो संभव हो, अपनी शक्ति और साधनों के अनुसार प्राप्त पूजन सामग्री द्वारा पूजन की जा सकती है। इतना अवश्य है कि वह पूजन सामग्री अचित्त, निर्जन्तुक-प्रासुकवपवित्र हो।।

मोक्षमार्गप्रकाशक में श्री टोडरमलजी ने भी यह लिखा है -
“केवली के व प्रतिमा के आगे अनुराग से उत्तम वस्तु रखने का दोष नहीं है। धर्मानुराग से जीवन का भला होता है।”

इसी अभिप्राय से आचार्यों ने अष्टद्रव्यों में उत्तमोत्तम कल्पनायें की हैं - मणिजड़ित सोने की झारी और उसमें क्षीरसागर या गंगा का निर्मल जल, रत्नजड़ित मणिदीप, उत्तमोत्तम पकवान एवं सुस्वाद सरस फल आदि।

यही कारण है कि अब तक उपलब्ध प्राचीन पूजन साहित्य में अधिकांशतः यही धारा प्राप्त होती है। सब कुछ बढ़िया होने पर भी इसमें कभी-कभी ऐसा लगने लगता है कि हम जिनेन्द्र देव के नहीं, उन्हें चढ़ाई जानेवाली सामग्री के गीत गा रहे हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि हम जल-फल आदि की प्रशंसा में इतने मग्न हो जाते हैं कि भगवान को भी भूल जाते हैं।

शायद हमारी इसी कमजोरी को ध्यान में रखकर आज जो नई आध्यात्मिक धारायें विकसित हो रहीं हैं, उनमें जल-फलादि सामग्री के गुणगान की अपेक्षा उनको प्रतीक बनाकर जिनेन्द्र भगवान के अधिक गुण गाये गये हैं तथा जीवनोपयोगी बहुमूल्य सुन्दरतम जलादि सामग्री की अनुशंसा की अपेक्षा सुख और शान्ति की प्राप्ति में उनकी निरर्थकता अधिक बताई गई है। इसी कारण उसके त्याग की भावना भी भायी गई है।

यह बात भी नहीं है कि यह धारा आधुनिक युग की ही देन हो । क्षीण रूप में ही सही, पर यह प्राचीन काल में भी प्रवाहित थी। इस युग में यह मूलधारा के रूप में चल रही है।

इसप्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान में हिन्दी पूजन साहित्य में मुख्यरूप से तीन धारायें प्रवाहित हो रही हैं -

  1. पहली तो चढ़ाये जानेवाले द्रव्य की विशेषताओं की निरूपक।
  2. दूसरी द्रव्यों के माध्यम से पूज्य परमात्मा के गुणानुवाद करने वाली।
  3. तीसरी लौकिक जीवनोपयोगी एवं सम्मानसूचक बहुमूल्य पदार्थों की आध्यात्मिक जीवन की समृद्धि में निरर्थकता बताकर उन्हें त्यागने की भावना व्यक्त करनेवाली।

प्रथम धारा की बात तो स्पष्ट हो ही चुकी। दूसरी धारा में कविवर द्यानतराय का निम्नांकित छन्द द्रष्टव्य है -

"उत्तम अक्षत जिनराज पुंज धरें सोहें।
सबजीते अक्षसमाज तुम-सम अरु को है।"

उक्त छन्द में अक्षतों (सफेद चावलों) के अवलम्बन से जिनराज को ही उत्तम अक्षत कहा गया है।
यहाँ कवि का कहना है कि - हे जिनराज! अनन्त गुणों के समूह (पुंज) से शोभायमान, कभी भी नाश को प्राप्त न होनेवाले अक्षय स्वरूप होने से आप ही वस्तुतः उत्तम अक्षत हो। आपने समस्त अक्षसमाज (इन्द्रिय समूह) को जीत लिया है; अतः हे जितेन्द्रिय जिन! आपके समान इस जगत में और कौनहो सकता है? सचमुच देखा जाये तो आप ही सच्चे अक्षत हो, अखण्ड व अविनाशी हो।

उक्त सन्दर्भ में निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं -

सचमुच तुम अक्षत हो प्रभुवर तुम ही अखण्ड अविनाशी हो।
प्रभुवर तुम जल-से शीतल हो, जल-से निर्मल अविकारी हो ।
मिथ्यामल धोने को प्रभुवर, तुम ही तो मल परिहारी हो।।

तीसरी धारा में आनेवाली सर्वस्व समर्पण की भावना से ओत-प्रोत निम्नांकित प्राचीन पूजन की पंक्तियाँ भी अपने आप में अद्भुत हैं -

यह अरघ कियो निज हेत, तुम को अरपत हों।
द्यानत कीनो शिवखेत, भूमि समरपत हों।

इस सन्दर्भ में आधुनिक पूजन की निम्न पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं -

बहुमूल्य जगत का वैभव यह, क्या हमको सुखी बना सकता।
अरे! पूर्णता पाने में, क्या इसकी है आवश्यकता ।।
मैं स्वयं पूर्ण हूँ अपने में, प्रभु है अनर्घ्य मेरी माया।
बहुमूल्य द्रव्यमय अर्घ्य लिये, अर्पण के हेतु चला आया।।

श्री जुगलकिशोरजी ‘युगल’ कृत देव-शास-गुरु-पूजन में यह भावना भी सशक्त रूप में व्यक्त हुई है -

अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु भूख न मेरी शांति हुई।
तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही।
युग-युग से इच्छा-सागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ।
पंचेन्द्रिय मन के षट्स तज, अनुपम रस पीने आया हूँ।
जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा।
झंझा के एक झकोरे में, जो बनता घोर तिमिर कारा ।।
अतएव प्रभो ! यह ज्ञान-प्रतीक, समर्पित करने आया हूँ।
तेरी अन्तर लौ से निज अन्तर दीप जलाने आया हूँ।।

(लेखक द्वारा उक्त छन्द में परिवर्तन कर निम्नप्रकार कर दिया गया है।
मेरे चैतन्य सदन में प्रभु! चिर व्याप्त भयंकर अँधियारा । श्रुत-दीप बुझा हे करुणानिधि! बीती नहि कष्टों की कारा ।।)

डॉ. भारिल्ल की पूजनों में यह ध्वनि लगभग सर्वत्र ही सुनाई देती है। सिद्ध पूजन के अर्घ्य के छन्द में यह बात सटीक रूप में व्यक्त हुई है -

जल पिया और चन्दन चरचा, मालायें सुरभित सुमनों की।
पहनीं, तन्दुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की।।
सुरभी धूपायन की फैली, शुभ कर्मों का सब फल पाया।
आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया ।।
जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ।
सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुआ।।
जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूँ आया।
होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।।

पूजन पढ़ते समय जब तक उसका भाव पूरी तरह ध्यान में न आये, तब तक उसमें जैसा मन लगना चाहिए, वैसा लगता नहीं है। इसके लिए आवश्यक यह है कि पूजन साहित्य सरल और सुबोध भाषा में लिखा जाये । यद्यपि प्राचीन पूजनें अपने युग की अत्यन्त सरल एवं सुबोध ही हैं, तथापि काल परिवर्तन के प्रवाह से उनकी भाषा वर्तमान युग के पाठकों को सहज ग्राह्य नहीं रही है। ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि अधिक से अधिक पूजनें आज की सरल-सुबोध भाषा में भी लिखी जायें और उनका भी प्रचार प्रसार हो; साथ ही यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि नये और सरल-सुबोध के व्यामोह में हम अपनी पुरातन निधि को भी न बिसर जायें। आवश्यकता समुचित सन्तुलन की है। न तो हम प्राचीनता के व्यामोह में विकास को अवरुद्ध करें और न ही सरलता के व्यामोह में पुरातन को विस्मृति के गर्त में डाल दें। नई पूजनें बनाने के व्यामोह में आगम-विरुद्ध रचना न हो जाये ह्र इसका भी ध्यान रखना अत्यावश्यक है।

प्राचीन इतिहास सुरक्षित रखने के साथ-साथ हर युग में नया इतिहास भी बनना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि भविष्य के लोग कहें कि इस युग में ऐसे भक्त ही नहीं थे, जो पूजनें लिखते । नवनिर्माण की दृष्टि से भी युग को समृद्ध होना चाहिए और प्राचीनता को संजोने में भी पीछे नहीं रहना चाहिए।
प्राचीन भक्ति साहित्य में समागत कुछ कथनों पर आज बहुत नाक-भौंह सिकोड़ी जाती है। कहा जाता है कि उस पर कर्तावाद का असर है। क्योंकि उसमें भगवान को दीन-दयाल, अधम-उधारक, पतित-पावन आदि कहा गया है। भगवान से पार लगाने की प्रार्थनायें भी कम नहीं की गई हैं; पर ये सब व्यवहार के कथन हैं। व्यवहार से इसप्रकार के कथन जिनागम में भी पाये जाते हैं; पर उन्हें औपचारिक कथन ही समझना चाहिए।

मूलाचार के पाँचवें अधिकार की १३७वें गाथा में ऐसे कथनों को असत्यमृषा भाषा के प्रभेदों में याचिनी भाषा बतलाया है। जिस भाषा के द्वारा किसी से याचना-प्रार्थना की जाती है। जोन सत्य हो और न झठ हो। पाँचवें अधिकार की १२९वीं गाथा के अर्थ में भाषा समिति के रूप में भी यही बताया है। इससे ये कथन निर्दोष ही सिद्ध होते हैं।

उक्त सन्दर्भ में पण्डित टोडरमलजी का निम्नांकित कथन भी द्रष्टव्य है -
"तथा उन अरहन्तों को स्वर्ग-मोक्षदाता, दीनदयाल, अधम-उधारक, पतित-पावन मानता है; उसीप्रकार यह भी कर्तृत्व बुद्धि से ईश्वर को मानता है। ऐसा नहीं जानता कि फल तो अपने परिणामों का लगता है. अरहन्त तो उनको निमित्तमात्र है; इसलिए उपचार द्वारा वे विशेषण सम्भव होते हैं।
अपने परिणाम शुद्ध हुए बिना अरहन्त ही स्वर्ग-मोक्षादि के दाता नहीं हैं। तथा अरहन्तादिक के नामादिक से श्वानादिक ने स्वर्ग प्राप्त किया, वहाँ नामादिक का ही अतिशय मानते हैं; परन्तु बिना परिणाम के नाम लेनेवाले को भी स्वर्ग प्राप्ति नहीं होती, तब सुननेवाले को कैसे होगी? श्वानादिक को नाम सुनने के निमित्त से कोई मन्दकषाय रूप भाव हुए हैं, उनका फल स्वर्ग हुआ; उपचार से नाम ही की मुख्यता की है।

तथा अरहन्तादिक के नाम-पूजनादि से अनिष्ट सामग्री का नाश तथा इष्ट सामग्री की प्राप्ति मानकर रोगादि मिटाने के अर्थ व धनादिक की प्राप्ति के अर्थ नाम लेता है व पूजनादि करता है। सो इष्ट-अनिष्ट का कारण तो पूर्व कर्म का उदय है, अरहन्त तो कर्ता हैं नहीं। अरहन्तादिक की भक्ति रूप शुभोपयोग परिणामों से पूर्व पाप के संक्रमणादि हो जाते हैं, इसलिए उपचार से अनिष्ट के नाश का व इष्ट की प्राप्ति का कारण अरहन्तादिक की भक्ति कही जाती है। परन्तु जो जीव प्रथम से ही सांसारिक प्रयोजन सहित भक्ति करता है, उसके तो पाप ही का अभिप्राय हुआ कांक्षा, विचिकित्सारूप भाव हुए; उनसे पूर्वपाप के संक्रमणादि कैसे होंगे? इसलिए उसका कार्य सिद्ध नहीं हुआ।

तथा कितने ही जीव भक्ति को मुक्ति का कारण जानकर वहाँ अति अनुरागी होकर प्रवर्तते हैं। वह तो अन्यमती जैसे भक्ति से मुक्ति मानते हैं, वैसा ही इनके भी श्रद्धान हुआ; परन्तु भक्ति तो रागरूप है और राग से बन्ध है, इसलिए मोक्ष का कारण नहीं है । जब राग का उदय आता है, तब भक्ति न करें तो पापानुराग हो, इसलिए अशुभ राग छोड़ने के लिए ज्ञानी भक्ति में प्रवर्तते हैं और मोक्षमार्ग का बाह्य निमित्त मात्र भी जानते हैं: परन्तु यहाँ ही उपादेयपना मानकर संतुष्ट नहीं होते, शुद्धोपयोग के उद्यमी रहते हैं।"

पुजारी को पूज्य के स्वरूप का भी सच्चा परिज्ञान होना चाहिए। जिसकी पूजा की जा रही है, उसके स्वरूप की सच्ची जानकारी हुए बिना भी पूजा और पुजारियों की भावना में अनेक विकृतियाँ पनपने लगती हैं।

प्रसन्नता की बात है कि आधुनिक युग में लिखी जानेवाली पूजनों में इस बात का भी ध्यान रखा जा रहा है। पूज्यों में मुख्यतः देव-शास-गुरु ही आते हैं। आधुनिक युग में लिखी गई देव-शास्त्र-गुरु पूजनों की जयमालाओं में उनकी भक्ति करते हुए उनके स्वरूप पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। गुरु के स्वरूप पर प्रकाश डालने वाली निम्नांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

हे गुरुवर! शाश्वत सुख-दर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है।
जग की नश्वरता का सच्चा दिग्दर्शन करने वाला है।।
अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विषकंटक बोता हो।।
हो अर्द्ध निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों।
तब शान्त निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिन्तन करते हो।।
करते तप शैल नदी तट पर, तरु तल वर्षा की झड़ियों में।
समता रस पान किया करते, सुख-दुःख दोनों की घड़ियों में।।
दिन-रात आत्मा का चिन्तन, मृदु सम्भाषण में वही कथन ।
निर्वस्त्र दिगम्बर काया से भी, प्रकट हो रहा अन्तर्मन ।।
निर्ग्रन्थ दिगम्बर सद्ज्ञानी, स्वातम में सदा विचरते जो।
ज्ञानी ध्यानी समरस सानी, द्वादश विधि तप नित करते जो।

सच्चे देव के स्वरूप को समझने में हमसे क्या भूल हो जाती है और उसका क्या परिणाम निकलता है? यह बात निम्नांकित पंक्तियों में कितनी सहजता से व्यक्त हो गई है -

करुणानिधि तुम को समझ नाथ, भगवान भरोसे पड़ा रहा।
भरपूर सुखी कर दोगे तुम, यह सोचे सन्मख खड़ा रहा।।
तुम वीतराग हो लीन स्वयं में, कभी न मैंने यह जाना।
तुम हो निरीह जग से कृत-कृत, इतना ना मैने पहचाना।।

इसीप्रकार शास्त्र के यथार्थस्वरूप को दर्शानेवाली निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं -

महिमा है अगम जिनागम की, महिमा है… ।।टेक ।।
जाहि सुनत जड़ भिन्न पिछानी, हम चिन्मूरति आतम की।
रागादिक दुःख कारन जानें, त्याग दीनि बुद्धि भ्रम की।
ज्ञान ज्योति जागी उर अन्तर, रुचि वाढ़ी पुनि शम-दम की।।
वीतरागता की पोषक ही जिनवाणी कहलाती है।
यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर जो हमको दिखलाती है।।
सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सुअंग ।
रवि-शशि न हरै सो तम हराय, सोशाख नमों बह प्रीति लाय।।

देखो, शाख का स्वरूप लिखते हुए सभी कवियों ने इसी बात पर ही जोर दिया है कि जिनवाणी रूपी गंगा वह है जो ह्र अनेकान्तमय वस्तुस्वरूप को दर्शानेवाली हो, भेदविज्ञान प्रकट करनेवाली हो. मिथ्यात्वरूप महातम का विनाश करनेवाली हो, विविध नयों की कल्लोलों से विमल हो, स्याद्वादमय व सप्तभंग से सहित हो और वीतरागता की पोषक हो। जो राग-द्वेष को बढ़ाने में निमित्त बने, वह वीतराग वाणी नहीं हो सकती।

जिनवाणी की परीक्षा उपर्युक्त लक्षणों से ही होनी चाहिए। किसी स्थान विशेष से प्रकाशित होने से उसमें भक्ति या अभक्ति प्रकट करना या सच्चेझूठे का निर्णय करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।

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