जिनपूजन रहस्य | Jin Pujan Rahasya

व्यवहारपूजा : भेद-प्रभेद

द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव; पूज्य, पूजक, पूजा; नाम, स्थापना आदि तथा इन्द्र, चक्रवर्ती आदि द्वारा की जानेवाली पूजा की अपेक्षा व्यवहार पूजन के अनेक भेद-प्रभेद हैं।

पूजा को द्रव्यपूजा और भावपूजा में विभाजित करते हुए आचार्य अमितगति उपासकाचार में लिखते हैं -

वचो विग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते।
तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनैः ।।

वचन और काय को अन्य व्यापारों से हटाकर स्तुत्य (उपास्य) के प्रति एकाग्र करने को द्रव्यपूजा कहते हैं और मन की नाना प्रकार से विकल्पजनित व्यग्रता को दूर करके उसे ध्यान तथा गुण-चिन्तनादि द्वारा स्तुत्य में लीन करने को भावपूजा कहते हैं।

आचार्य अमितगति ने अमितगति श्रावकाचार में एवं आचार्य वसुनन्दि ने वसुनन्दि श्रावकाचार में द्रव्यपूजा के निम्नांकित तीन भेद किये हैं -
(१) सचित्त पूजा (२) अचित्त पूजा (३) मिश्र पूजा ।

  1. सचित्त पूजा - प्रत्यक्ष उपस्थित समवशरण में विराजमान जिनेन्द्र भगवान और निर्ग्रन्थ गुरु का यथायोग्य पूजन करना सचित्त द्रव्यपूजा है।
  2. अचित्त पूजा - तीर्थंकर के शरीर (प्रतिमा) की और द्रव्यश्रुत (लिपिबद्ध शास्त्र) की पूजन करना अचित्त द्रव्यपूजा है।
  3. मिश्र पूजा - उपर्युक्त दोनों प्रकार की पूजा मिश्र द्रव्यपूजा है।

सचित्त फलादि से पूजन करनेवालों को उपर्युक्त कथन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इसमें अत्यन्त स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सचित्तता सामग्री की नहीं, आराध्य की होना चाहिए। सचित्त माने साक्षात् सशरीर जिनेन्द्र भगवान और अचित्त माने उनकी प्रतिमा ।

महापुराण में द्रव्यपूजा के पाँच प्रकार बताये हैं -
१. सदार्चन (नित्यमह) २. चतुर्मुख ३. कल्पद्रुम ४. आष्टाह्निक ५. ऐन्द्रध्वज।

  1. सदार्चन पूजा - इसे नित्यमह तथा नित्यनियम पूजा भी कहते हैं। यह चार प्रकार से की जाती है।
    (अ) अपने घर से अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालय में जिनेन्द्रदेव की पूजा करना।
    (आ) जिन प्रतिमा एवं जिन मन्दिर का निर्माण करना।
    (इ) दानपत्र लिखकर ग्राम-खेत आदि का दान देना।
    (ई) मुनिराजों को आहार दान देना।
  2. चतुर्मुख (सर्वतोभद्र) पूजा – मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा महापूजा करना।
  3. कल्पद्रुम पूजा - चक्रवर्ती राजा द्वारा किमिच्छिक दान देने के साथ जिनेन्द्र भगवान का पूजोत्सव करना।
  4. आष्टाह्निक पूजा - आष्टाह्निक पर्व में सर्व साधारण के द्वारा पूजा का आयोजन करना।
  5. ऐन्द्रध्वज पूजा - यह पूजा इन्द्रों द्वारा की जाती है।
    उपर्युक्त पाँच प्रकार की पूजनों में हम लोग सामान्यजन प्रतिदिन केवल सदार्चन (नित्यमह) का ‘अ’ भाग ही करते हैं। शेष पूजनें भी यथा-अवसर यथायोग्य व्यक्तियों द्वारा की जाती हैं।

वसुनन्दि श्रावकाचार में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के । भेद से द्रव्यपूजा के छह भेद कहे हैं -

  1. नाम पूजा - अरिहन्तादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्पक्षेपण किये जाते हैं, वह नाम पूजा है।
  2. स्थापना पूजा - यह दो प्रकार की है - सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना । आकारवान वस्तु में अरहन्तादि के गुणों का आरोपण करना सद्भाव स्थापना है तथा अक्षतादि में अपनी बुद्धि से वह परिकल्पना करना कि यह अमुक देवता है, असद्भाव स्थापना है। असद्भाव स्थापना मूर्ति की उपस्थिति में नहीं की जाती।
  3. द्रव्य पूजा - अरहन्तादि को गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना तथा उठकर खड़े होना, नमस्कार करना, तीन प्रदक्षिणा देना आदि शारीरिक क्रियाओं तथा वचनों से स्तवन करना द्रव्य पूजा है।
  4. भाव पूजा - परमभक्ति से अनन्त चतुष्टयादि गुणों के कीर्तन द्वारा त्रिकाल वन्दना करना निश्चय भावपूजा है। पंच नमस्कार मंत्र का जाप करना तथा जिनेन्द्र का स्तवन अर्थात् गुणस्मरण करना भी भाव पूजा है तथा पिण्डस्थ, पदस्थ आदि चार प्रकार के ध्यान को भी भाव पूजा कहा गया है।
  5. क्षेत्र पूजा - तीर्थंकरों की पंचकल्याणक भूमि में स्थित तीर्थक्षेत्रों की पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना क्षेत्र पूजा है।
  6. काल पूजा - तीर्थंकरों की पंचकल्याणक तिथियों के अनुसार पूजन करना तथा पर्व के दिनों में विशेष पूजायें करना काल पूजा है।

जिनपूजा में अन्तरंग भावों की ही प्रधानता है; क्योंकि वीतरागी होने से भगवान को तो पूजन से कोई प्रयोजन ही नहीं है | पूजक के जैसे परिणाम होंगे, तदनुसार ही उसे फल प्राप्ति होगी |

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