जिनपूजन रहस्य | Jin Pujan Rahasya

निश्चयपूजा

निश्चयनय से तो पूज्य-पूजक में कोई भेद ही दिखाई नहीं देता । अतः इस दृष्टि से तो पूजा का व्यवहार ही संभव नहीं है। निश्चयपूजा के सम्बन्ध में आचार्यों ने जो मंतव्य प्रकट किये हैं, उनमें कुछ प्रमुख आचार्यों के विचार द्रष्टव्य हैं -

आचार्य योगीन्दु देव लिखते हैं -
"मणु मिलिययु परमेसरहं परमेसरु वि मणस्स।
बीहि वि समरसि हूबाहूँ पूज्ज चढावहु कस्स ।
विकल्परूप मन भगवान आत्मा से मिल गया, तन्मय हो गया और परमेश्वरस्वरूप भगवान आत्मा भी मन से मिल गया। जब दोनों ही सम-रस हो गये तो अब कौन/किसकी पूजा करे? अर्थात् निश्चयदृष्टि से देखने पर पूज्य-पूजक का भेद ही दिखाई नहीं देता तो किसको अर्घ्य चढ़ाया जाये?"

इसीतरह आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं -
“यः परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः।
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः।।
स्वभाव से जो परमात्मा है, वही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ, वही परमात्मा है; इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपास्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं।"

इसी बात को कुन्दकुन्दाचार्य देव ने अभेदनय से इसप्रकार कहा है -
"अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेठी।
ते वि हु चिहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।
अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु - ये जो पंच परमेष्ठी हैं; वे आत्मा में ही चेष्टारूप हैं, आत्मा ही की अवस्थायें हैं; इसलिए मेरे आत्मा ही का मुझे शरण है।"

इसप्रकार यह स्पष्ट होता है कि अपने आत्मा में ही उपास्य-उपासक भाव घटित करना निश्चयपूजा है।

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