जिनपूजन रहस्य | Jin Pujan Rahasya

आरती का अर्थ

‘पूजन’ शब्द की भाँति ही ‘आरती’ शब्द का अर्थ भी आज बहुत संकुचित हो गया है। आरती को आज एक क्रिया विशेष से जोड़ दिया गया है, जबकि आरती पंचपरमेष्ठी के गुणगान को कहते हैं। जिनदेव का गुणगान करना ही जिनेन्द्र देव की वास्तविक आरती है।

पूजन साहित्य में ‘आरती’ शब्द जहाँ-जहाँ भी आया है, सभी जगह उसका अर्थ गुणगान करना ही है। इस संदर्भ में कुछ महत्त्वपूर्ण उद्धरण द्रष्टव्य है -

देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार ।
भिन्न-भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार ।।

देखिए! इस पद्य में देव-शास्त्र-गुरु को तीन रत्न कहा गया है तथा इन तीनों रत्नों को क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप तीनों रत्नों का कर्ता (निमित्त) कहा गया है। तथा ‘भिन्न-भिन्न कहुँ आरती’ कहकर तीनों का भिन्न-भिन्न गुणानुवाद करने का संकल्प किया गया है।

इसीप्रकार पंचमेरु पूजा, गुरु पूजा, दशलक्षणधर्म पूजा, क्षमावाणी पूजा, सिद्धचक्रमण्डल विधान आदि के निम्नांकित पदों से भी ‘आरती’ का अर्थ गुणगान करना ही सिद्ध होता है।

पंचमेरु की ‘आरती’, पढ़े सुनै जो कोय ।
‘द्यानत’ फल जानै प्रभु, तुरत महासुख होय ।।
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तीन घाटि नव कोड़ि सब, बन्दों शीश नवाय।
गुण तिन अट्ठाईस लों, कहूँ ‘आरती’ गाय ।।
दशलक्षण बंदौ सदा, मनवांछित फलदाय ।
कहों ‘आरती’ भारती, हम पर होहु सहाय ॥
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उनतिस अंग की आरती’, सुनो भविक चित लाय।
मन-वच-तन सरधा करो, उत्तम नरभव पाय ।।
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यह क्षमावाणी ‘आरती’, पढ़े-सुनै जो कोय ।
कहै ‘मल्ल’ सरधा करो, मुक्ति श्रीफल होय ।।
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जग आरत भारत महा, गारत करि जय पाय ।
विजय ‘आरती’ तिन कहूँ, पुरुषारथ गुण गाय ।।
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मंगलमय तुम हो सदा, श्री सन्मति सुखदाय।
चाँदनपुर महावीर की, कहूँ ‘आरती’ गाय ।।

इसप्रकार पूजन साहित्य में आये उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट है कि ‘आरती’ शब्द का अर्थ केवल स्तुति (गुणगान) करना है, अन्य कुछ नहीं । तथा उक्त सभी कथनों में ‘आरती’ को पढ़ने, सुनने या कहने की ही बात कही गई है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि ‘आरती’ पढ़ने, सुनने या कहने की ही वस्तु है, क्रियारूप में कुछ करने की वस्तु नहीं।

वैसे तो दीपक से आरती का दूर का भी सम्बन्ध नहीं है, परन्तु प्राचीनकाल में जिनालयों में न तो कोई बड़ी खिड़कियां होती थीं और न ऐसे रोशनदान ही, जिनसे पर्याप्त प्रकाश अन्दर आ सके। दरवाजे भी बहुत छोटे बनते थे तथा बिजली तो थी ही नहीं। इस कारण उन दिनों प्रकाश के लिए जिनालयों में दिन में भी दीपक जलाना अति आवश्यक था। तथा भले प्रकार दर्शन के लिए दीपक को हाथ में लेकर प्रतिमा के अंगोपांगों के निकट ले जाना भी जरूरी था क्योंकि दूर रखे दीपक के टिमटिमाते प्रकाश में प्रतिमा के दर्शन होना संभव नहीं था।

किन्तु आज जब जिनालयों में प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था है तो फिर दीपक की आवश्यकता नहीं रह जाती, तथापि या तो हमारी पुरानी आदत के कारण या फिर अनभिज्ञता के कारण आज अनावश्यक रूप से अखण्ड दीप जल रहा है तथा आरती का भी दीपक अभिन्न अंग बन बैठा है ह्र इस कारण अब बिना दीपक के आरती आरती-सी ही नहीं लगती।

अतः आज के संदर्भ में दीपक व आरती का यथार्थ अभिप्राय व प्रयोजन जानकर प्रचलित प्रथा को सही दिशा देने का प्रयास करना चाहिए।

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