जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


4. जिनमन्दिर व्यवहार :arrow_up:

1. देव दर्शन मात्र रूढ़ी से न करें। आत्महित की भावना पूर्वक यथाशक्ति योग्य विधि से करें।

2. यथासम्भव शरीर, वस्त्र, क्रिया एवं भाव की शुद्धि पूर्वक, योग्य द्रव्य लेकर, अति उल्लास से देव दर्शन के लिए आवें।

3. चप्पल, जूते आदि यथास्थान उतारें, बीच दरवाजे पर पैरपोश के ऊपर अथवा चाहे कहीं भी अव्यवस्थित तरीके से न उतारें । मोजे पहनकर मंदिरजी में प्रवेश न करें। पैर पोंछकर ही जावें, जिससे पैरों की गंदगी से मंदिर का फर्श गंदा न हो।

4. मंदिरजी के प्रांगण तक (विशेष रूप से जहाँ श्रीजी के दर्शन बाहर से ही हो रहे हो) वाहन आदि पर चढ़कर न जायें।

5. पहले से दर्शन, पूजन करते हुए अन्य भाई-बहिनों के आगे से न निकलें और न उनके आगे खड़े हों। सभी को बैठने या खड़े होने से पहले यह ध्यान रखना चाहिए कि पीछे से निकलने की जगह बनी रहे और आगे से न निकलना पड़े। आपने सुना होगा - पूजा लांघी नहीं जाती।

6. सामान्य वस्त्रों से गन्धकुटी में न जाएँ, वेदी पर न चढ़े एवं प्रतिमा का स्पर्श न करें।

7. चावलादि द्रव्य यत्नाचार से चढ़ायें, जिससे वे इधर-उधर न बिखरें और न पैरों से कुचलें तथा सूखी एवं धुली द्रव्य अलग-अलग नियत स्थान पर ही चढ़ायें।

8. यदि घर से स्नान करके आए हों तो पूजन की धोती-दुपट्टा पहनने से पहले भी हाथ-पैर धोकर गीले कपड़े से शरीर अवश्य पोंछे।

9. अशुद्ध वस्त्र पहनकर, धुली द्रव्य से, अष्ट द्रव्य की थाली लगाकर पूजा न करें एवं पूजन में दिनभर पहने जाने वाले वस्त्र धोकर भी न पहनें । (रेशमी या ऊनी वस्त्र धुला होने पर भी अशुद्ध ही होता है। इसीप्रकार स्नान करने में या दूषित श्रृंगार प्रसाधनों, जैसे-साबुन, तेल, पाउडर इत्यादि का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को भी अशुद्ध ही समझना चाहिए) पुजारी को विधि पूर्वक छने हुए अल्प जल से ही स्नान एवं पूजन के वस्त्र धोना चाहिए।

10. पूजन, पाठ, स्तुति आदि मध्यम स्वर से बोलें, जिससे दूसरों को अन्तराय न हो।

11. धोक देते समय जमीन पर हाथ न लगायें, यदि हाथ लग जायें तो हाथ धोकर ही प्रतिमाजी, जिनवाणी एवं अष्ट द्रव्य का स्पर्श करें।

12. परिक्रमा में अति जल्दी से न चलें । स्तुति-पाठ आदि बोलते हुए सावधानी से चलें।

13. महिलायें एवं बालिकायें गवासन से नमस्कार करें।

14. पूजन, स्वाध्याय आदि के बाद पूजन की पुस्तकों, ग्रन्थों, चौकी, आसन, माला आदि को स्वयं तो यथास्थान रखें ही, पहले से यदि अव्यवस्थित हों तो उन्हें भी व्यवस्थित कर दें।

15. दर्शन, पूजन के बाद स्वाध्याय अवश्य करें पत्र-पत्रिकायें भी बाद में अवश्य देख लें।

16. जिनवाणी के ऊपर पूजा की थाली, पेन, द्रव्य की डिब्बी आदि न रखें तथा छोटे आकार की जिनवाणी को भी ग्लास आदि ढंकने में प्रयोग न करें। जिनवाणी जमीन पर, पैरों पर न रखें, थूक लगाकर न खोलें, पृष्ठ न मोड़े एवं उससे हवा न करें।

17. मंदिरजी में पूजन और प्रवचन में कुर्सी आदि पर न बैठे। अति अशक्य अवस्था में शास्त्र की चौकी से नीचा स्टूल, पाटा आदि उपयोग करें।

18. मंदिरजी में दैनिक उपयोगी, नैमित्तिक उपयोगी, मासिक पत्र-पत्रिकाओं तथा दुर्लभ ग्रन्थों को यथास्थान अलग अलग विराजमान किए जाने की उचित व्यवस्था करें तथा दुर्लभ ग्रन्थों को सूचीबद्ध कर सुरक्षित रूप से उपयुक्त स्थान पर रखा जाये।

19. प्रतिदिन दर्शन, पूजन, स्वाध्याय के साथ ही साथ मंदिर एवं जिनवाणी की वैयावृत्ति (साफ सफाई, साज-सम्हाल, कवर चढ़ाना, धूप दिखाना आदि) हेतु भी कुछ समय अवश्य दें। यह भी एक प्रकार से पूजा ही है।

20. यदि प्रवचन, सामूहिक पूजन, भक्ति आदि हो रही हो तो घंटा न बजायें। यदि प्रवचन के समय पूजन कर रहे हों तो मंद स्वर में करें ।

21. पूजन के उपकरण, प्रक्षाल, पानी छानने एवं पोंछने के छन्ने, शास्त्र के वेष्ठन आदि साफ करते रहें। सामग्री शोधन, रखने एवं सफाई (पोंछा, जाले, धूल आदि) का ध्यान घर से भी अधिक रखें। इसमें महिलायें अपना दायित्व अधिक समझें।

22. बाहर से आये साधर्मीजनों के साथ यथायोग्य वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करें।

23. मंदिर में सामग्री, गंदगी या पानी फैला हो तो साफ करें या करा दे।

24. सिल्क (रेशम या कोशा) के काले, लाल या अति गहरे रंग के वस्त्र एवं जीन्स चमडे की बेल्ट आदि पहनकर मंदिर न आयें । सादा वस्त्र पहनकर विनय पूर्वक ही मंदिर में आयें।

25. दूषित सौन्दर्य प्रसाधन, अन्य हिंसा से उत्पन्न वस्तुओं एवं लाख की चूड़ियाँ आदि का प्रयोग न करें।

26. मंदिरजी का कोई भी उपकरण पुस्तक आदि बिना आज्ञा के घर न ले जायें।

27. मंदिरजी में पंखे का प्रयोग जहाँ तक संभव हो न करें। यदि करें तो उनमें जाली अवश्य लगवाई जाये।

28. नल, बिजली, पंखे आदि व्यर्थ चल रहे हो तो अवश्य बन्द कर दें।

29. जीव दया का विचार कर, मंदिर में अनावश्यक रोशनी धार्मिक आयोजनों एवं पर्व आदि के समय भी न करें।

30. मंदिरजी के कार्यों में तो यत्नाचार पूर्वक छने हुए जल का प्रयोग करें (हाथ-पैर आदि धोने में भी) मंदिरजी की बिछायत आदि सामग्री भी समय-समय पर यत्नाचार पूर्वक धुलवायें, परन्तु धोबी के यहाँ नहीं।

31. मंदिरजी में हिंसक सामग्री से उत्पन्न अशुद्ध वस्तुओं, जैसे सनमाइका, स्वर्ण वर्क, चाँदी वर्क, अगरबत्ती, सरेस तथा चिकना चमकदार कागज आदि (आमंत्रण पत्र-पत्रिकाओं में प्रयुक्त) का प्रयोग वर्जित किया जाए।

32. धार्मिक आमंत्रण पत्रिकाओं में मूल गाथाओं, मंत्रों, पंच परमेष्ठी आदि के चित्रों को ना छापा जाये। यदि हस्तलिखित पत्रिकाओं (पं. टोडरमलजी की भाँति) का प्रयोग हो तो अति उत्तम होगा। इन पत्रिकाओं एवं अन्य जीर्ण जिनवाणी के पत्रों को सम्हालकर व्यवस्थित रूप से रखें या उचित रीति से विसर्जित करें, जिससे जिनवाणी की अविनय न हो।

33. मंदिरजी के प्रांगण या तीर्थ आदि धार्मिक स्थानों का दुरुपयोग अपने विषय-कषाय पोषण, पिकनिक स्थल या खेल आदि के लिए न करें तथा फर्शादि भी लौकिक कार्यों में प्रयोग न करें।

34. यदि किसीप्रकार का निर्माण कार्य या व्यवस्था हो रही हो तो वेदी पर आवरण अवश्य डाल दें तथा बाद में आवश्यकता अनुसार हटा दें। कार्य पूरा होने के समय सामान बिखरा न छोड़े। दूसरे दिन आवश्यक होने पर पुनः ले लेवे।

35. मंदिरजी की चौकी, चटाई, फर्श, बर्तनादि कारीगरों को उनके कार्य हेतु न दें।

36. पानी एवं अन्य घोल खुले न छोड़े। दाग तुरन्त साफ कर दें।

37. मंदिर में लौकिक कार्य, वार्ताएं तो करें ही नहीं, बुद्धि पूर्वक लौकिक विचार भी न करें।

38. बच्चे यदि भाग-दौड़ रहे हों या शोर कर रहे हों तो उन्हें अवश्य रोकें एवं समझायें।

39. मंदिरजी में अपने बच्चों को खाने-पीने (बिस्कुट, टॉफी आदि) तथा खेलने की सामग्री आदि न दें। साथ ही उन्हें शुरू से ही समझाने का प्रयास करें कि मंदिरजी में क्या करना, क्या नहीं करना।

40. स्टीकर चाहे जहाँ अयोग्य स्थानों पर न लगायें।

41. मंदिरजी के फर्श लौकिक प्रयोजनों, जैसे-शादी आदि में प्रयोग न हों।

42. दो सप्ताह में एक बार पूजा के वस्त्रादि अच्छे से धोयें जायें। प्रतिदिन अच्छे से निचोड़ कर सल रहित, अच्छे से फटक कर, क्लिप लगाकर डाले जावें । छिद्र रहित पारदर्शी धोती-दुपट्टे का प्रयोग न करें। गर्मियों में भी पुरुषवर्ग वक्षस्थल खुला न रखें, दुपट्टा अवश्य ओढ़ें।

43. तीनों समय प्रवचन, कक्षायें, भक्ति आदि कार्यक्रम अवश्य एवं यथासमय चलायें।

44. जिनमंदिरजी एवं तीर्थों पर सुनियोजित हरियाली एवं लॉन न बनायें।

45. हीन आचरण वाले कर्मचारी न रखें जायें।

46. मंदिरजी की ध्वजा पुरानी या फटी न हो।

47. छत्र की लटकन मोती माला आदि अस्त-व्यस्त न हो। भामण्डल, छत्र, सिंहासन, श्रीजी अव्यवस्थित न हों।

48. वेदी में चूहे, छिपकली, जीवों का प्रवेश न हो, ऐसा प्रबंध हो। मंदिरजी में भी जालादि लगायें जिससे चिडियाँ, कबूतर, बंदर आदि आकर गंदगी न कर सकें।

49. फटी चटाईयाँ न हों । वेष्टन सुन्दर हो।

प्रक्षाल, अभिषेक-पूजा के समय ध्यान देने योग्य बातें

50. गैस सिलेण्डर को मंदिरजी हो या घर, अच्छी तरह माँज धोकर ही अंदर लायें।

51. प्रक्षाल-पूजा हेतु जल दिन निकलने के बाद ही भरा जाये। शुद्धि एवं सफाई हेतु पुजारी को विशेष रूप से प्रेरित करें।

52. प्रक्षाल हेतु मंदिरजी में ही स्नान करें। धोती-दुपट्टे शुद्ध साफ हों, फटे न हों, पारदर्शी न हों, बनियान व अन्डरवियर नई हो, वह मात्र प्रक्षाल के समय ही पहनें।

53. प्रक्षाल के वस्त्रों को पहनकर कुछ खायें-पियें नहीं और न ही लघुशंकादि करें।

54. प्रक्षाल करते समय घड़ी न पहिने । घड़ी कभी धुलती नहीं है; अत: अशुद्ध रहती है।

55. प्रक्षाल-पूजा के बर्तनों में स्टीकर या उसे चिपकाने वाला पदार्थ न लगा हो, उसे निकाल दें।

56. जमीन से छुए, पहिने हुए कपड़ों व अधोअंगो से छुये हाथ धोकर ही प्रक्षाल करें, श्रीजी को स्पर्श करें। हाथ नियत स्थान पर ही धोयें, जिससे गंदगी नहीं होगी।

57. प्रक्षाल हेतु श्रीजी को विराजमान करने की चौकी सादा लकड़ी, धातु या संगमरमर की हो। सनमाइका लगी, रंग पेंट पुती न हो। 58. प्रक्षाल का समय निश्चित हो, बार-बार जलधारा करना तीनलोक के नाथ का अनादर है।

59. प्रक्षालन इसप्रकार हो कि जल का एक अंश भी प्रतिमाजी पर न रहे।

60. प्रक्षाल करने के कपड़े मुलायम व साफ हों। पुराने, गंदे होने पर तुरन्त बदल दें। प्रक्षाल करते समय कपड़े बर्तन में रखें। बड़े घड़े से जल निकालने वाला बर्तन व कलश भी साफ थाली या प्लेट में रखें।

61. प्रक्षाल उपरांत प्रतिमाजी, सिंहासन, भामंडल, छत्रादि सावधानी पूर्वक सही तरह से व्यवस्थित करें। देख लें प्रतिमाजी व अन्य उपकरण आड़े-तिरछे न हों। काँच को साफ रखें।

62. श्रीजी की वेदी के अंदर, सामने प्रक्षाल के कपड़े सूखने न डालें और न ही जिनवाणी रखें, यह अशोभनीय है। अन्यत्र सुरक्षित स्थान पर व्यवस्था करें । प्लास्टिक की रस्सी और क्लिप का प्रयोग न करें।

63. जिनप्रतिमा स्पर्शित जल ‘गंधोदक’ पवित्र होता है, इसे जल से हाथ धोकर बीच की दो अंगुलियों से उत्तम अंग मस्तक पर ही धारण करें। यत्र-तत्र मलने से अविनय रूप महापाप ही होता है।

64. द्रव्य की थाली के साथ ही पूजन की पुस्तक को भी उच्च आसन पर विराजमान करें।

65. प्रायः देखा जाता है कि गीले हाथों से ही पूजन की पुस्तक उठा लेते है और गीली चौकी पर ही रख लेते हैं। सूखे कपड़े से हाथ और चौकी पोंछकर ही पुस्तक उठाइये, जिससे वह खराब न हो।

66. पूजा के उपरान्त देख लें, पुस्तक में कहीं चावल तो नहीं हैं; यदि जिनवाणी फटती है तो आपको तीव्र पाप बंध होता है। नैवेद्य आदि भी नीचे जमीन पर न गिरें, इससे चीटियों से बच सकते हैं।

67. बनियान, दुपट्टा अलग बर्तन में धोवें, जबकि अंडरवियर, धोती (अधोवस्त्र) धोने का बर्तन अलग से नियत हो। सामान्य वस्त्रों के साथ तो कदापि न धोयें। तेज वाशिंग पावडर, नील न लगावें।

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