जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


(19) संगति :arrow_up:

1. गति का अर्थ ज्ञान भी है। संगति के अनुसार प्रायः गुण दोष, बिना चाहे भी प्रवृत्ति में आ जाते हैं। अत: कुसंग के त्याग और सत्संग में रहने की प्रेरणा की जाती है।

2. मिथ्या श्रद्धान की प्रबलता वाले; चमत्कारादि में उलझे हुए; मिथ्या मंत्र तंत्रों में फंसे हुए; ज्ञान या क्रियादि एकान्त के पक्षपाती; तीव्र कषायों से युक्त; विषयों में आसक्त; जुआ, नशा, आदि व्यसनों में लीन; (भक्ष्य-अभक्ष्य, न्याय-अन्याय, धर्म-कुधर्म, योग्य-अयोग्य आदि के विवेक से रहित); रूढ़ियों में ग्रस्त; आचरण से भ्रष्ट; शील से रहित; रसनादि इन्द्रियों के लोलुपी; विश्वासघाती (मित्र, गुरु, धर्म, देश आदि के प्रति द्रोह करने वाले हिंसक, क्रूर परिणामी); अपयश आदि के भय रहित; निर्लज्ज, कलह प्रिय, पापों में ग्लानि रहित, कायर, स्वाभिमान से रहित; आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, धर्म-अधर्म की सत्ता को निषेधने वाले; धर्म-धर्मात्माओं की निंदा करने वाले अथवा दूसरों की निंदा करने वाले; अपनी मिथ्या प्रशंसा करने वाले तीव्रमानी; दूसरों के दुःख अपमान हानि आदि में हर्ष मानने वाले; दूसरों की उन्नति, वैभव, ज्ञान, पद, प्रतिष्ठा आदि से ईर्ष्या करने वाले; प्रमादी, स्वार्थी, संयम नियम में अत्यंत शिथिल - ऐसे जीवों की संगति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ऐसी संगति में स्वयं के दोषों का पोषण एवं गुणों की हानि होती है।

3. संगति योग्य : सम्यक् श्रद्धानी; विवेकवान, दयायुक्त, पापभीरु; यश की कामना से रहित, परन्तु अपयश के कारणों से विरक्त; सत्यवादी, शीलवान, संतोषी, ईमानदार, निष्पक्ष, न्यायवान; विषयों में अनासक्त या संतोषी, शांत स्वभावी, विनयवान, गंभीर, तीव्र क्रोधादि रहित; क्षमावान; ईर्ष्या, परनिन्दा एवं आत्म प्रशंसा से रहित; देव-गुरु-धर्म-शास्त्रादि के प्रति भक्तिवान; परोपकारी; किसी का अहित चिंतन भी न करने वाले; कोमलता पूर्वक हित-मित-प्रिय वचन बोलने वाले; लोकनिंद्य कार्यों से दूर रहने वाले; कष्टसहिष्णु, ज्ञानाभ्यासी, श्रेष्ठ आचरण वाले; अपने संयम नियम के प्रति दृढ़; गुणग्राही; दूसरों के गुणों एवं अच्छे कार्यों के प्रशंसक एवं अच्छे कार्यों में निस्पृहता पूर्वक सहयोग करने वाले - ऐसे जीव संगति योग्य हैं। ऐसे जीवों की संगति में हमारे दोष निकलते हैं और गुणों का विकास होता है।

4. संगति केवल संग रहने का नाम नहीं। जैसे-दूसरे जलते हुए दीपक का स्पर्श पाकर, दीपक स्वयं अपनी तैलयुक्त बत्ती से प्रकाशमय हो जाता है, वैसे ही ज्ञानी जीवों की संगति में पात्र जीव अपने विवेक, गुणग्राहकता, विनय एवं पुरुषार्थ से स्वयं के गुणों का विकास कर लेते हैं।

समझें -

सत्संगति
कुसंगति
1. कल्पवृक्ष समान है। विषवृक्ष समान है।
2. चंदन समान है। अंगारे समान है।
3. उत्तम वस्त्र जैसी है। जीर्ण वस्त्र जैसी है (यत्न करने पर भी फटने वाला)
4. निरन्तर सुखप्रद है। निरन्तर क्लेशकारी है।
5. उत्तरोत्तर वृद्धिंगत है। पतन का कारण, अन्त में कलह पूर्वक टूटने वाली है।
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