जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


18. विनय :arrow_up:

1. विनय, सही समझपूर्वक, उपकृत हृदय से, सहज वर्तनेवाला भाव है। विनय में भय और प्रदर्शन के लिए अवकाश नहीं है।

2. विनय उत्कृष्ट शिष्टाचार है।

3. विनय की प्रकृति पहिचान कर, अनुकूल प्रवर्तन (विचार, वचन एवं चेष्टा) करें।

4. मर्यादा एवं यश के प्रतिकूल कार्य न करना, विनय का पहला चरण है। अज्ञान,अभिमान और प्रमाद को छोड़कर विवेक एवं यत्नाचार पूर्वक उचित समय पर खड़े हों। सामने नीचे बायीं ओर बैठे-चलें । योग्य अभिवादन पूर्वक संतुलित चर्चा करें। ध्यान पूर्वक पूरी बात सुने एवं समझकर उचित प्रक्रिया करें।

5. चर्चा के प्रसंगों में स्वयं आगे-आगे और बीच-बीच में न बोलें। किसी बात या कार्य को छिपाने का प्रयास न करें।

6. बोलने की अपेक्षा सुनने में अधिक उत्साहित रहें। मात्र स्वार्थसिद्धि के लिए अतिरिक्त विनय का प्रदर्शन कदापि न करें।

7. मन में प्रमोदभाव, गुण एवं उपकार चिंतन पूर्वक ही यथायोग्य बाह्य विनय सम्भव है।

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