जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


14. सामाजिक व्यवहार :arrow_up:

1. अपने व्यापार को सीमित एवं नियमित रखें।

2. साधर्मीजनों के प्रति अत्यंत वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करें। बाहर से आये हुए साधर्मी को मात्र व्यवस्था से भार स्वरूप समझकर अपेक्षा से नहीं, अपितु अंतरंग हर्ष पूर्वक यथायोग्य भोजनादि करायें। शिष्टाचारपूर्ण व्यवहार करें। आने पर हर्ष प्रगट करें। उसके लौकिक कार्य में भी यथासंभव सहयोग करें। कोई कष्ट आ जाने पर समर्पण भाव से आत्मीयता पूर्ण वैयावृत्य करें। परस्पर तत्त्वचर्चा करके समय का सदुपयोग तो करें ही, स्वाध्यायादि की प्रेरणा यथासंभव स्वयं भी लें एवं उन्हें भी दें। यदि कोई विद्वानादि हो तो समय निकालकर जिसप्रकार उनकी व्यक्तिगत चर्या में विघ्न न हो, उसप्रकार यथासंभव अधिक से अधिक लाभ लें । जाने के प्रसंग पर व्यवस्था सहित प्रेम पूर्ण विदाई दें एवं पुनः पधारने का आग्रह करें। बच्चों को भी यथायोग्य सेवा आदि की प्रेरणा करें।

3. व्यवहार में पद की मर्यादा का ध्यान रखें, अनर्गल न बोलें । अहंकार पूर्ण चेष्टा न करें। व्यवस्थाओं में मात्र दूसरों पर निर्भर न रहें।

4. ऐसा कोई कार्य न करें जिससे लोगों को उपहास का अवसर मिले। जैसे-अधीन कर्मचारियों, पड़ोसियों से दुर्व्यवहार, अधिकार हनन या धरोहर हड़प करना, अनुचित ब्याजादि लेना। अत्यधिक हिंसापूर्ण, अन्याय, अनीतिपूर्ण व्यापार एवं व्यवहार करना आदि ।

5. शील मर्यादाओं का पालन करें।

6. पूर्ण निवृत्ति की भावना सहित यथासंभव निवृत्ति लेते जायें।

7. धर्मायतनों की व्यवस्थाओं में अधिकाधिक सहयोग करें।

8. आयोजनों एवं कार्यक्रमों में उपेक्षा पूर्ण भाव से मात्र (रेडीमेड) उपस्थिति ही न दें, अपितु समय से पूर्व आकर व्यवस्था देखें एवं पश्चात् भी थोड़ी देर रुककर व्यवस्था में सहयोग करें । तात्पर्य यह है कि वात्सल्य मात्र अंतरंग में ही न रहे, उसकी वचन एवं चेष्टाओं से अभिव्यक्ति भी आवश्यक है।

9. अपने से छोटों को ज्ञानदान दें, दिलावें, प्रोत्साहित करें, अनुमोदना करें आदि।

10. स्थानीय साधर्मीजन एवं विद्वानों को भी समय-समय पर भोजनादि के लिए आमंत्रित करें । बीमारी आदि प्रसंगों में उनकी यथायोग्य वैयावृत्ति एवं अन्य प्रकार से सहयोग करें। यदि आवश्यक हो तो आजीविका आदि में भी उनका सहयोग करें।

11. त्यागी एवं विद्वान, समाज के गौरव हैं एवं गुरुजन हमारे परिवार के आभूषण हैं, उनका योग्य सम्मान, सहयोग एवं सेवा करें।

12. परोपकार का प्रत्युपकार नहीं चाहें ।

13. किसी की आराधना एवं प्रभावना में बाधक नहीं हों।

14. सामर्थ्यानुसार आर्थिक एवं अन्य किसी प्रकार से असमर्थ व्यक्तियों का व्यक्तिगत निस्पृह भाव से सहयोग करें। समाजोत्थान हेतु ट्रस्ट, विद्यालय, औषधालय, वाचनालय अन्य लघु उद्योग केन्द्र आदि बनायें और ऐसी संस्थाओं में यथाशक्ति सहयोग करें।

15. परोपकार के प्रसंगों में यथाशक्ति और यथायोग्य प्रवर्ते ।

16. विषय-कषायों में लिप्त होकर आडम्बर एवं प्रदर्शनपूर्ण, विवेकशून्य रहन-सहन से अत्यंत दूर रहकर, अन्तरंग की विवेकमयी विशुद्धि को वृद्धिंगत करते हुए, आत्मार्थ की साधना एवं जिनधर्म की प्रभावना कर सार्थक सहज जीवन जियें।

1 Like