जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


13. पारस्परिक व्यवहार :arrow_up:

1. पद के योग्य आदर एवं स्नेहपूर्ण ही भावना रखें, वचन बोलें एवं चेष्टा करें।

2. चुगली, निन्दा, ईर्ष्यादि कदापि न करें। दूसरों के गुणों एवं अच्छे कार्यों की अनुमोदना तो करें ही, यथायोग्य सहयोग भी करें।

3. विपत्ति में सहयोगी बनें।

4. स्वयं का दोष होने पर विनय पूर्वक क्षमा माँगें और दूसरों के क्षमा माँगने के पहले ही, सहजभाव से क्षमा कर देवें।

5. कदाचित् कषायों का प्रसंग बन भी जावे तो उसे लम्बायें नहीं । समस्या का समाधान खोजें एवं करें, उसे उलझायें या टालें नहीं।

6. सही सलाह दें । छल न करें। आपस में फूट न डालें। चाहे किसी की बातों का विश्वास न करें।

7. उत्तेजित न होवें । उत्तेजना में निर्णय तो कदापि न लें।

8. अधिक से अधिक देने और कम से कम लेने का प्रयत्न करें।

9. महिलाओं में अत्यन्त सीमित एवं प्रमाणीक व्यवहार रखें। मित्रता एवं रिश्ते नाते होने पर भी उनमें निकटता या अमर्यादित व्यवहार न करें, जिससे संदिग्धता की स्थिति बने और अन्तर्कलह से भविष्य क्लेशमय हो जाये।

10. लेन-देन, आय-व्यय का हिसाब अत्यन्त स्पष्ट एवं सूक्ष्म रखें।

11. स्वार्थपूर्ण व्यवहार कदापि न करें।

12. कंजूसी न करें, उदारता रखें। जैसे-किसी कमजोर आर्थिक स्थिति वाले को एडवांस दे देवें, जिससे उसका काम चल जाए, बाद में ले लेवें। सब्जी बेचने वाला, रिक्शा चालक, मजदूर आदि के प्रति प्रसंगानुसार लेन-देन में उदारता वर्ते ।

13. उपकार का अवसर कदापि न चूकें। अपने प्रति किये गये उपकार के प्रति कृतज्ञ बने रहें । स्वयं द्वारा किये उपकार का बखान न करें। वैसे ही व्यवहार की अपेक्षा न रखें।

14. श्रेय दूसरों को ही देते रहें। उन्हें ही आगे बढाएं । हाँ! गलती होने पर तुरन्त अपने ऊपर ले लें।

15. किसी के कहने मात्र से परस्पर अविश्वास न करने लगें, स्वयं निर्णय करें।

16. कोई भी अनुबन्ध लिखित एवं साक्षीपूर्वक ही करें।

17. बिना निर्णय के चाहे किसी का विश्वास न करें। विश्वास भी सीमित करें। विश्वसनीयता कायम रखें । संवैधानिक प्रक्रिया करने को अविश्वास न समझे। जैसे-दी हुई धन राशि को गिन लेना, लेन-देन में लिख लेना, अविश्वास का द्योतक नहीं, अपितु विश्वसनीयता बनाये रखने का उपाय है। कभी-कभी अति विश्वसनीयता भी व्यवहार बिगड़ने का कारण बन जाता है।

18. अपनी सामर्थ्य के अनुसार नुकसान स्वयं झेलें, दूसरों पर न थोपें ।

19. दूसरों के अन्याय को भी अपना कर्मोदय विचारते हुए समता से सहन कर लेवें।

20. अपना निर्णय बिना विशेष कारण के क्षण-क्षण में न बदलें । भूल अवश्य ही शीघ्रता एवं सहजता से सुधार लेवें।

21. जिस विषय की प्रामाणिक जानकारी न हो उस पर मौन ही रहें या स्पष्ट कहें कि मुझे ज्ञात नहीं है।

22. अति संकोच न करें।

23. योग्य उत्तर सहजता से न देना भी कभी-कभी कषाय का निमित्त बन जाता है; अत: योग्य उत्तर देने की सहज वृत्ति बनायें।

24. लघुता से प्रभुता एवं त्याग से शान्ति और प्रतिष्ठा मिलती है; अत: नाम, प्रशंसादि के लिए षड्यंत्र न करें, सावधान रहें।

25. बिना समझे हाँ न करें। विपरीत का भी विनय सहित सीमित शब्दों में निषेध करें।

26. अपनी मनवाने का आग्रह न करें।

27. बाह्य हानि-लाभ की अपेक्षा परिणामों की निर्मलता का अधिक ध्यान रखें।

28. अति राग भी क्षुब्ध करता है, भले ही शुभ ही क्यों न हो; अतः भवितव्य का विचार कर अतिरेक से बचें।

29. अन्तरंग में प्रसन्न रहें और प्रसन्नता की अभिव्यक्ति भी करें। प्रसन्न मुद्रा में ही बातचीत एवं व्यवहार करें।

30. कर्जा, पुस्तक या कोई वस्तु लेकर न देने की वृत्ति कदापि न बनायें।

31. किसी की जमीन, मकान, कमरा या दुकानादि पर कब्जा कदापि न करें।

32. किसी के साथ असभ्यतापूर्ण व्यवहार न करें, जिससे उसे कष्ट हो और स्वयं की निंदा हो।

33. निर्दोष चिकित्सा पद्धति अपनायें, स्वास्थ्य के नियमों को पहले से ही समझे, पालें और पलवायें ।

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