जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


11. गुरुजनों के प्रति व्यवहार :arrow_up:

1. धर्म एवं पद के अनुकूल प्रवर्तन करें, जिससे कषायों के प्रसंग न बनें।

2. अभिप्राय को समझें, मात्र शब्दों को न पकड़े।

3. अत्यन्त विनय पूर्वक बोलें । कुतर्क कदापि न करें।

4. उपेक्षा से न सुने । आवश्यकतानुसार नोट करें।

5. कुछ भी करने से पहले आज्ञा अवश्य लें, कार्य हो जाने की सूचना अवश्य दें। न हो पाने पर उचित कारण बतायें । कुछ भी छिपायें नहीं।

6. सेवा आवश्यकतानुसार अवश्य करें। अत्यधिक सेवा करके प्रमादी न बनायें।

7. दोष सरलता से स्वीकार कर लें। बड़े से बड़ा दोष हो जाने पर भी भयभीत होकर भटकें नहीं। क्षमा माँगते हुए समाधान प्राप्त करें।

8. परोक्ष में भी स्वच्छंदता पूर्वक ऐसा कोई कार्य न करें जो उनकी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल हो।

9. सूक्ष्म एवं जाग्रत उपयोग पूर्वक हर्ष सहित शिक्षा ग्रहण करें।

10. ताड़ना को भी वात्सल्य रूप समझें, उस समय कहे शब्दों को भी गम्भीरता से ग्रहण करें, कषाय समझकर उपेक्षा न करें।

11. गुरुजनों से सम्पत्ति, विद्या, अधिकारादि छीनने का प्रयत्न न करें। उनके हृदय में अपना योग्य स्थान बनायें। सेवा को ही लाभ समझे और निस्पृह भाव रखें।

12. स्वार्थपूर्ण व्यवहार न करें।

13. कुछ कहे जाने पर मौन न रह जायें, योग्य उत्तर दें, समझ में न आने पर विनय सहित पूछे।

14. भलीप्रकार समझ लेने पर ही कार्य करने के लिए अग्रसर हों, भावुकता पूर्वक बिना समझे ही करने के लिए तत्पर न हो जावें। बिना समझे अटकलें न लगायें। अनधिकृत या अप्रमाणिक लोगों से चाहे जैसा समझकर, हम सब समझते हैं -ऐसा भ्रम न पालें, न दूसरों को भ्रमित या भयभीत करें।

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