जीवन पथ दर्शन - ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्' | Jeevan Path Darshan


8. प्रवचन (विषय) निर्देश :arrow_up:

1. श्रोताओं एवं समय के अनुसार शास्त्र के प्रकरण या प्रयोजनभूत विषय का चयन करें।

2. एक प्रवचन, दो, तीन, चार, पाँच, दस, बीस आदि के अनुसार विषय का विभाजन इसप्रकार करें कि निर्धारित समय में विषय पूरा स्पष्ट हो जाये।

3. अनावश्यक रूप से विषय को विषयान्तर करते हुए लम्बायमान न करें।

4. सारगर्भित, संक्षिप्त एवं रोचक शैली से विषय का निरूपण करें।

5. अध्यात्म विषय के बीच में व्यवहारिक विषयों का संक्षिप्त विवेचन एवं हितकारी प्रेरणा भी सामान्य सभा एवं कम समय होने पर भी करें। यदि अधिक समय हो तो अलग-अलग विषय चलायें।

6. व्यवहारिक विषयों के निरूपण के बीच में भी अध्यात्म की प्रेरणा अवश्य करें।

7. समस्त क्रियाओं का प्रयोजन अध्यात्म से जोड़ें। समस्त क्रियाओं और व्यवहार की निर्मलता का आधार भेदविज्ञान और तत्त्वविचार ही समझें ।

8. दर्शन विशुद्धि पूर्वक भावविशुद्धि होना ही सर्व व्यवहार का प्रयोजन है। ‘प्रेरे जो परमार्थ को सो व्यवहार समंत।’

9. निश्चय के द्वारा व्यवहार के निषेध की प्रयोगात्मक विधि भी समझायें।

10. सर्व विषयों का निरूपण वीतरागता का पोषक होना चाहिए। कहीं भी स्वच्छंदता, मिथ्यात्व, प्रमाद, विषय-कषाय आदि का पोषण न हो पाये, ऐसी सावधानी रखें।

11. मोक्षमार्ग के कारणभूत नियमों का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, प्रेरणा तो करें ही, यथाशक्य संकल्प भी करायें।

12. चरणानुयोग के नाम पर मात्र ऊँची-नीची क्रियाओं का अक्रम कथन न करें। सम्यक्त्व से लेकर समाधि तक आवश्यकतानुसार क्रमश: एक दूसरे को जोड़ते हुए निरूपण करें। भावपक्ष-सम्यक्त्व के अंग, ज्ञान के अंग एवं चारित्र में अहिंसादि व्रतों के पूर्णत: या आंशिक पालन रूप नियमों की विधि समझायें, जिससे जीवन पवित्र, न्याय-नीति पूर्ण प्रशंसनीय बने और अध्यात्म की गहराई की ओर बढ़ता हुआ सार्थक बने।

13. देव-शास्त्र-गुरु, सात तत्त्व एवं उनके सम्बन्ध में भूल, छह सामान्य गुण, द्रव्य-गुण-पर्याय, चार अभाव, षट्कारक, निमित्त-नैमित्तिक और कारण-कार्य, कर्म, पंच-समवाय, क्रमबद्ध पर्याय, नय-प्रमाण, बन्ध प्रक्रिया, उदय-उदीरणा आदि अवस्थायें एवं रत्नत्रय, दशलक्षण, सोलहकारण, भेदविज्ञान आदि तथा आत्मा और आत्मानुभव, मूलगुण, नय-प्रमाण, स्याद्वाद-अनेकान्त, वीतराग-विज्ञान आदि। श्रावक के षट् आवश्यक, बारह व्रत, बारह तप, परीषहजय, सम्पूर्णतः श्रावक एवं मुनिधर्म आदि एवं समाधि स्वरूप एवं प्रक्रिया। नैतिकता, भक्ष्य-अभक्ष्य आदि विषयों का आगम आधार से सांगोपांग प्रयोजन परक विश्लेषण सभा के लिये उपयोगी है।

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