हम तो कबहुँ न निजगुन | Hum To Kabahu Naa Nijgun

हम तो कबहुँ न निजगुन भाये,
तन निज मान जान तनदुखसुख में बिलखे हरखाये ॥

तनको गरन मरन लखि तनको, धरन मान हम जाये
या भ्रम भौंर परे भवजल चिर, चहुँगति विपत लहाये ।।(1)

दरशबोधव्रतसुधा न चाख्यौ, विविध विषय-विष खाये
सुगुरु दयाल सीख दइ पुनिपुनि,सुनि,सुनि उर नहि लाये।।(2)

बहिरातमता तजी न अन्तर-दृष्टि न ह्वै निज ध्याये
धाम-काम-धन-रामाकी नित, आश-हुताश जलाये ।।(3)

अचल अनूप शुद्ध चिद्रूपी, सब सुखमय मुनि गाये
’दौल’ चिदानंद स्वगुन मगन जे, ते जिय सुखिया थाये ।।(4)

Artist - पंडित श्री दौलतराम जी

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अरे ! हमने कभी भी अपने गुणों का चिन्तन नहीं किया, उनकी भावना नहीं को। इस तन को अपना मानकर, अपना जानकर हम इस तन के दु:ख व सुख में ही रोते बिलखते, हँसते-मदमाते रहे।

Hey ! We have never thought of our qualities, never felt them. Accepting this body as our own, we kept crying and laughing and mourning in the sorrow and happiness of this body.

यह तन पुद्गल का है, इस कारण गलना इसका स्वभाव है, इस तन का मरण हमने देखा है, इसे धारण करने को हमने जन्म होना समझा है ! इस धारणा को ही हम उचित ठहराते रहे और इस संसार-समुद्र में अनादि काल से पड़े भ्रम के भँवर में हम चारों गतियों की विपदाओं को भोगते रहे हैं।

This body belongs to Pudgal, hence its nature is of melting, we have seen the death of this body, we have considered it to be born to wear it! We justify this belief and in the whirlpool of confusion in this world-sea since time immemorial, we have been suffering the calamities of the four gatis.

दर्शन, ज्ञान और व्रत रूपी अमृत को हमने नहीं चखा, भाँति- भौंति के विषयों के विष का आस्वादन करते रहे । सत्गुरु ने बार-बार में उपदेश दिया, शिक्षा दी, जिसे सुन-सुनकर भी हमने हृदय से उसे नहीं स्वीकारा, विचार नहीं किया !

We did not taste the nectar of philosophy, knowledge and fast, and continued to taste the poison of the subjects of the mind. Satguru preached again and again, gave education, which, even after listening, we did not accept it from our heart, did not consider it!

बहिरात्मता अर्थात् संसार की ओर उन्मुखता को, आकर्षण को नहीं छोड़ा और आत्मा की ओर मुड़कर हमने अपने स्वरूप का चिंतवन नहीं किया। काम-इच्छाएँ, धन और स्त्री इन हो की आशा रूपी आग में अपने आपको नित्य प्रति जलाते रहे।

We did not leave our attraction to Bahritatma i.e. orientation towards the world and turning to the soul, we did not contemplate our nature.
In the fire like hope of fascination, desires, money and women, we keep burning ourself regularly.

यह आत्मा अचल है, स्थिर है, अनूप है, निराला है, शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, यह सब सुखमय है - मुनिजन ऐसा हो गाते हैं । दौलतराम कहते हैं कि जो अपने गुणों में मगन होकर चैतन्यस्वरूप के आनंद का ध्यान करते हैं वे जीव सुखी होते हैं, सुख पाते हैं।

This soul is immovable, it is immobile, it is unique, it is infrequent, it is pure consciousness, it is all happy - the monks sing like that. Daulatram says that those who rejoice in their qualities and meditate on the bliss of Chaitanya Swaroop, those creatures are happy, they get happiness.

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