अर्थ- अहो, सम्यग्दृष्टि जीव की दशा मुझे बड़ी विचित्र लगती है ।
सम्यग्दृष्टि जीव बाहर में तो नारकियों द्वारा दिये जाने वाले दुःख को भोगता है, किन्तु उसी समय वह अपने अंतर में आत्मा के अतीन्द्रिय सुखरस का भी गटागट पान करता रहता है।
इसी
प्रकार वह बाहर में तो अनेक देवांगनाओं के साथ रमण करता है, किन्तु अंतर में सदा उस भोग परिणति से हटने का भाव रखता है।
सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि कर्म के फल को भोगता है, तथापि उसके पास ज्ञान-वैराग्य की ऐसी शक्ति होती है कि उसके कर्म निरंतर कम होते जाते हैं।
वह यद्यपि घर में रहता है, तथापि घर से विरक्त रहता है, अतः उसके आश्रव का निरोध भी होता रहता है।
जो क्रियाएँ अज्ञानी जीव के संसार का कारण होती हैं, वे ही क्रियाएं सम्यग्दृष्टि जीव के निर्जरा का कारण होती हैं।
सम्यग्दृष्टि जीव की नारक, पशु, स्त्री, नपुंसक, द्वीन्दिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रीय ये कर्म प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती है।
संयम को धारण नहीं कर सकने पर भी उसके हदय में संयम धारण करने की तीव्र अभिलाषा रहती है।
कविवर दौलतराम जी कहते हैं कि ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव के उज्जवल यश का गुणगान करने की अभिलाषा मेरे हदय में सदैव बनी रहती है।