भगवान महावीर के प्रति(तुम्हें जानकर जग) | Tumhe jankar jag tumse anjaan reh gaya

हे त्रिलोक पूज्य महावीर प्रभु!
सारा जगत आपको विश्व का कर्ता मानता है।
जबकि आप तो विश्व के ज्ञाता मात्र हो।
सचमुच जगत आपके स्वरूप को ना जानकर
स्वयं से भी अनजान रह गया।

तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया!
रे! मानव की तरह तुम्हारा जन्म हुआ ही
राजघराने में जन्मे यह बड़ी बात नहिं
महलों में रहकर भी मानव गिर जाता है
और सुमन कांटो में पलकर खिल जाता है
अरे! झोंपड़ी महल यहाँ कुछ बात नहीं है
जागे पौरुष, मुक्ति कहीं अवरुद्ध नहीं है
पर दुनिया तो इस रहस्य को समझ न पाई
कैसे तू इन्सान अरे! भगवान बन गया?
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।।1।।

आते जब तुम गर्भ, स्वर्ग से रत्न बरसते
जन्म तुम्हारा जान स्वर्ग से इन्द्र उतरते
होता जब वैराग्य देवता तब भी आते
समवसरण का वैभव भी सब देव रचाते
यह सब सच है किन्तु बड़ी यह बात नहीं है
रे! विभूति तो सदा पुण्य की दास रही है
पर दुनिया तो चमत्कार की पूजा करती
इसीलिए तो तू केवल अवतार रह गया
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।।2।।

तुमको पहिचाना तुम झट बेटा देते हो
और डाकिनी भूत तुरत ही हर लेते हो
कभी-कभी तो तुमको यह कौतूहल आता
अरे फेर देते सहसा ही जज का माथा
इसीलिए आवश्यकता भगवान तुम्हारी
ब्लेक-मार्केटिंग में रखते लाज हमारी
और नहीं तो हमको तुमसे मतलब भी क्या
दुनियां में बस इसीलिए भगवान बच गया ।
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।।3।।

करता है खिलवाड़ राग यों वीतराग से
सुनता गाली वीतराग रे! अधम राग से
होता है भगवान वीतरागी निश्चय ही
जिसे राग का पक्ष लेश भी शेष रहा नहिं
वह निर्माण और विध्वंस नहीं करता है
सुख-दुख देने का न उपक्रम वह करता है
पर हमने भगवान हमारे घर का माना
खंड-खंड हो इसीलिए भगवान रह गया
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।।4।।

बोले वीर स्वतन्त्र विश्व का अणु-अणु ही है
अक्षय है वह परिवर्तन प्रतिक्षण निश्चित है
नहीं सृष्टि निर्माण, सृष्टि का प्रलय नहीं है
परिवर्तन में वस्तु सदा ही अक्षय ही है
रे कंगन से हार, हार से कंगन बनता
किन्तु स्वर्ण की दोनों में है अक्षय सत्ता
नहीं एक को कभी अपेक्षा होती पर की
साधक-बाधक कहना मन की झूंठी वृत्ति
बोलो किससे राग-द्वेष फिर किससे करना
शत्रु-मित्र ही जब जग में कोई न रह गया
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।।5।।

मेरी देह और वाणी यह अहंकार है
मैं इसका संचालक यह भारी विकार है
अपने कार्य निरत है जग के अणु-अणु अविरल
अणु को भी जो पलट सके किसमें इतना बल?
जड़ समेट अपनी माया काया ले जाता
चेतन ममता और अहं में घुलता जाता
इस रहस्य को जान सका न कभी अज्ञानी
अहं गला नहिं अमर अनंती बार मर गया
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।।6।।

यह पर का कर्तृत्त्व पाप है गुरुतर जग का
सब अनर्थ का मूल यही है भारी हिंसा
पर का घात सभी कहते हैं अनाचार है
किन्तु अरे पर की रक्षा भी चितविकार है
अहं रहे जो पर के जीवन की रक्षा का
महावीर दर्शन में वह भी भारी हिंसा,
क्योंकि पराये जीवन पर अधिकार पाप है,
अहं चिता में चेतन बारम्बार जल गया
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।।7।।

जीवन भर ही अरे भक्ति रस में अवगाहा
किन्तु भक्त भगवान रूप को समझ न पाया
अरे बाह्य के चाकचिक्य में ऐसा उलझा
भीतर था भगवान और बाहर से पूजा
कहता है भगवान अरे! क्यों नहीं रीझते
बीत गये युग पूजा में क्यों नहीं सीझते ?
किन्तु अरे ओ! छलिया क्या यह तुझे ज्ञात है
पूजा करते तुझे विषय का ब्याल डस गया ?
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।।8।।

भक्त सदा चलता है रे! भगवान चरण पर
वीतराग का भक्त न जाता राग डगर पर
और अरे! दोनों में है कितना-सा अन्तर
एक चल चुका, एक चल रहा है रे! पथ पर
शक्ति तुल्य है अन्तर थोड़ा-सा पौरुष का
और आत्मा-परमात्मा में अन्तर भी क्या ?
भक्त और भगवान मुक्ति की बातें करते
मुक्ति कला यों सीख भक्त भगवान बन गया
तुम्हें जानकर जग तुमसे अनजान रह गया।।9।।

रचयिता: श्री बाबू जुगलकिशोर जैन ‘युगल’ जी
Source: चैतन्य वाटिका

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