कर्त्ता तो नित मरता है | Karta to Nit Marta Hai

कर्त्ता तो नित मरता है

(तर्ज : लखी-लखी प्रभु वीतराग छवि)

कर्त्ता तो नित मरता है, बस ज्ञाता शिव सुख पाता है |

कर्त्ता तो बोझा ढोता है, ज्ञाता निर्भार रहता है || टेक ||

कर्त्ता तो नित कर्म बाँधता, ज्ञाता कर्म खिपाता है |

निज में तृप्त विरक्त बाह्य में सहज अकर्त्ता ज्ञाता है || 1 ||

भेदज्ञान से शून्य है कर्त्ता, भव-भव में दुःख पाता है |

आकुलतामय जीवन उसका, क्षण भी लहे न साता है || 2 ||

हो विकल्प अनुसार कदाचित, अभिमानी हो जाता है |

जब इच्छा अनुसार न होवे, क्रोध माँहि झुलसाता है || 3 ||

करो तत्त्वाभ्यास, नशे कर्त्तृत्व महा दुःखदाता है |

स्वयं सदा क्रमबद्ध परिणमन, सहज समझ में आता है || 4 ||

अन्तर्मुख पुरुषार्थ ढले, आतम अनुभव हो जाता है |

मोह महातम नशे तभी, ज्ञाता साक्षात् कहाता है || 5 ||

ज्ञाता अन्तर्दृष्टि के बल से सहज विरक्ति पाता है |

ज्ञेयों से निरपेक्ष ज्ञान-आनन्दमय जीवन होता है || 6 ||

वीतरागता बढ़ती जाती, निर्ग्रन्थ पद प्रगटाता है |

विषय-वासना शून्य ह्रदय से, निश्चल ध्यान लगाता है || 7 ||

नशे कर्म बंधन दुःखदायी, परमातम पद पाता है |

अहो ! परम निर्दोष मुक्त, ज्ञाता ही सदा रहाता है || 8 ||

Source : “जिन भक्ति सिन्धु”

Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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