कुंदकुंद स्वामी का छठवाँ नाम क्या?

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आज माघ सुद पंचमी के पावन दिवस पर एक महान रत्न का जन्म कोण्डकुण्ड नगर में हुआ था जिसका नाम आचार्य कुंदकुंद था। आचार्य देव ने इस जगत को अध्यात्मवाद का उपदेश देकर कृतार्थ किया है। उनका सम्पूर्ण जैन समाज उपकार मानता है। ताड़पत्र पर ग्रंथो को रचकर उनने मात्र हम जैसे पामर जीवों के लिए अपना रक्त बहाया है। अतः हम सभी का यह परमकर्तव्य बनता है की उनके ग्रंथों को पढ़कर समझकर हम सब अपना कल्याण करें।
जगत में कुंदकुंद स्वामी के पांच नाम प्रसिद्ध हैं, जो अनेकों शिलालेखों के माध्यम से प्रसिद्ध हैं। परन्तु एक नाम से अभी भी जगत अनभिज्ञ है। हमे आचार्य कुंदकुंद के इस नाम पर भी शोधबीन करके सत्यता को प्रगट करना चाहिए। अतः मैं भी कुछ प्रमाणों के आधार से सिद्ध करूंगा की आचार्य कुंदकुंद देव का छठवाँ नाम आचार्य वट्टकेर था।
सर्वप्रथम हमे यह जानना चाहिए की मूलाचार ग्रंथ के रचयिता वास्तव में कोन है ?? इसके उत्तर स्वरूप हमको कुंदकुंद का छठवाँ नाम क्या था इसका उत्तर भी सहज रूप से मिल जाएगा।

(1) श्री वट्टकेर आचार्य और कुन्दकुन्दाचार्य ये दोनों मूलाचार के रचयिता हैं। आचार्य देव का एक ग्रंथ और है जिसे मूलाचार के नाम से जगत जानता है। मूलाचार की कुछ गाथाएं कुंदकुंद के परमागमों में से एक सी हैं, जैसे
समयसार की 15 वीं गाथा -
भूयत्येणाभिगदा जीवाजीवा य पुष्णपावं च आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मतं ॥१५॥
यह गाथा समयसार में १५वीं है। मूलाचार में भी यह गाया दर्शनाचार का वर्णन करते हुए पांचवें अध्याय में छठे क्रमांक पर आयी है।

रागो बंद कम्मं मुख्य जीवो विरागसंपण्णो । एसो जिणोददेसो समासदो बंधमोक्खाणं ॥५०॥
यह गाथा मूलाचार के अध्याय ५ में है। यही गाथा किंचित् बदलकर समयसार में है। अन्तिम चरण में “तम्हा कम्मेसु मा रज्ज” ऐसा पाठ बदला है। नियमसार ग्रन्थ श्री कुन्दकुन्ददेव की रचना है। यह ग्रन्थ मुनियों के व्यवहार और निश्चय चारित्र का वर्णन करता है। इसमें व्यवहार चारित्र अति संक्षिप्त है,गौण है, निश्चयचारित्र ही विस्तार से है, वही मुख्य है। इस ग्रन्थ में अनेक गाथाएं ऐसी हैं जो कि मूलाचार में ज्यों की त्यों पायी जाती हैं।
जैसे - नियमसार की गाथा 36, 42, 45, 47 48 और 104। ऐसे ही गाथाएं मूलाचार में पांचवें अध्याय में 4, 132, 136 और अध्याय 7 से गाथा 14, 23, 24, 25 और 26 एक सी लगती हैं।

जिणवयण मोसह मिणं विसयसविरेवणं अभिदभूदं ।
जरमरणवाहिलेयण खयकरण सम्वदुक्खाण ।। दर्शनपाहुड गाथा17
यह गाथा मूलाचार में भी है।

मूलाचार श्री कुन्दकुन्ददेव की कृति है, इसके लिए एक ठोस प्रमाण यह भी है कि उन्होंने ‘द्वादशानुप्रेक्षा’ नाम से एक स्वतन्त्र ग्रंथ रचना की है। मूलाचार में भी अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। प्रारम्भ की दो गाथाए दोनों जगह समान हैं। यथा-
सिद्धे णमंसिद्ण य झाणुत्तमवविय दोहसंसारे।
दह दह दो दो य जिणे दह दो अणुपेहणा बुच्छ ॥ १॥

अद्ध वमसरप्यमेगत्तमण्ण संसारलांगमसुचितं।
आसवसंवरणिज्जर धम्मं वोहि च चितेज्जो २॥

इन सभी प्रमाणों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि यह मूलाचार श्री कुन्दकुन्द देव की कृति है।

पंडित राजमल जी पवैया जी ने भी आचार्य कुंदकुंद पूजन में मूलाचार ग्रंथ के लेखक आचार्य कुंदकुंद स्वामी को ही लिखा है।

(2) अब यह प्रश्न होता है कि तब यह वट्टकेर आचार्य’ का नाम क्यों आया है। तब ऐसा कहना शक्य है कि कुन्दकुन्ददेव का ही अपरनाम वट्टकेर माना जा सकता है। क्योंकि श्री वसुनन्दि आचार्य ने मूलाचार की टीका के प्रारम्भ में तो श्री मद्वट्टकेराचार्यः ‘श्री वट्टकेराचार्य’ नाम लिया है। अन्त में " इति मूलाचारविवृती द्वादशोऽध्यायः।
कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत मूलाचा राख्यविवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रवणस्य ।" ऐसा कहा है। इस उद्धरण से तो संदेह को अवकाश ही नहीं मिलता है।

(3) पण्डित जिनदास फडकुले ने भी श्री कुन्दकुन्द को ही ‘वट्टकेर’ सिद्ध किया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने ‘परिकर्म’ नाम की जो षट्खण्डागम के त्रिखण्डों पर वृत्ति लिखी थी, उससे उनका नाम ‘वृत्तिकार’ - ‘वट्टकेर’ इस रूप से भी प्रसिद्ध हुआ होगा। इसी से वसुनन्दी आचार्य ने आचारवृत्ति (टीका) के प्रारम्भ में (वट्टकेर) नाम का उपयोग किया होगा, अन्यथा उस ही वृत्ति (टीका) के अन्त में वे “कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराव्यविवृत्तिः" ऐसा उल्लेख कदापि नहीं करते। अतः कुन्दकुन्दाचार्य ‘वट्टकेर’ नाम से भी दिगंबर जैन जगत् में प्रसिद्ध थे।"
(4) ‘जैनेन्द्रकोश" में श्री जिनेन्द्रवर्णी ने भी मूलाचार को श्री कुन्दकुन्ददेव कृत माना है। इसकी रचना शैली भी श्री कुन्दकुन्ददेव की ही है।
कन्नड़ भाषा में मूलाचार की टीका करने वाले श्री मेघचन्द्राचार्य ने बार-बार इस ग्रन्थ को कुन्दकुन्द देव कृत कहा है। और वे आचार्य दिगम्बर जैनाचार्य होने से स्वयं प्रामाणिक
हैं। उनके वाक्य स्वयं आगम वाक्य हैं-प्रमाणभूत हैं, उनको प्रमाणित करने के लिए और किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। इसलिए मूलाचार ग्रंथ श्री कुन्दकुन्द देव की कृति है, और श्री कुन्दकुन्ददेव का ही दूसरा नाम वट्टकेराचार्य’ है, यह बात सिद्ध होती है।
(5) जैन इतिहास के माने हुए विद्वान् स्व० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित ‘पुरातनवाक्य सूची’ की प्रस्तावना में मूलाचार ग्रंथ को कुन्दकुन्द रचित मानते हुए वट्टकेराचार्य और कुन्दकुन्द को अभिन्न दिखलाया है।
(6) डॉ० जैन के मत से दो निष्कर्ष उपस्थित होते है :-

  1. श्रद्धा, भक्ति और मान्यता के अतिरेक के कारण मूलाचार के कर्त्ता कुन्दकुन्द मान लिये गये हैं। कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्परा के युगसंस्थापक और यूगान्तरकारी आचार्य हैं, अतः वट्टकेर नाम आचार्य कुंदकुंद का ही है।

  2. मूलाचार दिगम्बर परम्परा का आचारांग ग्रन्थ है। इसी कारण ग्रन्थ का सम्बन्ध कुन्दकुन्द से जोड़ा गया है। वट्टकेर आचार्य की अन्य कृति उपलब्ध नहीं होती। अतएव इतने महान् ग्रन्थ का रचयिता इनको स्वीकार करने में उत्तरवर्ती लिपिकारों को आशंका हुई।

(7) डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी प्रवचनसार की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना में मूलाचार को दक्षिण भारत की पाण्डुलिपियों के आधार पर कुन्दकुन्द कृत लिखा है। पर एक निबन्ध में मूलाचार को संग्रह-ग्रन्थ सिद्ध किया है, और इसके संग्रहकर्ता सम्भवतः वट्टकेर थे, यह अनुमान लगाया है।

वर्तमान में ज्ञानमती माताजी ने भी स्वयं आचार्य कुंदकुंद को ही आचार्य वट्टकेर माना है।
इस रहस्य पर एक दृष्टि संपूर्ण जैन समाज को देनी चाहिए और भी अनेकों प्रमाण से वट्टकेराचार्य ही कुंदकुंद हैं इसको प्रमाणित करना चाहिए।

      संदर्भित ग्रंथ सूची 

1 मूलाचर भाग 1, प्रस्तावना पंडित जिनदासजी
2 भगवान महावीर और उनकी आचार्य परंपरा भाग 2
3 प्रवचनसार टीका प्रस्तवना , डॉ० ए० एन० उपाध्ये
4 पुरातन जैन वाक्य सूची
5 जैनेंद्रसिद्धांत कोश ,भाग 3
6 मूलाचार टीका,पण्डित जिनदास फडकुले
7 समयसार
8 नियमसार
9 अष्टपाहुड़
10 भगवान महावीर और उनकी आचार्य परंपरा सोनगढ द्वारा प्रकाशित।
11 समयसार नाटक,संपादन पंडित सुदीप जी शास्त्री

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