720 तीर्थंकर - जयमाला

सप्तसतक विंसति तीर्थंकर, ख्याति आपकी जग-जानी।
तुम्ही सच्चे देव अहो ! हे वीतराग केवलज्ञानी।।
रागी द्वेषी देवो को ही, मैंने अब तक पूजा है।
जब तुमको परखा तो जाना, आप समान न दूजा है।।
रागी देव कुमार्ग बताकर, जगत जाल में उलझाते।
अपनी सेवा को ही वे सब, सुख का साधन बतलाते।।
वीतराग गुण देख आपमें, हे प्रभु मैं उत्कृस्ट हुआ।
कल्याणी वाणी सुनकर अब, मेरा मन संतुस्ट हुआ।।
मुझको विस्मय होता है, ये भक्त आपके कैसे है ?
पुत्र, पौत्र धन मांगे तुमसे, अतः भिखारी जैसे है।।
भोगो की आशा से ही ये, भक्ति आपकी करते है।
विषय वासना की ज्वाला में, इनके ह्रदय सुलगते है।।
महापुण्य से जैन धर्म को, पाकर योंही खोते है।
अपने ही हाथो से मूरख, बीज दुखो के बोते है।।
वीतराग हो या रागी हो, कोई कुछ भी नहीं देता।
व्यर्थ भ्रान्ति में पड़कर मूरख, घड़ा पाप का भर लेता।
मुझको तो बस मात्र आपकी, वीतरागता भाई है।
इसलिए मेरे उर में प्रभु ! भक्ति आपकी आयी है।।

वैभवशाली समोशरण है, इस कारण मैं भक्त नहीं।
परमौदारिक दिव्य देह है, इस कारण आसक्त नहीं।।
सुरपति तुमको पूजें इसकी, मुझको नहीं आती महिमा।
गणधर भी नतमस्तक होते, इससे क्या बढ़ती गरिमा ?
गर्भ, जन्म पर आ देवो ने, रत्नो की वर्षा की थी।
जन्म भूमि को स्वर्ग समान, सुसज्जित कर शोभा की थी।।
तभी मेरु पर जा सुरपति ने, कलशो से अभिषेक किया।
चौषठ चवर ढुरे सर ऊपर, देवो ने जयकार किया।।
ये सब पुण्य उदय के फल थे, इन सबसे तुम पूज्य नहीं।
ये अतिसय होने से प्रभुवर ! तुम मेरे आराध्य नहीं।।
वीतरागता पर ही केवल, मेरा ह्रदय लुभाया है।
अन्तर्मुखी मगनता लखकर, रोम-रोम हरषाया है।।
नहीं चाहता जड़ वैभव मैं, बस निज में ही मगन रहूँ।
वीतराग नहीं होता तबतक, मात्र आपकी शरण गहूँ।।

भयभीत भरमते भक्त के, तुम भय हरन भगवंत हो।
मुझ दास को निर्भय करो, जिससे भ्रमण का अंत हो।।
मन वचन तन से, विनय से, मेरी सभी को वंदना।
चिद्रूप को ध्याता रहूँ, केवल यही है भावना।।
तीर्थेश प्रभु ! तुम ध्रुव, अचल, अनुपम सुगति में शोभते।
भव से भयाकुल भव्य को, प्रभु आप ही संभोधते।
चउघाती नाशी, चिदविलासी, अतुल सुख की राशि हो।।
प्रभु ! आप अनुपम अमल हो, अनंत शक्ति निधान हो।
अद्भुद्ध, अतीन्द्रिय हो अहो ! अशरीर हो सुखखान हो।
हर परिणमन से भिन्न हो, हो भिन्न लोकालोक से।
नित सुख अतीन्द्रिय भोगते, तादात्म्य रह चिदलोक से।।

मैं देही मान स्वयं को प्रभु ! तन तन्मय होकर भरमाया।
मैं तुमसा ही अशरीरी हूँ, यह अब तक समझ नहीं पाया।।
अब द्रण प्रतीति यह आयी है, मैं भी हूँ आप समान अहो।
मैं पतित नहीं हूँ, पावन हूँ, रागादि शून्य भगवान् अहो।
अब भौतिक आकर्षण तजकर, निज आतम प्रीती लगाऊं मैं।
अज्ञान जनित चिर भ्रान्ति मिटा, सहजानंदी पद पाऊँ मैं।।
संतप्त, त्रस्त परिणति मेरी, अब अन्तः तल में जम जाए।
अब पर से मुड़कर यह, ध्रुव ज्ञायक को ही अपनाए।।
निज सत्य, शिवम्, सुन्दर का ही, अविचल ध्यान लगाऊं मैं।
शुद्धतम रूप में तन्मय हो, तुम सा ही शिव पद पाऊँ मैं।।

“प्रेमचंद्र” की विनय यही है, तुम जैसा ही बन जाऊं।
अपने में परिपूर्ण लीन हो, स्वाभाविक सुख प्रगटाउँ।।

(चैतन्य का प्रेमी एक भक्त - प्रेमचंद्र, शिवपुरी)

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