श्रुतज्ञान प्रमाण ज्ञान क्यूँ है?

श्रुतज्ञान को प्रमाण क्यूँ कहाँ जाता है? श्रुतज्ञान आत्मा को पूर्ण रूप से तो जानता नहीं है, उसके अनंत गुण आदि को नहीं जान सकता है? तो फिर प्रमाण कैसे हुआ? क्या इसलिए की जितना भी आत्मा को जानता है उतना यथार्त जानता है?

श्रुतज्ञान और प्रमाण का स्वरूप थोड़ा विस्तार से समझना हो तो कहाँ पढ़ सकते है?

वास्तव में ज्ञान ही प्रमाण है।

णाणं होदि पमाण ।

अर्थात पांचो ही ज्ञान प्रमाण है।

‘तत्प्रमाणे’ ।

परंतु यह ज्ञान सम्यक रूप हो तो ही प्रमाण कहेंगे।

सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, मिथ्याज्ञान नहीं
श्लोकवार्तिक 3/1/10/38/65 मिथ्याज्ञानं प्रमाणं न सम्यगित्यधिकारतः । यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ।38।

= सूत्र में सम्यक् का अधिकार चला जा रहा है , इस कारण संशयादि मिथ्याज्ञान प्रमाण नहीं है । जिस प्रकार जहाँ पर अविसंवाद है वहाँ उस प्रकार प्रमाणपना व्यवस्थित है ।

संशय-विमोह-विभ्रमसे रहित जो वस्तु का ज्ञान है, उस ज्ञानस्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । जैसे - प्रदीप स्व- पर प्रकाशक है, उसी प्रकार आत्मा भी स्व और परके सामान्य विशेषको जानता है, इस कारण अभेद से आत्मा के ही प्रमाणता है ।

जी हां
ज्ञान भले ही क्षयोपशम रूप हो परंतु वस्तुस्वरूप की श्रद्धा सच्ची है।

श्रुतज्ञान को महत्व ज्यादा इसीलिए दिया जा रहा है क्योंकि मिथ्या से सम्यक की ओर जाने के लिए अर्थात ज्ञान को अप्रमाण से प्रमाण में कारण भूत श्रुतज्ञान के आश्रय से ही जा सकते है।

श्रुतज्ञानको छोड़कर शेष सब (अर्थात् शेष चार) ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं । परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का है

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इसका विस्तार करें। स्वार्थ और परार्थ क्या?

सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/4ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम् ।=
ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हैं और

वचनात्मक प्रमाण परार्थ प्रमाण कहलाता है । ( राजवार्तिक/1/6/4/33/11 )

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केवलज्ञान का अंश होने से, अंगबाह्य-अंगप्रविष्ट रूप आगम प्रमाण होने से, ज्ञानियों के उपदेश का माध्यम होने से, परोक्ष रूप में विश्व-व्यवस्था को बताने वाला होने से, स्याद्वादरूप होने से, वस्तु-स्वरूप बताने वाला होने से, इत्यादि, कारणों से श्रुतज्ञान प्रमाण है।

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