शास्त्रों में कुछ तर्क पर शंका

गुणस्थान विवेचन में मोक्ष मार्ग प्रकाशक का एक तर्क दिया है जो इस प्रकार है:

यदि न जानना दुःख का कारण हो तो पुद्गल के भी दुःख ठहरे; परन्तु दुःख का मूल कारण इच्छा है।

यहाँ पर सिद्धांत एकदम खरेखर है (दुःख का मूल कारण इच्छा है) लेकिन तर्क मुझे सही नहीं लगा. क्यूंकि अगर न जानने से पुद्गल को दुःख रूप होने का तर्क दिया है तो उसी के अनुरूप तर्क यह भी दिया जा सकता है की दुःख का मूल रूप इच्छा नहीं है क्यूंकि अगर ऐसा होता तो पुद्गल भी अनंत सुखी होता क्यूंकि उसमें भी इच्छा का अभाव है

शास्त्रों में कई जगह पर ऐसे प्रसंग और तर्क आते है जिसमें मुझे शंका होने लगती है। इसका कोई समाधान है?

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जिनागम में अनेकांत और स्याद्वाद रूपी शैली का प्रयोग है।जिसमें जीवों को ज्ञात से अज्ञात और स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाया जाता है।
इस प्रसंग में मुझे ऐसा ही लगता है क्योंकि जानने से हम सभी भलीभांति परिचित हैं और परिचय के साथ-साथ वह बहुत स्थूल भी है एवं इच्छा, ‘जानने की क्रिया’ की अपेक्षा सूक्ष्म है इसलिए यहां पर इच्छा को समझने लिए जानने का उदाहरण दिया है।जिनवाणी में और अनेकानेक तर्क केवल इस आधार पर दिए जाते हैं जिससे कि क्षयोपशम ज्ञान धारी जीव स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ें।

सुधार अपेक्षित।

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