(कवित्त मनहर)
जीवन अलप आयु बुद्धि बल हीन तामैं,
आगम अगाध सिंधु कैसैं ताहि डाक है ।
द्वादशांग मूल एक अनुभौ अपूर्व कला,
भवदाघहारी घनसार की सलाक है ॥
यह एक सीख लीजै याही कौ अभ्यास कीजे,
याकौ रस पीजै ऐसो वीरजिन-वाक है ।
इतनो ही सार येही आतम को हितकार,
याहीं लौं मदार और आगे ढूकढाक है ॥२१॥
हे भाई ! यह मनुष्य जीवन वैसे ही बहुत थोड़ी आयुवाला है, ऊपर से उसमें बुद्धि और बल भी बहुत कम है, जबकि आगम तो अगाध समुद्र के समान है, अत: इस जीवन में उसका पार कैसे पाया जा सकता है?
अत: हे भाई! वस्तुतः सम्पूर्ण द्वादशांगरूप जिनवाणी का मूल तो एक आत्मा का अनुभव है, जो बड़ी अपूर्व कला है और संसाररूपी ताप को शान्त करने के लिए चन्दन की शलाका है। अत: इस जीवन में एकमात्र आत्मानुभवरूप अपूर्व कला को ही सीख लो, उसका ही अभ्यास करो और उसका ही भरपूर आनन्द प्राप्त करो। यही भगवान महावीर की वाणी है।
हे भाई। एक आत्मानुभव ही सारभूत है - प्रयोजन भूत हैं, करने लायक कार्य है, और इस आत्मानुभव के अतिरिक्त अन्य सब तो बस कोरी बातें हैं।
विशेष : यह कवि का अतीव महत्त्वपूर्ण पद है। इसमें कवि ने आत्मानुभव को द्वादशांग रूप समस्त जिनवाणी का मूल बताते हुए निरंतर उसी के अभ्यासादि की जो मंगलकारी प्रेरणा दी है, उस पर पुनः पुनः गहराई से विचार करना चाहिए। कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र आदि आचार्यों ने भी अपने ग्रन्थों में, कैसे भी मर कर भी आत्मानुभव करने की शिक्षा दी है।
तथा इस प्रसंग में मुनि रामसिंह के ‘पाहुड दोहा’ का ९९ दोहा भी गंभीरतापूर्वक विचारणीय है -
“अंतोणत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा।
तं णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणक्खयं कुणदि।”
अर्थात् शास्त्रों का अन्त नहीं है, समय थोड़ा है और हम दुर्बुद्धि हैं, अत: केवल वही सीखना चाहिए जिससे जन्म-मरण का क्षय हो।
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